शुनःशेप महान ऋषि थे जिनका वर्णन कई सनातन शास्त्रों अथवा हिन्दू ग्रंथों में मिलता है । ऋग्वेद की कई ऋचाओं की रचना उन्होंने की है । तत्पश्चात उन्हें महर्षि विश्वामित्र ने गोद ले लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र का स्थान प्रदान किया । तदन्तर शुनःशेप का नाम देवरात वैश्वामित्र हो गया । शुनःशेप का उल्लेख ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त २४ में वरुण देव के उपासक के रूप में मिलता है ।

कथा के अनुसार, शुनःशेप जब बालक थे तब उनकी बलि दी जानी थी, परन्तु उनके द्वारा देवों की उपासना के पश्चात उनके प्राणों की रक्षा हुई । वर्तमान में जितने ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमे सर्वप्रथम इस आख्यान का उल्लेख ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण (७.१३ - १८) में मिलता है । इस कथा का एक वृतान्त वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड (१.६१) में भी मिलता है, जिसमे कुछ भिन्नताएँ हैं । इस कथा का उल्लेख कई और ग्रंथों, जैसे कि सांख्यायन श्रौतसूत्र, बौधायन श्रौत सूत्र, पुराणों एवं चन्द्रकीर्ति की रचनाओं आदि में भी मिलता है ।

इस कथा का सार यह है कि जब तक मृत्यु सामने न आये तब तक रूपान्तरण नहीं होता । यह आख्यान विषय वासनाओं से ऊपर उठने की शिक्षा प्रदान करता है ।

ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित कथा संपादित करें

इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चंद्र अपनी सौ रानियों के पश्चात् भी नि:संतान थे । उन्होने वरुण देवता की उपासना की, कि यदि मुझे पुत्र की प्राप्ति होती है तो प्रथम पुत्र आपको समर्पित करूंगा ।

कालान्तर में राजा के यहाँ पुत्र जन्म हो गया । तब वरुण देवता प्रकट होकर राजा को उनके संकल्प स्मरण करवाया और नवजात को लेकर यज्ञ संपन्न करने को कहा । राजा ने कहा, “अभी तो अशौच की स्थिति है अतः उससे यज्ञ अनुमत नहीं है ।” देवता वरुण मान गये । दस दिवसीय अशौच पूर्ण होने पर वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने राजा को यज्ञ की प्रतिज्ञा स्मरण करवाई । राजा ने इस बार कहा, “किसी पशु की बलि तब तक नहीं दी जाती जब तक उसके दंत न निकल आवें । अतः दंत उद्घाटित तो होने दीजिए ।” 'तथास्तु' कहते हुए वरुण देव प्रमाण कर गये । जब शिशु के दंत कुछ समय पश्चात् निकल आए, वरुण देव पुनः आए और राजन् को संकल्प स्मरण करवाया । इस बार राजा ने पुनः मिथ्या कारण कथन किया और कहा, “जब पशु के आरंभिक (दूध के) सभी दंत गिर जावें तभी उसे यज्ञ में दिया जा सकता है ।” 'तथास्तु' कहते हुए वरुण देव प्रस्थान कर गये । जब बालक दंत गिर गए तो, वरुण देव ने पुनः राजा को उनका संकल्प स्मरण करवाऐ । राजन् को पुत्रमोह हो चला था, अतः उन्होंने नवीन मिथ्या कारण प्रस्तुत कर दिया । राजन् ने मिथ्या कथन किया, “जब बालक के स्थाई दंत निकल आवें तभी उसका यजन किया जाना चाहिए ।” इस बार पुनः वरुण देव असफल हो लौट गए । समयांतर पर बालक के स्थाई दंत आ गये । राजा को उसका संकल्प स्मरण कराने वरुण देव पुनः प्रकट हुए । राजा बोले, “हे देव, जब बालक धनुर्विद्या, युद्धकला आदि क्षत्रियोचित संस्कार प्राप्त कर ले तो उसके पश्चात् मैं उससे आपका यजन करूंगा ।”

बालक का नाम रोहित था और जब वह उक्त प्रकार से सुसंस्कृत हो गया तो वरुण ने अपनी राजन् को उनका वचन पुनः स्मरण करवाया । इस बार राजा कोई न्यायोचित कारण नहीं बता सके । उन्होंने पुत्र रोहित को पास बुलाकर कहा, “वत्स, मैंने वरुण देव के वरदान से तुम्हें प्राप्त किया और मैंने उन्हें वचन दिया था कि मैं तुम्हें बलि के रूप उन्हें सौंप दूंगा । निःसंदेह यह मेरे पातक-वचन थे । अब तो मुझे यजन करना ही होगा ।”

