भारत में नृत्‍य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्‍यों की विभिन्‍न विधाओं ने जन्‍म लिया है। प्रत्‍येक विधा ने विशिष्‍ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। राष्ट्रीय नृत्‍य की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्‍येक का संबंध देश के विभिन्‍न भागों से है। प्रत्‍येक विधा किसी विशिष्‍ट क्षेत्र से संबंधित है। मुख्यतः 8 शास्त्रीय नृत्य हैं। भरत मुनि ने अपनी पुस्तक नाट्यशास्त्र में शास्त्रीय नृत्य का वर्णन किया है।[1][2] शास्त्रीय नृत्‍य इस प्रकार हैं -

भरतनाट्यम् संपादित करें

 
भरतनाट्यम्

इस नृत्‍य शैली की खास विशेषताएं, नायक-नायिका प्रसंग पर आधारित पदम अथवा कविताएँ हैं।

भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्‍य से है। यह नाम "भरत" शब्‍द से लिया गया तथा इसका संबंध नृत्‍यशास्‍त्र से है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, हिंदु देवकुल के महान त्रिदेवों में से प्रथम, नाट्य शास्‍त्र अथवा नृत्‍य विज्ञान हैं। इन्द्र व स्‍वर्ग के अन्‍य देवताओं के अनुनय-विनय से ब्रह्मा इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने नृत्‍य वेद सृजित करने के लिए चारों वेदों का उपयोग किया। नाट्य वेद अथवा पंचम वेद, भरत व उसके अनुयाइयों को प्रदान किया गया जिन्‍होंने इस विद्या का परिचय पृथ्‍वी के नश्‍वर मनुष्‍यों को दिया। अत: इसका नाम भरत नाट्यम हुआ।

भरत नाट्यम में नृत्‍य के तीन मूलभूत तत्‍वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है। ये हैं भाव अथवा मन:स्थिति, राग अथवा संगीत और स्‍वरमार्धुय और ताल अथवा काल समंजन। भरत नाट्यम की तकनीक में, हाथ, पैर, मुख, व शरीर संचालन के समन्‍वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्‍पादन नृत्‍य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है।

भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्‍व – दर्शन शास्‍त्र, धर्मविज्ञान हैं। यह एक गतिशील व सांसारिक नृत्‍य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्‍वयं सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्‍नता का प्र‍तीक ब‍ताया जाना पूर्णत: संगत है। वस्‍तुत: य‍ह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्‍पादनकर्ता का इसमें चरमोत्‍कर्ष पर होना आवश्‍यक है। भरत नाट्यम तुलनात्‍मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्‍जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था। भरतनाट्यम् के कुछ प्रमुख कलाकार- लीला सैमसन, मृणालिनी साराभाई, बैजयंतीमाला बाली, मालविका सरकार, यामिनी कृष्णमूर्ती, पद्म सुब्रह्मण्यम, सोनल मान सिंह, रुक्मिणी देवी अरुण्डेल आदि

कथकली संपादित करें

 
कथकली

केरल के दक्षिण - पश्चिमी राज्‍य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला नृत्‍य कथकली यहां की परम्‍परा है। कथकली का अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्‍य नाटिका। कथा का अर्थ है कहानी, यहां अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं। यह अत्‍यंत रंग बिरंगा नृत्‍य है। इसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे होते हैं। वे उन विभिन्‍न भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से विशिष्‍ट प्रकार का रूप धरते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नजदीक होते हैं।

विभिन्‍न विशेषताएं, मानव, देवता समान, दैत्‍य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्‍यम से प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्‍य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके चरित्र कभी बोलते नहीं हैं, केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्‍च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्‍यक्ति होती है जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती है। उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्‍यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है तथा एक कथकली अभिनेता - नर्तक द्वारा विभिन्‍न भावनाओं को प्रकट किया जाता है। इसमें अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाता है।

