सांस्कृतिक प्राधान्य

मार्क्सवादी दर्शन में सांस्कृतिक प्राधान्य, सांस्कृतिक आधिपत्य या सांस्कृतिक वर्चस्व ( अंग्रेज़ी-cultural hegemony ) से आशय उस स्थिति से है जब सांस्कृतिक रूप से विविधता वाले किसी समाज में सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व हो। सत्ताधारी वर्ग, समाज की संस्कृति - विश्वासों और व्याख्याओं, धारणाओं, मूल्यों और रीति -रिवाजों को इस प्रकार अभिचालित करता है कि शासक वर्ग की विश्वदृष्टि उस समाज की स्वीकृत सांस्कृतिक मानदंड बन जाए। एक सार्वभौमिक प्रभुत्व वाली विचारधारा के रूप में, शासक वर्ग की विश्वदृष्टि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक यथास्थिति का इस तरीके से दुर्निरूपण करती है कि वें यथास्थिति प्राकृतिक, अपरिहार्य और शाश्वत सामाजिक परिस्थितियां लगें जो हर सामाजिक वर्ग को लाभान्वित करती हैं, न कि कृत्रिम सामाजिक संरचनाओं के रूप में जो केवल शासक वर्ग को लाभान्वित करती हैं।

मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, एंटोनियो ग्राम्स्की (१८९१-१९३७) ने समाज के सामाजिक-नियंत्रण संरचनाओं की व्याख्या करने के लिए सांस्कृतिक आधिपत्य की अवधारणा विकसित किया, और कहा कि मजदूर वर्ग के बुद्धिजीवियों को शासक वर्ग के विश्वदृष्टि (सांस्कृतिक आधिपत्य) का मुकाबला करने के लिए एक श्रमिक वर्ग की विचारधारा उत्पन्न करनी चाहिए।

ग्राम्स्की की बुद्धिजीवियों की अवधारणा संपादित करें

बुद्धिजीवियों की अवधारणा ग्रामसी के राजनीतिक चिन्तन का महत्वपूर्ण विषय है। दार्शनिक रूप से इस अवधारणा का सम्बन्ध इस बात से है कि ‘सभी मनुष्य दार्शनिक हैं।’ यह अवधारणा अंतोनियो ग्रामसी की शैक्षिक विचारधारा से भी गहरा सरोकार रखती है। इस अर्थ में बुद्धिजीवी वे हैं जिनके पास दिमाग है और वे उसका उपयोग करते हैं। अधिरचना का सिद्धान्तकार होने के नाते ग्रामसी ने इस अवधारणा को ही अपने चिन्तन को केन्द्र बिन्दु बनाया है और इसे मार्क्स से अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। ग्रामसी ने दक्षिण इटली के समाज का गहराई से विश्लेषण करने के बाद अपना यह तर्क प्रस्तुत किया है कि सभी मनुष्य बुद्धिजीवी हैं लेकिन समाज में सभी व्यक्ति बुद्धिजीवी का कार्य नहीं करते।[1]

बुद्धिजीवी का अर्थ संपादित करें

’बुद्धिजीवी’ शब्द को ग्रामसी से पहले भी और बाद में भी कई तरह से परिभाषित किया गया है। सामान्य अर्थ में बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जिसमें समझने एवं सोचने की शक्ति है। पूंजीवाद के आगमन से पहले कलाकारों, समाज वैज्ञानिकों और धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतिनिधियों को ही बुद्धिजीवी माना जाता था लेकिन औद्योगिक समाज के आगमन के साथ ही तकनीशियनों, प्रबन्धकों और वैज्ञानिकों को भी इसमें जोड़ लिया गया। लेनिन का पेशेवर क्रान्तिकारियों का समूह और परेटो, मोस्का तथा मिचेलस आदि समाजशास्त्रियों का अभिजन वर्ग भी बुद्धिजीवी शब्द को ही अभिव्यक्त करते हैं। अनेक विद्वानों ने ‘बुद्धिजीवी’ शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है।