कुमार रोहित को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था । उसने अपना धनुषादि आयुध उठाए और वन गमन कर गया । एक वर्ष तक वह भिन्न-भिन्न स्थलों पर देशाटन करता रहा और विभिन्न घटनाओं को अनुभूत किया । इसी समय वरुण देव के कोप के फलस्वरूप राजा हरिश्चंद्र रोगग्रस्त हो गए । वर्ष बीतते-बीतते रोहित ने पिता के अस्वस्थ होने का समाचार लोगों के मुख से सुना । वह गृह गमन को उद्यत हुआ । मार्ग में ब्राह्मण भेष धारण करके इंद्र उससे मिले, जिन्होंने उसे गृह प्रस्थान के स्थान पर पुनः 'पर्यटन-देशाटन करते रहो ।' (चरैवेति-चरैवेति ।) का ज्ञानोपदेश दिया –

नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥
हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से श्रवण किया है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को जन तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम विचरण करते रहो ।

ब्राह्मण के उपदेशों से प्रभावित होकर रोहित पुनः देश-प्रदेश में विचरण करने लगा । प्रत्येक वर्ष पश्चात् जब रोहित गृह गमन की सोचता तो मार्ग में पुनः ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र मिलते, जो पुनः “चरैवेति-चरैवेति” का उपदेश देते । द्वितीय वर्ष के समाप्त होते-होते जब वह गृह गमन करने लगा तो ब्राह्मण रूप में इंद्र उसे पुनः मिल गए । ब्राह्मण ने उसे पुनः “चरैवेति-चरैवेति” का उपदेश देते हुए पर्यटन करते रहने की ज्ञान दिया –

पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
निरन्तर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले पुष्प लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फल ग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ विचरण करते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर हो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं । अतः तुम सतत् विचरण करते रहो ।

राजपुत्र रोहित ने ब्राह्मण की बातों को स्वीकार कर और पुनः देशाटन पर निकल गया । विचरण करते-करते तृतीय वर्ष बीतने को हुआ तो उसने पुनः गृह गमन का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति-चरैवेति” का उपदेश देते हैं, वे कहते हैं –

आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण करते ही रहो ।

पर्यटन में रत रोहित का एक और वर्ष बीत गया और वह गृह गमन को उद्धत हुआ । पिछली वर्षों की तरह इस बार भी उसे मार्ग में ब्राह्मण-रूपी इंद्र मिल गए, जिन्होंने उसे “चरैवेति-चरैवेति” कहते हुए पुनः भ्रमण करते रहने का उपदेश दिया । रोहित उनके बचनों का सम्मान करते हुए पुनः पर्यटन पर गमन कर गया । इस प्रकार रोहित चार वर्षों तक यत्र-तत्र भ्रमण करता रहा । चतुर्थ वर्ष के अंत पर जब वह पुनः गृह गमन को उद्यत हुआ तो मार्ग में उसे ब्राह्मण भेष में इंन्द्रदेव पुनः मिल गए । उन्होंने प्रत्येक बार की तरह इस बार भी “चरैवेति-चरैवेति” का उपदेश दिया और कहा –

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥
शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जाग्रत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो ।

उक्त प्रकार से संचरण में लगे रोहित के पांच वर्ष व्यतीत हो गये । ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र ने अंतिम (पांचवीं) बार पुनः रोहित को संबोधित करते हुए “चरैवेति-चरैवेति” के महत्व का उल्लेख किया ।

चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर, अंजीर) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करते हैं । उसी प्रकार तुम भी विचरण करते रहो ।

ब्राह्मण के उपदेश को मान कुमार रोहित छठे वर्ष भी पुनः पर्यटन गमन कर गया । इस बार वन में विचरण करते हुए उसकी भेंट ‘सुयवस' के पुत्र निर्धन ‘अजीगर्त’ नामक ऋषि (महर्षि ऋचीक?) से हुई ।

अजीगर्त के तीन पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः ‘शुनःपुच्छ', ‘शुनःशेप' और ‘शुनोलांगूल' थे । (तीनों शब्दों, पुच्छ, शेप तथा लांगूल, का एक ही अर्थ पूंछ होता है । श्वन् = कुत्ता; शुनः = कुत्ते की; शुनःपुच्छ = कुत्ते की पूँछ ।) रोहित ने अजीगर्त के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि वह किसी एक पुत्र को उसे (रोहित को) विक्रय कर दे । मूल्य रूप में उनको शत् (सौ) गौ दी जाएंगी । अजीगर्त को ज्येष्ठ और उसकी पत्नी को कनिष्ठ पुत्र से मोह था, सो उन्होंने मंझले ‘शुनःशेप' को विक्रय कर दिया । रोहित ‘शुनःशेप' को लेकर गृह को लौट आया । इसके साथ ही “चरैवेति-चरैवेति” उपदेशों की श्रंखला समाप्त हो गई ।

