वह आहार जिसमें सत्व गुण की प्रधानता हो, सात्विक आहार कहलाता है। योग एवं आयुर्वेद कहा गया है कि सात्विक आहार के सेवन से मनुष्य का जीवन सात्विक बनता है।

यौगिक और सात्विक आहार की श्रेणी में ऐसे भोजन को शामिल किया जाता है जो व्यक्ति के तन और मन को शुद्ध, शक्तिवर्द्धक, स्वस्थ और प्रसन्नता से भर देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सात्विक आहार व्यक्ति को संतुलित स्वस्थ शरीर, शांति, सामंजस्यपूर्ण तालमेल की कुशलता और बौद्धिक व्यक्तित्व प्रदान करता है। सात्विक आहार शांत व स्पष्ट मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रकार एक सी प्रवृत्ति वाली वस्तुएं, परस्पर प्रतिबिंबित होती हैं, उसी प्रकार सात्विक व यौगिक आहार भी शांतिपूर्ण होती हैं, उसी प्रकार सात्विक व यौगिक आहार भी शांतिपूर्ण (उत्तेजना रहित) व स्वच्छ (अशुद्धियों से रहित) होता है। सात्विक भोजन आयुर्वेद के प्राचीन नियमों पर आधारित है, जो सामान्य व पारंपरिक विधियों से तैयार किया जाता है।

योगशास्त्रों और साधना ग्रन्थों ने अन्तःकरण को पवित्र एवं परिष्कृत करने के लिए सात्विक आहार ही अपनाने को कहा है। गीता में कृष्ण ने सात्विक, राजसी और तामसी आहार की सुस्पष्ट व्याख्या की है तथा शरीर, मन और बुद्धि पर उसके पड़ने वाले प्रभावों का भी स्पष्ट विवेचना किया है। आत्मिक प्रगति के आकांक्षी और साधना मार्ग के पथिकों के लिए इस बात का निर्देश दिया गया है कि सात्विक आहार ही अपनाया जाये और उसकी सात्विकता को भी भावनाओं का सम्पुट देकर आत्मिक चेतना में अधिक सहायता दे सकने योग्य बनाया जाय। भगवान् का भोग प्रसाद, यज्ञाग्नि में पकाया गया चरुद्रव्य इसी प्रकार के पदार्थ हैं जिनकी स्थूल विशेषता न दिखाई देने पर भी उनकी सूक्ष्म सामर्थ्य बहुत अधिक होती है।[1]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन". मूल से 28 अगस्त 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 जुलाई 2016.