  • पारसन के अनुसार-’’बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जो सभ्यता को निश्चित प्रणाली में भागेदारी रखता है।
  • लिपसेट के अनुसार-’’जो लोग इस संसार में कला, विज्ञान और धर्म सहित संस्कृति का सृजन, वितरण तथा उसे लागू करते हैं, बुद्धिजीवी हैं।’’
  • लेनिन के अनुसार-’’बुद्धिजीवी न तो स्वतन्त्र आर्थिक वर्ग है और न ही स्वतन्त्र राजनीति शक्ति। यद्यपि उन्हें समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त है तथा वे आंशिक रूप में एक ओर तो बुर्जुआ समाज से तथा दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग से जुड़े हुए हैं।’’
  • बोर्डिगा के अनुसार-’’बुद्धिजीवी वर्ग उन लोगों का समूह है जो आन्दोलन को अग्रसर करता है, सर्वहारा दल का नेतृत्व करता है तथा उसके लिए नीतियों का निर्माण भी करता है। इस वर्ग में तथ्य तथा विचार दोनों में अनुशासन रहता है।

ग्रामसी ने अपने पूर्ववर्ती विचारकों के बुद्धिजीवी वर्ग सम्बन्धी विचारों का अध्ययन करके तथा इटली की तत्कालीन आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला कि सभी व्यक्ति बुद्धिजीवी हैं, लेकिन समाज में उनकी भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं है। अंतोनियो ग्रामसी ने कहा है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति व्यवसायिक कार्यों में उलझा होने के साथ-साथ कुछ न कुछ बौद्धिक क्रियाएं भी अवश्य करता रहता है। इसलिए बुद्धिजीवी विचारों के धरातल के साथ-साथ उत्पादन के साधन एवं सम्बन्धों में भी मजबूती से टिके हुए हैं। ग्रामसी ने फासीस्ट जेल में रहकर इस बात को सार्वजनिक किया कि बुद्धिजीवी अपने परम्परागत अर्थ से भिन्न भी समाज के संगठन, उत्पादन, संस्कृति या जन-प्रशासन के कार्य भी करते हैं। समाज में दार्शनिक, कलाकार, वैज्ञानिक, धार्मिक नेता आदि सभी की भूमिका बुद्धिजीवी की होती है। उदाहरण के लिए मजदूर की पहचान उसका शारीरिक श्रम न होकर वह परिस्थिति भी है जिसमें वह विशेष कार्य करता है।

ग्रामसी ने कहा है कि उत्पादन ढांचा ही बुद्धिजीवी वर्ग के निर्माण के लिए उत्तरदायी औद्योगिक क्रान्ति आने से पहले सामंती जमींदार भी विशेष तकनीकी योग्यता के स्वामी होने के कारण ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे जिनका कार्य सैनिक क्षमता का परिचय देना था। लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के कारण आए उत्पादन ढांचे में परिवर्तनों ने नए-नए बुद्धिजीवी वर्गों को जन्म दिया। औद्योगिक क्रान्ति ने बुद्धिजीवी वर्ग को व्यापक आधार प्रदान करके कुलीनतन्त्रीय विचारधारा को चुनौती दी और प्रशासनों, विद्वानों, वैज्ञानिकों, सिद्धान्तकारों, दार्शनिकों आदि का नया वर्ग तैयार कर दिया। ग्रामसी का कहना है कि शारीरिक श्रम चाहे कितना भी हीन क्यों न हो उसमें कुछ-न-कुछ तकनीकी योग्यता का अल्पतम रचनात्मक बौद्धिक क्रिया अवश्य ही निहित रहती है। इसी कारण समाज में प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिजीवी है, चाहे वह किसी भी कार्य या पेशे में लगा हुआ है।

बुद्धिजीवियों के प्रकार संपादित करें

ग्रामसी ने ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करने के बाद परम्परागत तथा जैविक बुद्धिजीवियों पर विचार किया। उसने पाया कि फ्रांस और इंग्लैण्ड में बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का प्रभाव पादरियों और अन्य कुलीन तन्त्रियों से अधिक है, क्योंकि इन्हीं का आर्थिक शक्ति पर प्रभुत्व है। इसके विपरीत इटली में परम्परागत बुद्धिजीवियों का आधिपत्य है जो बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की बराबरी करके अपने जैविक बुद्धिजीवियों का निर्माण करते हैं। अंतोनियो ग्रामसी ने इटली की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करने के बाद बुद्धिजीवियों के निर्माण के बारे में इस बात पर बल दिया कि उत्पादन के साधनों में परिवर्तन आने से समाज के स्वरूप में भी परिवर्तन आता है और नए-नए समूहों का जन्म होता है। यह परिवर्तन बुद्धिजीवियों के आपसी सम्बन्धों तथा राज्य के साथ उनके सम्बन्धों को भी प्रभावित करता है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप नए आर्थिक व्यवस्था के नए प्रतिनिधि उभरते हैं। इसी से जैविक बुद्धिजीवियों का जन्म होता है जो अन्त:वर्गीय वातावरण स्पष्ट करते हैं। इस तरह अंतोनियो ग्रामसी ने दक्षिण इटली में परम्परागत बुद्धिजीवियों तथा उत्तर में जैविक बुद्धिजीवियों जो सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हैं, पर जोर दिया है। ग्रामसी ने उत्पादन की दृष्टि से बुद्धिजीवियों को दो भागों- I. परम्परागत बुद्धिजीवी, II. जैविक बुद्धिजीवी, में बांटा है।