रोहित ने ‘शुनःशेप' को पिता हरिश्चन्द्र को सौंप दिया, ताकि उसके (रोहित) स्थान पर ‘शुन:शेप' से वरुण देव का यजन किया जा सके और वह स्वयं पितृ द्वारा दिए वचन से मुक्त हो सके । कथा के अनुसार वरुण देव को क्षत्रिय बालक के स्थान पर ब्राह्मण बालक अधिक स्वीकार्य था ।

तत्पश्चात यज्ञ की व्यवस्था की गई, जिसमें स्वयं अजीगर्त भी सम्मिलित हुए । सभी तैयारियों के अंतर्गत जब ‘शुनःशेप' को पशु की भांति यूप (यज्ञमंडप में याज्ञिक कर्मों के लिए निश्चित स्तंभ) पर बांधने की बारी आई तो कोई भी व्यक्ति इस पापकर्म को करने को उद्धत नहीं हुआ । तब अजीगर्त ने शत् गौ लेकर स्वयं ही इस कार्य को संपन्न कर दिया । यूप पर पशुवत बंधे उस बालक का वध करके बलि देने के लिए भी कोई उद्धत न हुआ । तब अजीगर्त ने अतिरिक्त शत् गौ और लेकर उस कार्य को भी पूर्ण करना स्वीकार कर लिया ।

‘शुनःशेप’ को यह आभास हो गया कि एक पशु की रूप में यज्ञ में उसका वध किया जाना है । परन्तु यज्ञ संबंधी उसके ज्ञान के अनुसार यज्ञ की “पर्यग्नि” नामक प्रक्रिया के पश्चात उसे वन में मुक्त किया जाना चाहिए था । किंतु वहां तो उसका वध निश्चित ही किया जाने वाला है । वह आत्मरक्षा हेतु ऋग्वैदिक मंत्रों से देवताओं का अर्चन करने लगा । उसने सर्वप्रथम प्रजापति (ब्रह्मा?) की प्रार्थना की जिन्होने उसे अग्नि की स्तुति करने को कहा, क्योंकि वे सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

अग्नि की अर्चना करने पर उस ब्राह्मण बालक को सविता (सूर्य?) की प्रार्थना करने को कहा, जो सभी जीवों के जन्मदाता-पालनकर्ता हैं । सविता ने बालक से कहा कि चूंकि उसे वरुण देव के लिए यूप पर बंधित किया गया है अतः वह उन्हीं की शरण में जावे । स्तुति करने पर वरुण ने कहा कि अग्नि सभी देवताओं के मुखस्वरूप हैं, क्योंकि यज्ञ की आहुतियां उन्हीं के माध्यम से देवताओं को प्राप्त होती हैं, अतः उन्हीं की शरण में वे जावें ।

बालक ने पुनः अग्नि की स्तुति की तो अग्निदेव बोले कि तुम समस्त देवों की सामूहिक स्तुति करो । उसने वही किया । तब देवगण बोले कि वह इंद्र की प्रार्थना करे जो उन सभी में श्रेष्ठतम हैं । उसने वही किया । इंद्र ने उसके लिए एक दिव्य रथ भेज दिया और कहा कि वह अश्विनी कुमारों की स्तुति करे वही उसे छोड़ देंगे । अश्विनियों की प्रार्थना करने पर उन्होंने बालक से कहा कि वह उषा (?) की स्तुति करे ताकि सभी देवता उसे मुक्त कर दें ।

‘शुनःशेप’ ने वेद की ऋचाओं के साथ स्तुति आंरभ की । जैसे-जैसे उसने एक-एक कर ऋचाओं से देवताओं की स्तुति की वैसे-वैसे उसके एक-एक बंधन मुक्त होते गए, और जलोदर से स्थूल हो चुके राजा का उदर भी सामान्य होता गया । मुक्त हो चुका बालक ‘शुनःशेप’ ऋषि विश्वामित्र की गोद में स्वयं को उनका पुत्र मानते हुए विराजित हो गया । इसी के साथ बालक ‘शुन:शेप’, ‘ऋषि शुन:शेप' बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी ।

‘शुनःशेप' के विश्वामित्र का पुत्र घोषित होने पर अजीगर्त का पुत्रमोह जागृत हो उठा । उन्होंने उसे ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया और पुनः उनके पास लौट आने का आग्रह किया । इस प्रयोजन के लिए उन्होंने पूर्व में प्राप्त की गई त्रिशत् गौ राजा को लौटाने का भी कथन किया । परन्तु बालक ‘शुनःशेप' ने यह कहते हुए प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया कि जो पिता यज्ञ में अपने पुत्र का पशुवत वध करने के कुत्सित कृत्य के लिए उद्धत हो उसके पितृत्व को वह अस्वीकार करता है । देवताओं की कृपा से ऋषि विश्वामित्र उसके पिता घोषित कर दिए गये ।