वर्तमान समय का कथकली एक नृत्‍य नाटिका की परम्‍परा है जो केरल के नाट्य कर्म की उच्‍च विशिष्‍ट शैली की परम्‍परा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुआ था, विशेष रूप से कुडियाट्टम। पारम्‍परिक रीति रिवाज जैसे थेयाम, मुडियाट्टम और केरल की मार्शल कलाएं नृत्‍य को वर्तमान स्‍वरूप में लाने के लिए महत्‍व्‍पूर्ण भूमिका निभाती हैं।

कथक संपादित करें

 
शर्मीला शर्मा और राजेन्द्र कुमार कथक करते हुए

उत्तर भारत का एक प्रमुख लोक नृत्य के रूप में प्रसिद्ध है ।कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु‍ओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्‍कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्‍दु धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषयवस्‍तुओं का नाटकीय प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। कथक का जन्‍म उत्तर में हुआ किन्‍तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया।

कथक की शैली का जन्‍म ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्‍दुओं की पारम्‍परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्‍हें क‍थिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज में हाव भावों का उपयोग करते थे। क्रमश: इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्‍य रूप बन गया। उत्तर भारत में मुगलों के आने पर इस नृत्‍य को शाही दरबार में ले जाया गया और इसका विकास ए परिष्कृत कलारूप में हुआ, जिसे मुगल शासकों का संरक्षण प्राप्‍त था और कथक ने वर्तमान स्‍वरूप लिया। इस नृत्‍य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया गया।

शब्‍द कथक का उद्भव कथा से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्‍य करते। इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है। लगभग 15वीं शताब्‍दी में इस नृत्‍य परम्‍परा में मुगल नृत्‍य और संगीत के कारण बड़ा परिवर्तन आया। 16वीं शताब्‍दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक नृत्‍य की वेशभूषा मान लिया गया।

इस नृत्‍य परम्‍परा के दो प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्‍तारित हुआ - लखनऊ घराना और जयपुर घराना।

ओड़िसी संपादित करें

 
ओड़िसी नृत्‍य करते हुए एक नृत्य मंडली

ओड़िसी को पुरातात्विक साक्ष्‍यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्‍य रूपों में से एक माना जाता है। ओड़िशा के पारम्‍परिक नृत्‍य, ओड़िसी का जन्‍म मंदिर में नृत्‍य करने वाली देवदासियों के नृत्‍य से हुआ था। ओड़िसी नृत्‍य का उल्‍लेख शिला लेखों में मिलता है, इसे ब्रह्मेश्‍वर मंदिर के शिला लेखों में दर्शाया गया है साथ ही कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्‍द्रीय कक्ष में इसका उल्‍लेख मिलता है। वर्ष 1950 में इस पूरे नृत्‍य रूप को एक नया रूप दिया गया, जिसके लिए अभिनय चंद्रिका और मंदिरों में पाए गए तराशे हुए नृत्‍य की मुद्राएँ धन्‍यवाद के पात्र हैं।

किसी अन्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य रूप के समान ओड़िसी के दो प्रमुख पक्ष हैं: नृत्‍य या गैर निरुपण नृत्‍य, जहां अंतरिक्ष और समय में शरीर की भंगिमाओं का उपयोग करते हुए सजावटी पैटर्न सृजित किए जाते हैं। इसका एक अन्‍य रूप अभिनय है, जिसे सांकेतिक हाथ के हाव भाव और चेहरे की अभिव्‍यक्तियों को कहानी या विषयवस्तु समझाने में उपयोग किया जाता है।

इसमें त्रिभंग पर ध्‍यान केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना, सिर, शरीर और पैर; मुद्राएँ और अभिव्‍यक्तियां भरत नाट्यम के समान होती है। ओडिसी नृत्‍य में विष्णु के आठवें अवतार कृष्‍ण के बारे में कथाएँ बताई जाती हैं। यह एक कोमल, कवितामय शास्‍त्री नृत्‍य है जिसमें ओड़िशा के परिवेश तथा इसके सर्वाधिक लोकप्रिय देवता, भगवान जगन्नाथ की महिमा का गान किया जाता है।

