फ्रेडरिक इंगेल्स ने कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक सिद्धान्त को वैज्ञानिक समाजवाद (Scientific Socialism) का नाम दिया। मार्क्स ने यद्यपि कभी भी वैज्ञानिक समाजवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया किन्तु उन्होने यूटोपियन समाजवाद की आलोचना की।Follow me on Instagram I'd is. @sunilmeenaji93

मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता माना जाता है। मार्क्स जर्मन देश के एक राज्य का रहनेवाला था और जर्मनी 1871 ई. के पूर्व राजनीतिक रूप से कई राज्यों में विभाजित, तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ था। अत: यहाँ पर समाजवादी विचारों का प्रचार देर से हुआ। यद्यपि जोहान फिख्टे (Johaan Fichte, 1761-1815) के विचारों में समाजवाद की झलक है, परंतु जर्मनी का सर्वप्रथम और प्रमुख समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ही माना जाता है। मार्क्स के विचारों पर हीगेल के आदर्शवाद, फोरवाक (Feuerbach) के भौतिकवाद, ब्रिटेन के शास्त्रीय अर्थशास्त्र, तथा फ्रांस की क्रांतिकारी राजनीति का प्रभाव है। मार्क्स ने अपने पूर्वगामी और समकालीन समाजवादी विचारों का समन्वय किया है। उसके अभिन्न मित्र और सहकारी एंगिल्स ने भी समाजवादी विचार प्रतिपादित किए हैं, परंतु उनमें अधिकांशत: मार्क्स के सिद्धांतों की व्याख्या है, अत: उसके लेख मार्क्सवाद के ही अंग माने जाते हैं।

मार्क्स के दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) कहा जाता है। मार्क्स के लिए वास्तविकता विचार मात्र नहीं भौतिक सत्य है; विचार स्वयं पदार्थ का विकसित रूप है। उसका भौतिकवाद, विकासवान् है परंतु यह विकास द्वंद्वात्मक प्रकार से होता है। इस प्रकार मार्क्स, हीगल के विचारवाद का विरोधी है परंतु उसकी द्वंद्वात्मक प्रणाली को स्वीकार करता है। SUNIL KUMAR MEENA BUNDI

मार्क्स के विचारों की दूसरी विशेषता उसका ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical materialism) है। कुछ लेखक इसको इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या भी कहते हैं। मार्क्स ने सिद्ध किया कि सामाजिक परिवर्तनों का आधार उत्पादन के साधन और उससे प्रभावित उत्पादन संबंधों में परिवर्तन हैं। अपनी प्रतिभा के अनुसार मनुष्य सदैव की उत्पादन के साधनों में उन्नति करता है, परंतु एक स्थिति आती है जब इस कारण उत्पादन संबंधों पर भी असर पड़ने लगता है और उत्पादन के साधनों के स्वामी-शोषक-और इन साधनों का प्रयोग करनेवाला शोषित वर्ग में संघर्ष आरंभ हो जाता है। स्वामी पुरानी अवस्था को कायम रखकर शोषण का क्रम जारी रखना चाहता है, परंतु शोषित वर्ग का और समाज का हित नए उत्पादन संबंध स्थापित कर नए उत्पादन के साधनों का प्रयोग करने में होता है। अत: शोषक और शोषित के बीच वर्गसंघर्ष क्रांति का रूप धारण करता है और उसके द्वारा एक नए समाज का जन्म होता है। इसी प्रक्रिया द्वारा समाज आदिकालीन कबायली साम्यवाद, प्राचीन गुलामी, मध्यकालीन सामंतवाद और आधुनिक पूँजीवाद, इन अवस्थाओं से गुजरा है। अभी तक का इतिहास वर्गसंघर्ष का इतिहास है, आज भी पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच यह संघर्ष है, जिसका अंत सर्वहारा क्रांति द्वारा समाजवाद की स्थापना से होगा। भावी साम्यवादी अवस्था इस समाजवादी समाज का ही एक श्रेष्ठ रूप होगी। SUNILMEENAJI93