कुछ और विद्वानों के अनुसार ‘शुनःशेप' कौशिको के कुल मे उत्पन्न महान तपस्वी विश्वामित्र (विश्वरथ) व विश्वमित्र के शत्रु शाम्बर की पुत्री उग्र की खोई हुई संतति था जिसे भरतो (कौशिकों) के भय से लोपमुद्रा ने अजीगर्त के पास छिपा दिया था । भरतो ने उग्र का वध कर दिया था ।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा संपादित करें

अयोध्या के राजा अंबरीष अश्वमेध यज्ञ में लगे हुए थे, जब उनके यज्ञ पशु को इंद्र द्वारा चुरा लिया गया। समारोह का संचालन करने वाले ऋत्विज ने राजा से कहा कि उन्हें पशु को खोजने की आवश्यकता है, या स्थिति से उत्पन्न दुर्भाग्य को रोकने के लिए मानव बलि देने की जरूरत है। राजा ने घोड़े को खोजने का असफल प्रयास किया। पशु  की खोज करते समय, वह भृगुटुंडा नामक पर्वतीय क्षेत्र में ऋषि ऋचीक के पास पहुंचे। उन्होंने मानव बलि के लिए ऋषि के तीन पुत्रों में से एक को खरीदने की पेशकश की। ऋषि ने अपने सबसे बड़े बेटे को देने से इनकार कर दिया, और उसकी पत्नी ने सबसे छोटे बेटे को देने से इनकार कर दिया। माध्यम पुत्र शुनःशेप को  राजा के साथ भेजा गया। राजा ने ऋचीक को एक लाख गायें और सोने के सिक्के दिए, और शुनःशेप के साथ चले गए।

राजा के घर के रास्ते में, दोनों ने पुष्कर के पवित्र स्थल पर विश्राम किया। वहां, उनका सामना ऋषि विश्वामित्र से हुआ, जिन्हें शुनःशेप ने अपने मामा के रूप में पहचाना। शुनःशेप ने ऋषि से शरण माँगी, उनसे कुछ ऐसा करने के लिए कहा जो राजा के संस्कार को सफलतापूर्वक समाप्त कर दे, लेकिन उनकी जान भी बचा सके। ऋषि ने अपने पुत्रों से पूछा कि क्या उनमें से कोई भी यज्ञ में शुनःशेप की जगह लेने को तैयार है। उनके बेटों ने यह कहते हुए तिरस्कार के साथ माँग को खारिज कर दिया कि यह कुत्ते का मांस खाने के बराबर होगा। उनकी बेशर्मी से क्रोधित होकर, विश्वामित्र ने वशिष्ठ के पुत्रों की तरह अपने पुत्रों को एक हजार साल के लिए कुत्ते के मांस खाने वाले के रूप में पुनर्जन्म होने का शाप दिया।

विश्वामित्र फिर शुनःशेप की ओर मुड़े, और उन्हें यज्ञ के दौरान दो मन्त्रों का पाठ करने के लिए कहा। अंबरीष और शुनःशेप फिर महल में पहुँचे, जहाँ यज्ञ आरम्भ हुआ। अम्बरीष ने अश्वमेध यज्ञ का सफलतापूर्वक समापन किया, और शुनःशेप ने विश्वामित्र के मन्त्रों का पाठ किया क्योंकि उनका बलिदान होने वाला था। तब इंद्र मौके पर प्रकट हुए, और उन्हें लंबे जीवन का आशीर्वाद दिया। उन्होंने अंबरीश को उनके बलिदान के लिए पुरस्कृत भी किया।

शुनःशेपाख्यान का सन्देश संपादित करें

भारतीय संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है। यह एक निर्विवाद हकीकत है। ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा। इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है। और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अंकुर है। और ऐसी पुत्रैषणा में पुत्र एवं पुत्री दोनों अभीष्ट है – यह बात तार्किक रूप से निहित है। लेकिन स्त्रीदेह की प्राकृतिक मर्यादाओं के कारण, स्त्रीदेह की अपेक्षा पुरुषदेह सबल होने के कारण समाज में पुरुष का महत्त्व बढता गया है और विश्व में बहुशः समाज पुरुषप्रधान आकारित होता रहा है। अतः मनुष्यमात्र के मन में पुत्रैषणा जड़ीभूत हो गई है। अतः ऐतरेयब्राह्मण में आयी हुई शुनःशेप की जो कथा है वह पुत्रैषणा-ग्रस्त जनमानस को अतीव सूचक रूप से मार्गदर्शक बनती है।।

यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं। शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिये दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं। - परन्तु इस आख्यान में अन्ततोगत्वा कोई भी मनुष्य का बलि तो नहीं चढाया जाता है। इस के कारण पुनर्विचार की नितान्त आवश्यकता है॥

इस शुनःशेपाख्यान के प्रारम्भ में राजा हरिश्चन्द्रजी ने नारद को पूछा है कि – ज्ञानी एवं अज्ञानी दोनों प्रकार के लोग अपने औरस पुत्र की कामना करते है। तो मुझे यह बताओ कि पुत्र की कामना क्यों करनी चाहिये  ? इस जिज्ञासा का समाधान देते हुये नारदजी ने कहा कि पुत्र तो परम व्योम में भी ज्योति-स्वरूप होता है। दूसरी और, इस आख्यान के अन्त में कहा गया है कि किसी भी राजा के राज्याभिषेक के प्रसंग में यह आख्यान का पाठ करना चाहिये, एवं जिसको भी पुत्र की कामना हो इन लोगों को भी इस आख्यान का श्रवण करना चाहिये।

शुनःशेप आख्यान के इस उपक्रम एवं उपसंहार को ध्यान में रखते हुये यदि देखा जाय तो इस आख्यान में तीन पुत्रों एवं तीन पिताओं की कथा प्रस्तुत हुई है। जैसा कि – प्रथम पिता की बात ऐसी हैः- इक्ष्वाकुवंश के राजा हरिश्चन्द्र को सो सो पत्नीयाँ होते हुये भी वे अपुत्र थे। (इन सो पत्नीओं से उनको पुत्री प्राप्त हुई थी कि नहीं ? यदि हुई थी तो उनका क्या किया गया था ? इस विषय में आख्यानकार मौन है।) परन्तु इन शत-संख्यक विवाहों के पीछे निश्चित रूप से, चालक परिबल के रूप में पुत्रैषणा ही रही होगी। नारद ने पुत्र के होने से जो जो लाभ मिलते है, उसको विस्तार से बताया है। उसको सुन कर हरिश्चन्द्र वरुणदेवता से किसी भी किंमत पर पुत्र की याचना करता है। पुत्र एक बार पैदा हो जाय और वह उसका मुखदर्शन करले तो वह कृतकृत्य हो जायेगा। और उसके बाद वह वरुण को पुत्र की बलि चढाने के लिये भी तैयार है। हरिश्चन्द्र को इस शर्त पर पुत्र मिल गया। यहाँ प्रस्तुत आख्यान की कथा से मालुम होता है कि मनुष्यमात्र में जो पुत्रैषणा है, वह आदमी को कदाचिच् अन्धश्रद्धा में डूबो देती है। देवताओं को बलिदान दे कर पुत्र प्राप्त किया जाता है – ऐसा मानना एक अज्ञान है। दूसरे स्तर पर यहाँ देखा जाता है कि पुत्र-प्राप्ति के बाद पिता हरिश्चन्द्र मोहान्ध भी हो जाते है और वरुण को बलिदान देने के वादा से बार बार पीछे हठ करते रहेते है। वरुणदेव जब भी बलि माँगने के लिये आते है तब वे एक के बाद एक बहाना दिखलाते हुये अपने पुत्र की बलि देने का टालते रहते हैं॥

जो दूसरा पिता है वह सुयवस् का पुत्र अजीगर्त है। वह बेचारा भूख से पीडित है। उसके पास आश्रित के रूप में उनकी पत्नी और तीन पुत्र भी है। भूख के असाधारण एवं अपरिहार्य संकट में फंस कर भी वह अपने किसी भी पुत्र को बाझार में बेच दे वह उचित नहीं है। अतः वह कुटुम्ब के धुरिण होने के नाते स्वयं ही बीक जाय तो वही ठीक माना जायेगा। परन्तु “ सभी को अपनी ही आत्मा सब से अधिक प्रिय होती है ”- इस क्रूर सत्य को ध्यान में लिया जाय और फिर सोचा जाय तो शायद तीन में से एक पुत्र को बेच देने की बात कदाचित् सह्य बन सकेगी। इसी तरह से, माता-पिता की युगों पुरानी एक निर्बलता भी कुबुल की जाय की पिता को ज्येष्ठपुत्र ही प्रिय होता है और माता को कनिष्ठपुत्र ही अधिक प्रिय होता है। तो बेचारा ‘ तपस्वी ’ मध्यमपुत्र ऐसी विषम परिस्थिति में निश्चित ही बलि का बकरा बन जाता है। इस तरह, क्षुधार्त पिता अजीगर्त राजा हरिश्चन्द्र से सो गायों को ले कर, उसके बदले में (विनिमय से) एक पुत्र को बेच दे तो वह कदाचित् – हाँ कदाचित् ही – अनिच्छा से न्यायिक बताया जा सकता है। किन्तु वही पिता अपने पुत्र (शुनःशेप) को यज्ञीय पशु के रूप में, हरिश्चन्द्र की यज्ञशाला में बाँधने को तैयार हो जाय और ऐसे अधम कृत्य के लिये दूसरी सो गायें माँग ले तो वह लोभीवृत्ति का परिणाम ही कहा जायेगा।