मणिपुरी संपादित करें

 
मणिपुरी नृत्‍य के सांगीतिक रूप मणिपुर राज्‍य की संस्‍कृति को दर्शाते हैं।

पूर्वोत्तर के मणिपुर क्षेत्र से आया शास्‍त्रीय नृत्‍य मणिपुरी नृत्‍य है। मणिपुरी नृत्‍य भारत के अन्‍य नृत्‍य रूपों से भिन्‍न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं। यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्‍य रूपों में से बना है। विष्‍णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीतगोविन्द की रचनाओं से आई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।

मणिपुर की मेतई जनजाति की दंतकथाओं के अनुसार जब ईश्‍वर ने पृथ्‍वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी। सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्‍य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया। यह मेतई जागोई का उद्भव है। आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्‍य करते हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं। मूल भ्रांति और कहानियाँ अभी भी मेतई के पुजारियों या माइबिस द्वारा माइबी के रूप में सुनाई जाती हैं जो मणिपुरी की जड़ हैं।

महिला "रास" नृत्‍य राधा-कृष्‍ण की विषयवस्‍तु पर आधारित है जो बेले तथा एकल नृत्‍य का रूप है। पुरुष "संकीर्तन" नृत्‍य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया जाता है।

मोहिनीअट्टम संपादित करें

 
मोहिनीअट्टम

मोहिनीअट्टम केरल की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अर्ध शास्‍त्रीय नृत्‍य है जो कथकली से अधिक पुराना माना जाता है। साहित्यिक रूप से नृत्‍य के बीच मुख्‍य माना जाने वाला जादुई मोहिनीअटट्म केरल के मंदिरों में प्रमुखत: किया जाता था। यह देवदासी नृत्‍य विरासत का उत्तराधिकारी भी माना जाता है जैसे कि भरत नाट्यम, कुचीपुडी और ओडीसी। इस शब्‍द मोहिनी का अर्थ है एक ऐसी महिला जो देखने वालों का मन मोह लें या उनमें इच्‍छा उत्‍पन्‍न करें। यह भगवान विष्‍णु की एक जानी मानी कहानी है कि जब उन्‍होंने क्षीर सागर के मंथन के दौरान लोगों को आकर्षित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था और भस्मासुर के विनाश की कहानी इसके साथ जुड़ी हुई है। अत: यह सोचा गया है कि वैष्‍णव भक्तों ने इस नृत्‍य रूप को मोहिनीअटट्म का नाम दिया।

मोहिनीअटट्म का प्रथम संदर्भ माजामंगलम नारायण नब्‍बूदिरी द्वारा संकल्पित व्‍यवहार माला में पाया जाता है जो 16वीं शताब्‍दी ए डी में रचा गया। 19वीं शताब्‍दी में स्‍वाति तिरुनाल, पूर्व त्रावण कोर के राजा थे, जिन्‍होंने इस कला रूप को प्रोत्‍साहन और स्थिरीकरण देने के लिए काफी प्रयास किए। स्‍वाति के पश्‍चात के समय में यद्यपि इस कला रूप में गिरावट आई। किसी प्रकार यह कुछ प्रांतीय जमींदारों और उच्‍च वर्गीय लोगों के भोगवादी जीवन की संतुष्टि के लिए कामवासना तक गिर गया। कवि वालाठोल ने इसे एक बार फिर नया जीवन दिया और इसे केरल कला मंडलम के माध्‍यम से एक आधुनिक स्‍थान प्रदान किया, जिसकी स्‍थापना उन्‍होंने 1903 में की थी। कलामंडलम कल्‍याणीमा, कलामंडलम की प्रथम नृत्‍य शिक्षिका थीं जो इस प्राचीन कला रूप को एक नया जीवन देने में सफल रहीं। उनके साथ कृष्‍णा पणीकर, माधवी अम्‍मा और चिन्‍नम्‍मू अम्‍मा ने इस लुप्‍त होती परम्‍परा की अंतिम कडियां जोड़ी जो कलामंडल के अनुशासन में पोषित अन्‍य आकांक्षी थीं।