परम्परागत बुद्धिजीवी – परम्परागत बुद्धिजीवियों में साहित्यकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अनुष्ठान करने वाले आदि व्यक्ति शामिल हैं। ये बुद्धिजीवी अपने सामाजिक वर्ग से स्वतन्त्र होते हैं और उनका कार्य भी स्वायत प्रकृति का होता है। ये बुद्धिजीवी अपने जन्म के वर्गों से अपना नाता तोड़कर एक अन्त:वर्गीय वातावरण को जन्म देते हैं। दक्षिण इटली में इसी प्रकार के बुद्धिजीवियों का प्रभाव है। इटली के इतिहास में परम्परागत बुद्धिजीवियों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। इन्होंने उत्पादन व उत्पादन शक्ति में परिवर्तन आने पर भी भूतकाल को वर्तमान से जोड़े रखा है और समाज में अपनी परम्परागत भूमिका को बनाए रखने का हर सम्भव प्रयास किया है। जैविक या आंगिक बुद्धिजीवी – जैविक बुद्धिजीवी उत्पादन प्रक्रिया में आए परिवर्तनों की उपज होते हैं। जब उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन आता है तो समाज में नए-नए वर्गों का भी जन्म होता है। इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति ने इसी प्रक्रिया में नए-नए सामाजिक वर्गों को जन्म दिया है। इसी कारण वहां पर जैविक बुद्धिजीवियों का ही अधिक प्रभाव है। जब नए वर्गों को नेतृत्व की आवश्यकता अनुभव हुई तो इस प्रकार के बुद्धिजीवियों का भी जन्म हुआ। बुर्जुआ और सामन्त अधिपति कालान्तर में अपने-अपने वर्गों के जैविक बुद्धिजीवी ही रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था ने सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों को पैदा किया है। यद्यपि इनकी भूमिका संगठन के रूप में ही अधिक प्रभावशाली रही है, क्योंकि ये राजनीतिक दल को अधिक महत्व देते रहे हैं। जैविक बुद्धिजीवियों की दृष्टि समाजवादी रही है। ग्रामसी ने किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए जैविक बुद्धिजीवियों के निर्माण को पूर्व आवश्यक शर्त के रूप में मान्यता दी है। उनका कहना है कि आंगिक या जैविक बुद्धिजीवियों के बिना न तो कोई क्रान्ति हो सकती है और न ही सफल हो सकती है। ग्रामसी ने पूंजीवादी व्यवस्था के कारण उत्पन्न हुए सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों को ही क्रान्ति के अग्रदूत मानकर, उनको अधिक महत्व दिया है। उसका मानना है कि ये बुद्धिजीवी ही जनता और नेतृत्व में संतुलन कायम रख सकते हैं और सामाजिक परिवर्तन की किसी भी सम्भावना को सफल बना सकते हैं। सर्वहारा वर्ग में चेतना तथा सभी प्रकार की जागरूकता व संगठन बुद्धिजीवियों के बिना असम्भव है। ग्रामसी ने बुद्धिजीवियों को इस वर्गीकरण के तहत रखने के बाद कहा कि सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी ऐतिहासिक आधार पर बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवियों से अलग है। इसी आधार पर अंतोनियो ग्रामसी की यह अवधारणा बुद्धिजीवियों से अन्र्तसम्बन्धों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है।अंतोनियो ग्रामसी ने कहा है कि समाज में किसी भी प्रकार का परिवर्तन चाहे वह नैतिक ही क्यों न हो, बुद्धिजीवियों द्वारा ही लाया जा सकता है। बुद्धिजीवी ही व्यक्तियों को जागरूक बनाते हैं। सभी वर्गों के बुद्धिजीवी अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद भी राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं। इनकी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता अलग-अलग होती है। बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवी वर्ग अपनों को संगठित रखकर अपना प्रभुत्व कायम रखते हैं, जबकि सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी दलीय संगठन के अधीन रहकर ही अपना कार्य करते हैं। सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी ‘सामूहिक बुद्धिजीवी; होते हैं। इस वर्ग के बुद्धिजीवी राजसत्ता हासिल करने के बाद ही अपने को जैविक बुद्धिजीवियों की श्रेणी में ला सकते हैं। शासन-सत्ता प्राप्त किए बिना इनके लिए अपने बुद्धिजीवी पैदा करना असम्भव है। बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकवाद को उखाड़ फैंकने के लिए इनके द्वारा अपनी विशेष संस्कृति और सामूहिक जागरूकता को अपना लक्ष्य बनाकर चलना जरूरी है। इस दृष्टि से ग्रामसी का उद्देश्य उत्पादन के ढांचे की अपेक्षा उन साधनों पर अधिक जोर देता रहा है जिनके द्वारा सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी समाज के आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान प्रापत कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक रूप से पूंजीवादी ढांचे को ध् वस्त भी किया जा सकता है।