आख्यानकार महीदास ऐतरेय ने लोभ की पराकाष्ठा भी बतायी है। यूप के साथ पुत्र शुनःशेप को बाँधने के बाद पिता अजीगर्त अपने पापकर्म से विरत नहीं होता है। यज्ञ में शुनःशेप का बलि के रूप में जब तक कोई वध नहीं करेगा, तब तक यज्ञ पूरा नहीं होगा। गाँव में से कोई भी चाण्डाल आकर एक मनुष्य का वध करने को तैयार नहीं है। अतः शुनःशेप का पिता अजीगर्त लोभवशात् इस पापकर्म के लिये तैयार होता है। उसने तीसरी सो गायों को माँग कर ले ली। तथा निर्दयता-पूर्वक अपने ही पुत्र का वध करने के लिये नंगी तलवार लेकर उठ चलता है। - यह चित्र एक लालची पिता की निर्घृणता को उद्घाटित करता है। दर्शनशास्त्रों में जो षड् रिपु के रूप में गिनाये गये है – काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मत्सर – उनमें से उत्तरोत्तर रिपु का बलवत्तर होना माना गया है। अर्थात् पहेले कामादि चार रिपुओं से पाँचवा लोभ नामक रिपु अधिक बलवान् है। इस दृष्टि से देखा जाय तो दूसरे प्रकार के पिता ने लोभग्रस्त होकर, केवल पितृमर्यादा का ही भंग नहीं किया है। परन्तु मानवमर्यादा का भी अतिक्रमण करके पापमार्ग पर सुदूर तक निकल गया है।

तीसरे पिता के रूप में ऋषि विश्वामित्र है, जिनके एक-सो एक पुत्र थे। उनके होतृत्व में शुनःशेप का यज्ञ में बलि देना निश्चित हुआ था। उन्होंने अपने सम्मुख दयनीय दशा में बंधे हुए शुनःशेप को यज्ञीय-पशु के रूप में देखा है। उनकी दयनीय मनोयातना एवं निःसहायता भी प्रतिपल देखी है। और विकट परिस्थिति में देवों की उपासना का मार्ग पकडनेवाला, स्वयं ही अपना उद्धारक बनकर मृत्यु-पाश में से छुटने का प्रयास करनेवाला धैर्यवान् शुनःशेप उन्हों ने बारीकी से देखा है। प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण, विश्वेदेवा, अश्विनौ, इन्द्र और उषा – सभी वैदिक देवताओं को शुनःशेप अपने मन्त्रबल से क्रमशः प्रत्यक्ष करता जाता है। उनसे बातचीत भी करता है। ऐसा सच्चा विद्यावान् ब्राह्मणपुत्र किस ऋषि को पसंद नहीं आयेगा ?

ऋषि विश्वामित्र ने ऐसे शुनःशेप को ही अपनी विरासत – ज्ञानराशि – को सम्भालनेवाला समझा. और मन ही मन शुनःशेप को अपने पुत्र के रूप में उसको स्वीकार लिया। विश्वामित्र एक पिता के रूप में गुणज्ञाता व्यक्ति थे। उन्हों ने अपने प्रथम पचास पुत्रों को बुलायें और शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने को कहा। परन्तु उन पुत्रों ने पितृ-आज्ञा नहीं मानी। अतः विश्वामित्र ने उन पचासों को ‘ अपुत्र ’ जाहिर कर दिये। वे ऋषि-सम्पत्ति के दाय भाग से वंचित हो गये। इस के बाद, जो मधुच्छन्दा नामक इक्यानवाँ पुत्र था और उनके जो सभी अनुज थे, उन्हों ने शुनःशेप को अपना ज्येष्ठ भ्राता मान लिया। फिर विश्वामित्र ऋषि ने शुनःशेप को “ देवरात ” ( देवतायें जिसकी राति अर्थात् धन, सम्पत्ति है, वह ) नामसे उद्धोषित किया। पुत्रैषणा रखनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पेहेले विश्वामित्र जैसे गुणज्ञाता पिता बने। विश्वामित्र ने अपने शताधिक पुत्रों की अपेक्षा से श्रेष्ठ पुत्र के रूप में इस मन्त्रद्रष्टा शुनःशेप को ही पसन्द किया है और उसको अपने पुत्र के रूप में भी स्वीकार लिया है – यह बात बडी सूचक है। यदि ऐसा पुत्र मिला हो तो ही नारद ने जो कहा था कि – “ पुत्र परम व्योम में भी ज्योति होता है, ”- वह चरितार्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं॥