मूलभूत नृत्‍य ताल चार प्रकार के होते हैं: तगानम, जगानम, धगानम और सामीश्रम। ये नाम वैट्टारी नामक वर्गीकरण से उत्‍पन्‍न हुए हैं।

कुचिपुड़ी संपादित करें

 
कुचीपुडी

कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्‍वदेशी नृत्‍य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्‍म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्‍णा जिले का एक कस्‍बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी शता‍ब्‍दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्‍य परम्‍परा है। कुचीपुडी कला का जन्‍म अधिकांश भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्‍बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्‍सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी।

परम्‍परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्‍य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्‍होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया।

महिला नृत्‍यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्‍य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्‍य को पुन: परिभाषित किया। कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्‍परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्‍मी नारायण, चिंता कृष्‍णा मूर्ति और ता‍देपल्‍ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्‍य को और समृद्ध बनाया है। डॉ॰ वेमापति चिन्‍ना सत्‍यम ने इसमें कई नृत्‍य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्‍य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्‍य रूप के क्षितिज को व्‍यापक बनाया। यह परम्‍परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं।

सत्रीया नृत्य संपादित करें

सत्रीया नृत्य (असमिया: সত্ৰীয়া নৃত্য), आठ मुख्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपराओं में से एक है। यह नृत्य असम का शास्त्रीय नृत्य है। वर्ष 2000 में इस नृत्य को भारत के आठ शास्त्रीय नृत्यों में सम्मिलित होने क गौरव प्राप्त हुआ। इस नृत्य के संस्थापक महान संत श्रीमनता शंकरदेव हैं। सन्करदेव ने सत्त्रिया नृत्य को अंकिया नाट (सन्करदेव द्वारा तैयार किया एक असमिया अधिनियम नाटकों का एक रूप) के लिए एक संगत के रूप में बनाया था। यह नृत्य सत्त्र नामक असम के मठों में प्रदर्शन किया गया था। यह परंपरा विकसित हुइ और बढ़ी सत्त्रो के भीतर और यह नृत्य रूप सत्त्रिया नृत्य कहा जाने लगा।यह नृत्य कला ५०० से अधिक वर्षों से चली आ रही परंपरा हैं। यह नृत्य असम की वैष्णव मठों, जो की सत्रा के नाम से जाना जाता है, की परंपरा हैं। यह मूल रूप से पौराणिक नृत्य नाटक के रूप में ब्रह्मचारी भिक्षुओं द्वारा अभ्यास किया था। ये नृत्य नाटक, मुख्य रूप से, असमिया वैष्णव संत और समाज सुधारक श्रीमनता सन्करदेव और उनके प्रमुख शिष्य माधवदेव द्वारा लिखित और किया गया था। ये ज्यादातर १६ वीं सदी के दौरान लिखे गये थे। इस नृत्य कला को पेहले केवल पुरुषों द्वारा प्रदर्शित किया गया था लेकिन अब यह महिला नर्तकियों द्वारा भी किया जाता है। १५ नवम्बर २००० में संगीत नाटक अकादमी ने सत्त्रिया नृत्य को भारत के शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक के रूप में मान्यता दे दी है।

सन्दर्भ संपादित करें

  • Ambrose, Kay (1984). Classical Dances and Costumes of India. Palgrave Macmillan.
  • Andhra Natyam. Andhra Pradesh Government. मूल से 30 सितंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2008-01-29.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

  1. Sunil Kothari; Avinash mar jao Pasricha (1990). Odissi, Indian classical dance art. Marg Publications. पपृ॰ 32–33, shivam 48–49, 68. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85026-13-8. मूल से 12 फ़रवरी 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जुलाई 2020. |author2= में 16 स्थान पर line feed character (मदद)
  2. Kathleen Kuiper (2010). The Culture of India. The Rosen Publishing Group. पृ॰ 278. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-61530-149-2. मूल से 3 फ़रवरी 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 जुलाई 2020.
  3. Bishnupriya Dutt; Urmimala Sarkar Munsi (9 September 2010). Engendering Performance: Indian Women Performers in Search of an Identity. SAGE Publications. पपृ॰ 216–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-321-0612-8.