"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर
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आम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये [[नमक सत्याग्रह]] की आलोचना की। उनकी अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको [[1931]] मे [[लंदन]] में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। वहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। [[धर्म]] और [[जाति]] के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए उनके ह्रदयपरिवरर्तन के कुछ अवधि दी जानी चाहिए, किन्तु यह तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा।
[[चित्र:M.R. Jayakar, Tej Bahadur Sapru and Dr. Babasaheb Ambedkar at Yerwada jail, in Poona, on 24 September 1932, the day the Poona Pact was signed.jpg|thumb|right|230px|24 सप्टेंबर 1932 को [[यरवदा केंद्रीय कारागार]] में एम आर जयकर, तेज बहादुर व डॉ॰ आम्बेडकर (दाए से दुसरे)]]
[[1932]] में जब ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को [[पृथक निर्वाचिका]] देने की घोषणा की,<ref name="columbia">{{cite web|url=http://ccnmtl.columbia.edu/projects/mmt/ambedkar/web/individuals/6750.html|title=Rajah, Rao Bahadur M. C. |accessdate=2009-01-05|publisher=University of Columbia|author=Pritchett}}</ref><ref name="caste_indianpolitics">{{cite book | title=Caste in Indian Politics| last=Kothari| first=R.| date=2004| page=46| publisher=Orient Blackswan| id=ISBN 81-250-0637-0, ISBN 978-81-250-0637-4}}</ref> तब गांधी ने इसके विरोध में [[पुणे]] की [[यरवदा]] सेंट्रल जेल में [[आमरण अनशन]] शुरु कर दिया। गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर से बडा समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और [[मदन मोहन मालवीय]] ने आम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा जेल में संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों पर होने होने वाले हमलों की वजह से और दुनिया भर से भारी दवाब के चलते डॉ॰ आम्बेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। गांधी ने अछूतों के अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया। पूना पैक्ट अथवा पूना समझौता महात्मा गांधी एंव बाबासाहेब आम्बेडकर बीच पूणे की यरवदा सेंट्रल जेल में 24 सितम्बर 1932 को हुआ था। अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के रूप में अपनी अनुमति प्रदान की थी। इस समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को त्याग दिया गया, लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% तक कर दिया गया। पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु [[ओशो]] कहां है की, यहाँ अहिंसा तो डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर द्वारा निभाई हैं।
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