"बोधिधर्म बौद्धाचार्य": अवतरणों में अंतर

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'''बोधिधर्म बौद्धाचार्य''' एक महान भारतीय बौद्ध [[भिक्षु]] एवं विलक्षण योगी थे। इन्होंने 520 या 526 ई. में [[चीन]] जाकर ध्यान-सम्प्रदाय ([[झेन]] बौद्ध धर्म) का प्रवर्तन या निर्माण किया। ये [[दक्षिण भारत]] के [[कांचीपुरम]] के राजा [[सुगन्ध]] के तृतीय पुत्र थे। इन्होंने अपनी चीन-यात्रा समुद्री मार्ग से की। वे चीन के दक्षिणी समुद्री तट केन्टन बन्दरगाह पर उतरे।
 
प्रसिद्ध है कि [[गौतम बुद्ध|भगवान बुद्ध]] अद्भुत ध्यानयोगी थे। वे सर्वदा ध्यान में लीन रहते थे। कहा जाता है कि उन्होंने सत्य-सम्बन्धी परमगुह्य ज्ञान एक क्षण में [[महाकाश्यप]] में सम्प्रेषित किया और यही बौद्ध धर्म के [[ध्यान सम्प्रदाय]] की उत्पत्ति का क्षण था। [[महाकाश्यप]] से यह ज्ञान [[आनन्द]] में सम्प्रेषित हुआ। इस तरह यह ज्ञानधारा गुरु-शिष्य परम्परा से निरन्तर प्रवाहित होती रही। [[भारत]] में बोधिधर्म इस परम्परा के अट्ठाइसवें और अन्तिम गुरु हुए।
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''[[बू-ति-भन्ते]]'' - मैंने अनेक विहार आदि का निर्माण कराया है तथा अनेक बौद्ध धर्म के संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कराया है तथा अनेक व्यक्तियों को बौद्ध भिक्षु बनने की अनुमति प्रदान की है। क्या इन कार्यों से मुझे पुण्य-लाभ हुआ है?
 
'';बोधिधर्म'' - बिलकुल नहीं।
 
'';बू-ति'' - वास्तविक पुण्य क्या है?
 
'';बोधिधर्म'' - विशुद्ध प्रज्ञा, जो शून्य, सूक्ष्म, पूर्ण एवं शान्त है। किन्तु इस पुण्य की प्राप्ति संसार में संभव नहीं है।
 
'';बू-ति'' - सबसे पवित्र धर्म सिद्धान्त कौन है?
 
'';बोधिधर्म'' - जहाँ सब शून्यता है, वहाँ पवित्र कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
 
'';बू-ति'' - तब मेरे सामने खड़ा कौन बात कर रहा है?
 
'';बोधिधर्म'' - मैं नहीं जानता।
 
उपर्युक्त संवाद के आधार पर बोधिधर्म एक रूक्ष स्वभाव के व्यक्ति सिद्ध होते हैं। उन्होंने सम्राट के पुण्य कार्यों का अनुमोदन भी नहीं किया। बाहर के कठोर दिखाई देने पर भी उनके मन में [[करुणा]] थी। वस्तुत: उन्होंने राजा को बताया कि दान देना, विहार बनवाना, आदि पुण्य कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, वे [[अनित्य]] हैं। इस प्रकार उन्होंने [[सम्राट]] को अहंभाव से बचाया और [[शून्यता]] के उच्च [[सत्य]] का उपदेश किया, जो पुण्य-पाप पवित्र-अपवित्र सत-असत आदि द्वन्द्वों और प्रपंचों से अतीत है।
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ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूति में प्रकृति का महान उपयोग है। प्रकृति ही ध्यानी सन्तों का शास्त्र है। ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में वे प्रकृति का सहारा लेते हैं और उसी के निगूढ प्रभाव के फलस्वरूप चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं।
बोधिधर्म के विचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए प्रज्ञा की अन्तर्दृष्टि की आवश्यक है, जो तथ्यता तक सीधे प्रवेश कर जाती है। इसके लिए किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई विश्लेषण है, न तुलनात्मक चिन्तन, न अतीत एवं अनागत के बारे में सोचना है, न किसी निर्णय पर पहुँचना है, अपितु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-विकल्प और शब्दों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल 'ईक्षण' की आवश्यकता है। स्वानुभूति ही इसका लक्ष्य है, किन्तु 'स्व' का अर्थ नित्य आत्मा आदि नहीं है। ध्यान सम्प्रदाय एशिया की एक महान उपलब्धि है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धति है। यह इतना मौलिक एवं विलक्षण है, जिसमें धर्म और दर्शन की रूढियों, परम्पराओं, विवेचन-पद्धितियों, तर्क एवं शब्द प्रणालियों से ऊबा एवं थका मानव विश्रान्ति एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी साहित्यिक एवं कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इतनी महान एवं सर्जनशील हैं कि उसका किसी भाषा में आना उसके विचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। इसने [[चीन]], [[कोरिया]] और [[जापान]] की भूमि को अपने ज्ञान और उदार चर्याओं द्वारा सींचा है तथा इन देशों के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में अपूर्व योगदान किया है।
 
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
 
==इन्हें भी देखें==
==बाहरी कड़ियाँ==
 
[[श्रेणी:बौद्ध धर्म]]
[[श्रेणी:बौद्ध भिक्षु]]
[[श्रेणी:धर्मगुरु]]
[[श्रेणी:बौद्ध धर्मगुरु]]