ग्रामसी ने स्थान के अधार पर भी बुद्धिजीवियों को दो भागों-ग्रामीण और शहरी में बांटा है। उत्पादन प्रक्रिया की दृष्टि से अन्तर के आधार पर ग्रामीण और शहरी बुद्धिजीवियों में अन्तर का पाया जाना स्वाभाविक बात है। अंतोनियो ग्रामसी का कहना है कि शहर में रहने वाले बुद्धिजीवी उद्योग के साथ विकसित हुए हैं। औद्योगिक प्रणाली में आने वाले उतार-चढ़ावों ने बुद्धिजीवियों के निर्माण की प्रक्रिया को भी प्रभावित किया है। शहरी बुद्धिजीवी उत्पादक और मजदूर के बीच की कड़ी है। ग्रामीण बुद्धिजीवी अधिकतर पारम्परिक होते हैं। ये ग्रामीण लोगों के सामाजिक जन-समूह और छोटे कस्बों के निम्न बुर्जुआ वर्ग से जुड़े होते हैं। उन्हें पूंजीवादी प्रणाली ने अभी तक विकसित नहीं किया है और न ही उन्हें अभी तक गति प्रदान की है। इस तरह का बुद्धिजीवी खेतीहर जनसमूहों को स्थानीय और राजकीय प्रशासन के सम्पर्क में लाता है। उनकी पेशेवर मध्यस्थता को राजनीतिक मध्यस्थता से अलग करना काफी कठिन होता है। इसमें पादरी, वकील, नोटरी, अध्यापक, डॉक्टर आदि शामिल होते हैं। ये बुद्धिजीवी खेतीहर समूहों के लिए एक ऐसा सामजिक प्रतिमान होते हैं, जिनको अपना आदर्श मानकर खेतीहर समूह अपनी संतानों को इस वर्ग से जोड़ने की इच्छा रखते हैं और उसे पूरा करने के प्रयास भी करते हैं। शहरी बुद्धिजीवियों की भूमिका ग्रामीण बुद्धिजीवियों से सर्वथा उल्ट ही होती है।

ग्रामसी ने अपने विश्लेषण में आगे कहा है कि इटली का एकीकरण इसी आधार पर कमजोर पड़ा कि फासीवाद तुच्छ बुर्जुआ और शहरी पूंजीपति वर्ग के गठजोड़ से उत्पन्न हुआ था। इसी कारण इसमें विश्व दृष्टि का अभाव रहा। इस विश्लेषण द्वारा ग्रामसी ने फासीवाद की असफलता पर प्रकाश डाला है। ग्रामसी का कहना है कि शहरी बुद्धिजीवी ग्रामीण बुद्धिजीवियों की अपेक्षा अधिक संगठित है और राजनीतिक प्रक्रिया को नेतृत्व के द्वारा प्रभावित करने में सक्षम हैं। इनमें सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी तो किसी भी अवस्था में अपने सामाजिक समूहों को नेतृत्व प्रदान करने में असफल हैं और न ही वे सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई प्रयास करते हैं। इसी तरह ग्रामीण बुद्धिजीवी केवल जमींदारों और किसानों तथा सरकार व अन्य वर्गों में मध्यस्थता का प्रयास तो करते हैं, लेकिन किसी वर्ग को नेतृत्व प्रदान करने में असमर्थ हैं। उनकी रूचि तो यथास्थिति में ही हैं। इस तरह ग्रामीण बुद्धिजीवियों की उत्पादन प्रक्रिया के प्रति उदासीनता ही इटली की कमजोर राजनीतिक दशा के लिए उत्तरदायी है। इस तरह ग्रामसी ने अपनी बुद्धिजीवियों की अवधारणा में इटली की राजनीतिक स्थिति, आर्थिक व सामाजिक समूहों, उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादन सम्बन्धों आदि पर भी व्यापक दृष्टि उकेरी है।

