"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर

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1930 में, आम्बेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद [[कालाराम मंदिर सत्याग्रह]] शुरू किया। [[कालाराम मन्दिर]] आंदोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए, जिससे [[नाशिक]] की सबसे बड़ी प्रक्रियाएं हुईं। जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प में चले गए थे। जब वे गेट तक पहुंचे, तो द्वार ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा बंद कर दिए गए।<ref name=keer>{{cite book|last=Keer|first=Dhananjay|title=Dr. Ambedkar : life and mission|year=1990|publisher=Popular Prakashan Private Limited|location=Bombay|isbn=8171542379|pages=136–140|url=https://books.google.com/books?id=B-2d6jzRmBQC&pg=PA136&dq=%22kalaram+temple%22+%22ambedkar%22&hl=en&sa=X&ei=5UjLUZHjAcPWrQf97IGoCQ&ved=0CDIQ6AEwAQ#v=onepage&q=%22kalaram%20temple%22%20%22ambedkar%22&f=false|edition=3rd}}</ref>
 
==पूना पैक्ट ==
{{mainमुख्य|पुणे समझौता|गोलमेज सम्मेलन (भारत)}}
[[चित्र:Second round tableconf.gif|thumb|right|300px|दूसरा गोलमेज सम्मेलन, १९३१]]
अब तक भीमराव आम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। आम्बेडकर ने [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] और उसके नेता [[मोहनदास करमचंद गांधी]] की भी आलोचना की, उन्होंने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। आम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिकराजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों काकी ही कोई दखल ना हो। लंदन में [[8 अगस्त]], [[1930]] को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन यानी प्रथम [[गोजमेज सम्मेलन]] के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।
 
<span style="color: black">
<blockquote>हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।<ref name="Columbia"/></blockquote></span>
 
आम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये [[नमक सत्याग्रह]] की आलोचना की। उनकी अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको [[1931]] मे [[लंदन]] में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। वहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर गांधी से तीखी बहस हुई। किंतु ब्रिडॉ॰ आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमत हुए। [[धर्म]] और [[जाति]] के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए उनके ह्रदयपरिवरर्तन के कुछ अवधि दी जानी चाहिए, किन्तु यह तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा।
 
[[चित्र:M.R. Jayakar, Tej Bahadur Sapru and Dr. Babasaheb Ambedkar at Yerwada jail, in Poona, on 24 September 1932, the day the Poona Pact was signed.jpg|thumb|right|230px|24 सप्टेंबर 1932 को [[यरवदा केंद्रीय कारागार]] में एम आर जयकर, तेज बहादुर व डॉ॰ आम्बेडकर (दाए से दुसरे)]]
[[1932]] में जब ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को [[पृथक निर्वाचिका]] देने की घोषणा की,<ref name="columbia">{{cite web|url=http://ccnmtl.columbia.edu/projects/mmt/ambedkar/web/individuals/6750.html|title=Rajah, Rao Bahadur M. C. |accessdate=2009-01-05|publisher=University of Columbia|author=Pritchett}}</ref><ref name="caste_indianpolitics">{{cite book | title=Caste in Indian Politics| last=Kothari| first=R.| date=2004| page=46| publisher=Orient Blackswan| id=ISBN 81-250-0637-0, ISBN 978-81-250-0637-4}}</ref> तब गांधी ने इसके विरोध में [[पुणे]] की [[यरवदा]] सेंट्रल जेल में [[आमरण अनशन]] शुरु कर दिया। गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर से बडा समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और [[मदन मोहन मालवीय]] ने आम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा जेल में संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों पर होने होने वाले हमलों की वजह से और दुनिया भर से भारी दवाब के चलते डॉ॰ आम्बेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। गांधी ने अछूतों के अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया। पूना पैक्ट अथवा पूना समझौता महात्मा गांधी एंव बाबासाहेब आम्बेडकर बीच पूणे की यरवदा सेंट्रल जेल में 24 सितम्बर 1932 को हुआ था। अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के रूप में अपनी अनुमति प्रदान की थी। इस समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को त्याग दिया गया, लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% तक कर दिया गया। पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु [[ओशो]] कहां है की, यहाँ अहिंसा तो डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर द्वारा निभाई हैं।
 
कम्युनल अवार्ड की घोषणा गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श का ही परिणाम था। इस समझौते के तहत आम्बेडकर द्वारा उठाई गई राजनैतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका में दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अंतर्गत एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे व दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी थी ।थी। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। इस प्रावधान से अब दलित प्रतिनिधि को चुनने में सामान्य वर्ग का कोई दखल शेष नहीं रहा था। लेकिन वहीं दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट का इस्तेमाल करते हुए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता।
 
गांधी इस समय पूना की यरवदा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही गांधी ने पहले तो प्रधानमत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की। लेकिन जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी डॉ आम्बेडकर ने कहा कि यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखता तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार को लेकर गांधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई। उन्होंने यह भी कहा कि गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए। डॉ.डॉ॰ अंबेडकर ने कहा कि गांधी की जान बचाने के लिए वह दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते। अब मरण व्रत के कारण गांधी की तबियत लगातार बिगड रही थी। गांधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा । पूरा हिंदू समाज डॉ. अंबेडकर का दुश्मन बन गया।
 
देश में बढ़ते दबाव को देख अंबेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे यरवदा जेल पहुंचे। यहां गांधी और डॉ. अंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया। इस समझौते मे डॉ. अंबेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की। लेकिन इसके साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। इसके साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया और इस तरह से डॉ. अंबेडकर ने महात्मा गांधी की जान बचाई।