इस आख्यान में राजा हरिश्चन्द्र, दरिद्र अजीगर्त एवं ऋषि विश्वामित्र जैसे तीन पिताओं की तुलना करनी आवश्यक बनती है, वैसे ही तीन प्रकार के पुत्रों की भी तुलना करने योग्य है। जैसा कि – पहला है राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र रोहित। वह अपने पिता के प्रस्ताव का विरोध करता है और पितृ-आज्ञा को ठुकरा कर, प्राणों की रक्षा करने के लिये गृहत्याग करके वन में विचरण करने लगता है। इस के बाद पिता को जलोदर नामक रोग हुआ है – ऐसा सुन कर, पितृवात्सल्य से प्रेरित हो कर वह घर वापस आने का निर्णय करता है। परन्तु मार्ग में इन्द्रदेव मिल गये, (जो वरुण के दुश्मन थे,) उसके कहने में आ जाता है और वह बार बार दूसरों के (इन्द्र के) कहने में आकर वन में वापस लौट जाता है।

चरैवेति चरैवेति, चराति चरतो भग।

इन शब्दों से इन्द्र ने जो उपदेश दिया था, इसका फल यह आता है कि हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को वन-विचरण के दौरान, तीन पुत्रों को साथ में लेकर अन्न की तलाश में घुम रहे एक दरिद्र पिता अजीगर्त मिल गया। रोहित ने राजपुत्र होने के कारण, राजलक्ष्मी के जोर पर, अर्थात् बाप-कमाई के जोर पर, दरिद्र व्यक्ति के एक दीन-हीन पुत्र (शुनःशेप) को खरीद कर अपने साथ में ले कर राजमहल में वापस आता है। राजकुमार रोहित ने मन में ऐसा सोच रखा है कि इस दरिद्र-ब्राह्मणपुत्र का बलि दे कर, वरुण के पाश से पिता को वह मुक्त करा लेगा और अपने आप को भी मौत से मुक्ति मिल जायेगी। - यहाँ पर इन्द्र के कहेने में आकर बार बार वन-विचरण करते रहेते रोहित का, पहेले एक अनिर्णायक मनोबलवाले पुत्र के रूप में परिचय मिलता है और बाद में, स्वार्थी तथा बाप-कमाई का आश्रयण लेनेवाले राजपुत्र के रूप में परिचय मिलता है। संसार में यह पेहेले प्रकार का पुत्र है।।

संसार में जो दूसरे प्रकार का पुत्र होता है, वह ऋषि विश्वामित्र के अग्रज 50 पुत्रों हैं। वे विश्वामित्र जैसे मन्त्रद्रष्टा पिता की भी आज्ञा मानते नहीं है। पिता की विवेकबुद्धि की अवहेलना करनेवाले इन पुत्रों ने पैतृक-विरासत खो दी और शापित भी हुये। परिणामतः वे समाज में दस्युओं जैसा जीवन जीने लगते है। इक्यानवाँ मधुच्छन्दा नामक पुत्र और उनके अनुज 50 भ्रातृ-समूह ने पिता की आज्ञा मान ली। विश्वामित्र की दृष्टि में विश्वास करनेवाले इन पुत्रों ने शुनःशेप को अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर लिया।।

तीसरे प्रकार का जो पुत्र सदैव स्पृहणीय होता है, वह है शुनःशेप। पूरे आख्यान को पढ कर लगता है कि वह क्षुधा-पीडित व्यक्ति जरूर था, परन्तु नित्य विद्या-व्यासंग करने वाला पुत्र था। क्योंकि वरुण के पाश से मुक्त होने के लिये जो मन्त्र ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल और पंचम मण्डल में आये हुये है इन सब को वह अच्छी तरह से जानता था। साथ में वह स्वयं भी, प्रथम मण्डल में संगृहीत अनेक मन्त्रों का द्रष्टा ऋषि भी है। अत एव वह ऋषि विश्वामित्र की दृष्टि में स्पृहणीय पुत्र बन जाता है। विश्वामित्र को अपने ही 101 औरसपुत्र थे। किन्तु उनको शुनःशेप जैसा मन्त्र-द्रष्टा पुत्र न होने का अफसोस था। अतः वह अपने औरसपुत्रों को बुला के शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने की आज्ञा देता है। उनकी दृष्टि में शुनःशेप जैसा पुत्र ही संग्राह्य एवं स्पृहणीय है।