मार्क्स ने पूंजीवादी समाज का गूढ़ और विस्तृत विश्लेषण किया है। उसकी प्रमुख पुस्तक का नाम das पूँजी (Capital) है। इस संबंध में उसके अर्घ (Value) और अतिरिक्त अर्घ ('Surplus value) संबंधी सिद्धांत मुख्य हैं। उसका कहना है कि पूँजीवादी समाज की विशेषता अधिकांशत: पण्यों (Commodities) की पैदावार है, पूँजीपति अधिकतर चीजें बेचने के लिए बनाता है, अपने प्रयोग मात्र के लिए नहीं। पण्य वस्तुएँ अपने अर्घ के आधार पर खरीदी बेची जाती हैं। परंतु पूँजीवादी समाज में मजदूर की श्रमशक्ति भी पण्य बन जाती है और वह भी अपने अर्घ के आधार पर बेची जाती है। प्रत्येक चीज के अर्घ का आधार उसके अंदर प्रयुक्त सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम है जिसका मापदंड समय है। मजदूर अपनी श्रमशक्ति द्वारा पूँजीपति के लिए बहुत सामथ्र्य (पण्य) पैदा करता है, परंतु उसकी श्रमशक्ति का अर्घ बहुत कम होता है। इन दोनों का अंतर अतिरिक्त अर्घ है और यह अतिरिक्त अर्घ जिसका आधार मजदूर का श्रम है पूँजीवादी मुनाफे, सूद, कमीशन आदि का आधार है। सारांश यह कि पूँजी का स्रोत श्रमशोषण है। मार्क्स का यह विचार वर्गसंघर्ष को प्रोत्साहन देता है। पूँजीवाद की विशेषता है कि इसमें स्पर्धा होती है और बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को परास्त कर उसका नाश कर देता है तथा उसकी पूँजी का स्वयं अधिकारी हो जाता है। वह अपनी पूँजी और उसके लाभ को भी फिर से उत्पादन के क्रम में लगा देता है। इस प्रकार पूँजी और पैदावार दोनों की वृद्धि होती है। परंतु क्योंकि इसके अनुपात में मजदूरी नहीं बढ़ती, अत: श्रमिक वर्ग इस पैदावार को खरीदने में असमर्थ होता है और इस कारण समय समय पर पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकटों की शिकार होती है जिसमें अतिरिक्त पैदावार और बेकारी तथा भुखमरी एक साथ पाई जाती है। इस अवस्था में पूँजीवादी समाज उत्पादनशक्तियों का पूर्ण रूप से प्रयोग करने में असमर्थ होता है। अत: पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच वर्गसंघर्ष बढ़ता है और अंत में समाज के पास सर्वहारा क्रांति (Proletarian Revolution) तथा समाजवाद की स्थापना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। सामाजिक पैमाने पर उत्पादन परंतु उसके ऊपर व्यक्तिगत स्वामित्व, मार्क्स के अनुसार यह पूँजीवादी व्यवस्था की असंगति है जिसे सामाजिक स्वामित्व की स्थापना कर समाजवाद दूर करता है।

राज्य के संबंध में मार्क्स की धारणा थी कि यह शोषक वर्ग का शासन का अथवा दमन का यंत्र है। अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक शासकवर्ग इसका प्रयोग करता है। पूँजीवाद के भग्नावशेषों के अंत तथा समाजवादी व्यवस्था की जड़ों को मजबूत बनाने के लिए एक संक्रामक काल के लिए सर्वहारा वर्ग भी इस यंत्र का प्रयोग करेगा, अत: कुछ समय के लिए सर्वहारा तानाशाही की आवश्यकता होगी। परंतु पूँजीवादी राज्य मुट्ठी भर शासकवर्ग की बहुमत शोषित जनता के ऊपर तानाशाही है जब कि सर्वहारा का शासन बहुमत जनता की, केवल नगण्य अल्पमत के ऊपर, तानाशाही है। समाजवादियों का विश्वास है कि समाजवादी व्यवस्था उत्पादन की शक्तियों का पूरा पूरा प्रयोग करके पैदावार को इतना बढ़ाएगी कि समस्त जनता की सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएंगी। कालांतर में मनुष्यों को काम करने की आदत पड़ जाएगी और वे पूँजीवादी समाज को भूलकर समाजवादी व्यवस्था के आदी हो जाएंगे। इस स्थिति में वर्गभेद, मिट जाएगा और शोषण की आवश्यकता न रह जाएगी, अत: शोषणयंत्रराज्य-भी अनवाश्यक हो जाएगा। समाजवाद की इस उच्च अवस्था को मार्क्स साम्यवाद कहता है। इस प्रकार का राज्यविहीन समाज अराजकतावादियों का भी आदर्श है।

मार्क्स ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी समाज (1864) की स्थापना की जिसकी सहायता से उसने अनेक देशों में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहित किया। मार्क्स अंतरराष्ट्रवादी था। उसका विचार था कि पूँजीवाद ही अंतरदेशीय संघर्ष और युद्धों की जड़ है, समाजवाद की स्थापना के बाद उनका अंत हो जाएगा और विश्व का सर्वहारा वर्ग परस्पर सहयोग तथा शांतिमय ढंग से रहेगा।

मार्क्स ने सन् 1848 में अपने "साम्यवादी घोषणापत्र" में जिस क्रांति की भविष्यवाणी की थी वह अंशत: सत्य हुई और उस वर्ष और उसके बाद कई वर्ष तक यूरोप में क्रांति की ज्वाला फैलती रही; परंतु जिस समाजवादी व्यवस्था की उसको आशा थी वह स्थापित न हो सकी, प्रत्युत क्रांतियाँ दबा दी गईं और पतन के स्थान में पूँजीवाद का विकास हुआ। फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध (1871) के समय पराजय के कारण पेरिस में प्रथम समाजवादी शासन (पेरिस कम्यून) स्थापित हुआ परंतु कुछ ही दिनों में उसको भी दबा दिया गया। पेरिस कम्यून की प्रतिक्रिया हुई और मजदूर आंदोलनों का दमन किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप मार्क्स द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ भी तितर बितर हो गया। मजदूर आंदोलनों के सामने प्रश्न था कि वे समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांतिकारी मार्ग अपनाएँ अथवा सुधारवादी मार्ग ग्रहण करें। इन परिस्थितियों में कतिपय सुधारवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। इनमें ईसाई समाजवाद, फेबियसवाद और पुनरावृत्तिवाद मुख्य हैं।

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