ग्रामसी ने यह तत्व उद्घाटित किया है कि उत्पादन प्रक्रिया में आने वाले परिवर्तन ही बुद्धिजीवियों के वर्ग चरित्र को भी बदल देते हैं और यह परिवर्तन और बुद्धिजीवियों में जन्म और विकास के आधार पर पाया जाने वाला अन्तर समाज विशेष के ढांचे पर काफी निर्भर करता है। बुद्धिजीवियों का निर्माण एक समाज से दूसरे समाज के दृष्टिगत काफी भिन्न हो सकता है। इसी कारण प्राचीन समाज के बुद्धिजीवी आधुनिक समाज के बुद्धिजीवियों से सर्वथा भिन्न हैं। ग्रामसी ने भी मार्क्स व लेनिन की भांति सर्वहारा वर्ग को जागरूक व संगठित बनाने की आवश्यकता पर जोर देकर मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया है। ग्रामसी की रूचि सामाजिक परिवर्तन में है। वह इटली की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से असंतुष्ट दिखाई देता है। इसी कारण उसने ऐसे मार्क्सवाद का स्वप्न लिया है जो मानवतावाद और सुधारवाद का मिश्रित रूप हो तथा जटिल सांस्कृतिक समस्याओं का सर्वमान्य हल प्रस्तुत करने में सक्षम हो। उसने सामाजिक परिवर्तन में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका पर ही बल दिया है। रुस, फ्रांस और इंग्लैण्ड की क्रान्तियों से यह बात पुष्ट हो जाती है कि क्रान्ति का सफल संचालन और उससे प्राप्त हाने वाले स्थायी व लाभकारी परिणाम बुद्धिजीवी वर्ग के बिना असम्भव है।

यद्यपि ग्रामसी की ‘बुद्धिजीवी की अवधारणा’ विश्व क्रान्ति का आधार है और सामाजिक परिवर्तन के किसी भी विचार का केन्द्र बिन्दु है, लेकिन फिर भी वह काफी विवादों से घिरी रही है। आलोचकों ने इस अवधारणा पर पहला आरोप यह लगाया है कि ग्रामसी ने बुद्धिमता मानव की एक बौद्धिक विशेषता है। इसी तरह बुद्धिमता या बुद्धिजीवियों का विभाजन भी तर्कसंगत नहीं है। आलोचकों ने अन्य आरोप यह भी लगाया है कि ग्रामसी ने इस अवधारणा में आर्थिक पक्ष पर अधिक ध्यान देकर अन्य पक्षों की उपेक्षा की है। उसने उत्पादन प्रक्रिया को ही बुद्धिजीवियों के जन्म का कारण माना है, जो सर्वथा गलत है। उसने सर्वहारा वर्ग में चेतना पैदा करने का कार्य बुद्धिजीवियों को सौंपकर मार्क्स के ही सिद्धान्तों को धूमिल कर दिया है। यद्यपि ग्रामसी की इस अवधारणा को काफी आपेक्षों का सामना करना पड़ा है, लेकिन यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि ग्रामसी की यह अवधारणा तत्कालीन पूंजीवादी व्यवस्थाओं के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली महत्वपूर्ण अवधारणा रही है। ग्रामसी की यह बात आज भी प्रासांगिक है कि सामाजिक परिवर्तन का कोई भी विचार बुद्धिजीवियों के बिना पूरा नहीं हो सकता। ग्रामसी ने इस अवधारणा को अपने राजनीतिक दर्शन का केन्द्र बिन्दु बनाकर विश्व क्रान्ति की जो आशाएं जगाई है, वे आज की परिस्थिितों में भी सम्भव हो सकती है। अत: अंतोनियो ग्रामसी की बुद्धिजीवियों की अवधारणा एक महत्वपूर्ण विचार है जो विश्व क्रान्ति का आधार है।

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बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "अंतोनियो ग्रामसी का जीवन परिचय एवं राजनीतिक विचार". Scotbuzz (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2022-10-26.