विश्वामित्र ने पूरी यज्ञक्रिया के दौरान देखा है कि शुनःशेप सही अर्थ में देवरात है। अग्नि, वरुण, इन्द्र, अश्विनौ, विश्वेदेवा एवं उषा इत्यादि देवतायें ही उनकी सम्पत्ति – राति – थे और उसी के बल उपर उसने अपनी मुक्ति हाँसील की है।

यहाँ पर, शुनःशेप विद्या-व्यासंगी होने के कारण अमुक मन्त्र जानता है या नये मन्त्र देख (रच) सकता है – इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। उसने तो अपने पिता का पाप भी उनके मुँह पर कह दिया है। अर्थात् शुनःशेप सत्य का अपरोक्ष दर्शन भी कर सकता है और पिता के सम्मुख खडा रहे कर वह बता भी सकता है। वही उसकी महानता है। ऐसे सत्य को बोलने वाले को ही वरुण पाश से मुक्त करता है, दूसरे को नहीं। क्योंकि वरुण तो नीतिमत्ता का एवं ऋत का पालक देव कहा गया है। अतः वह सत्यनीति के द्रष्टा शुनःशेप को बन्धन से मुक्त कर देता है। ऐसा सत्यवक्ता पुत्र ही पिताओं के लिये परम व्योम में ज्योति स्वरूप बन सकता है। और ऐसे पुत्र की ही कामना रखनी चाहिये। अर्थात् पुत्रैषणा भी विवेकदृष्टि से नियन्त्रित होनी चाहिये।

इस तरह से शुनःशेपाख्यान का मर्मोद्धाटन हो जाने के बाद, इस आख्यान का उपसंहार भी तुरंत समझ में आ जाता है कि - 1. किसी भी राजा के अभिषेक-प्रसंग में इस आख्यान का पाठ करवाने की सूचना क्यूँ दी गई है ?। राज्य का वारिस प्राप्त करने के लिये अन्धश्रद्धा-ग्रस्त होना अनुचित है। 2. तथैव, पुत्र की इच्छा रखनेवालों को भी इस आख्यान का पाठश्रवण करना चाहिये – ऐसा जो उपसंहार में कहा गया है वह भी पूर्वोक्त तीन तरह के पुत्रों को ठीक से समझ लेने के लिए ही है।।

यहाँ आनुषंगिक रूप से यह बताना भी जरूरी है कि इस आख्यान के उपक्रमोपसंहार को देखते हुए - “ वेदकाल में नरबलि दिया जाता था कि नहीं ? ” जैसी चर्चायें सारे संसार में आजदिन तक होती रही है, परन्तु वह चर्चा भ्रान्तदिशा में चल रही है – ऐसा प्रतीति होता है।

अब प्रस्तुत अभिनव दृष्टि से देखा जाय तो पुत्रैषणा से पीडित इस संसार को शुनःशेप का सन्देश यही है कि स्त्रीभ्रूण-हत्या से विरत होने का अवसर आ गया है। कोई भी पुत्री मातपिता को नरक में नहीं ले जाती है और सब के सब पुत्र परम व्योम में ले जानेवाली सच्ची ज्योति नहीं बन सकते है।।

शुनःशेप आख्यान से प्रेरित अन्य साहित्य संपादित करें

 
विजय कुमार सिंह द्वारा रचित काव्य संग्रह "शुनःशेप एवं नचिकेता"

शुनःशेप की कथा का रूपांतरण नाट्य, काव्य, एवं चित्रात्मक उपन्यास में भी किया गया है। विभिन्न रचनाकारों की कृतियाँ शुनःशेप कथा के अलग अलग वृतान्तों पर आधारित हैं, जिसके कारण उनके कथानक एक दूसरे से थोड़े भिन्न हैं।

काव्य संपादित करें

चित्रात्मक उपन्यास ( ग्राफ़िक नॉवेल या कॉमिक्स ) संपादित करें

  • अमर चित्र कथा द्वारा 1983 में प्रकाशित, नई श्रृंखला संख्या DG461, शीर्षक "शुनःशेप" में शुनःशेप की कथा का चित्रात्मक रूपांतरण किया गया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

  • 1. ऐतरेय-ब्राह्मणम् – सायण-भाष्यसमेतम् (प्राच्य भारती ग्रन्थमाला - 14), सं. डो. सुधाकर मालवीय, प्रकाशक – तारा बुक एजन्सी। वाराणसी, 1996.
  • 2. ऐतरेयब्राह्मण का एक अध्ययन, ले. श्री नाथूलाल पाठक, पीएच.डी. शोधप्रबन्ध, राजस्थान वि.वि., प्रका. रोशनलाल जैन एण्ड सन्स, जयपुर, 1966

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें