"दिनचर्या (आयुर्वेद)": अवतरणों में अंतर

तंदुरुस्ती के लिए खाना खाने की आयुर्वेदिक विधि amrutam पत्रिका, ग्वालियर
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भोजन को धीरे धीरे चबाकर खाने से जवानी बनी रहती है amrutam
आयुर्वेद का ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जिसमें भोजन ग्रहण करने की विधि का वर्णन न हो। शरीर में अधिकांश बीमारियां आयुर्वेद के नियमानुसार करने से उत्पन्न होती हैं।
अमृतम मासिक पत्रिका के अनुसार मनुष्य का सारा जीवन धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् पर आधारित है।
 
भारत के महान मनीषियों और आयुर्वेदाचार्यों ने स्वस्थ्य जीवन और पूर्ण आयु के लिए अनेक छोटे छोटे उपायों का वर्णन किया है। इसमें केवल नियम अपनाकर दवाई लेने की जरूरत नहीं पड़ती।
आज से करीब 43 साल पहले मुझे अक्सर पेट दर्द, पीलिया, खून की कमी की समस्या हो जाती थी। मां एक वैद्य के पास लेकर उन्हें दिखाया।
आप बीती, इसी से बीमारी जीती
 
मेरा पेट, माथा देखकर, वे बोले! बेटा बस तुम जीवन भर बिना स्नान के कुछ भी अन्न, भोजन, बिस्कुट मत खाना। रात को अरहर की दाल, नमकीन दही का परहेज बताया। मैने वैद्य के नियम को अपनाया और आज तक कोई भी दिक्कत नहीं है। महादेव की कृपा से पूर्णतः रोग रहित हूं।
अमृतम पत्रिका, ग्वालियर से साभार यह लेख बहुत बड़ा हो सकता है। क्योंकि लिखने में 5000 साल प्राचीन 16 ग्रंथों से गहन अध्ययन कर जानकारी जुटाई गई है।
इसे पढ़कर 60 तक खाट और 70 तक बिस्तर नहीं पकड़ेंगे। जवानी भी बनी रहेगी। पानी यानि वीर्य और वीर्य की कमी नहीं आएगी।
याद रखें मनुष्य को केवल देह को अंभालना है। शेष काम तो स्वयं शेषनाग कर रहे हैं, जो धरती को धारण किए हैं। उनके लिए तुम्हारा दुःख मिटाना चुटकी का काम है।
धन्वन्तरि निघण्टु (ध.नि.),
निघण्टु रत्नाकर (वृ.नि.र.)
वृहत योगतरंगिणी (वृ.यो.त.),
भारतभैषज्यरत्नाकर (भा.भै.र.),
भावप्रकाश (भा.प्र.),
भैषज्यरत्नावली (भै.र.),
योगचिन्तामणि (यो.चि.) आदि
अप्रीति, काम, क्रोध, खेद, चिन्ता, चोर अभिमान, वैर, भय, मिथ्या, लोभ विस्मरण, सर्वस्पर्धा और हिंसा ये 14 रोग और अनर्थ होने के लक्षण है।
आरोग्य और भोजन-विज्ञान
 
आयुर्वेद शास्त्र में अन्यान्य यज्ञों की तरह भोजन व्यापार को भी एक नित्य यज्ञ कहा गया है। इस नित्ययज्ञ के यज्ञेश्वर भगवान् वैश्वानर कहे गये हैं।यथा
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
 
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
 
(गीता १५ । १४)
 
उदर की जठराग्नि- यानि वैश्वानर रूप से प्रत्येक प्राणी में बैठकर प्राण और अपान वायु की सहकारिता से चर्व्य चोष्य, लेह्य तथा पेय - इन चार प्रकारके भोज्य अन्नोंको भक्षण करते हैं।
अन्ततः शास्त्रों में भोजन की पवित्रता पर विशेष विचार किया गया है। पवित्र भोजन से केवल उदरपूर्ति ही नहीं होती, अपितु पेट पूजा भी होती है।इससे भगवान् असंतुष्ट और रोग होते हैं।
भोजन का स्थान पवित्र, एकान्त जल आदि से शुद्ध किया हुआ होना चाहिये। दूसरे स्वयं पवित्र होकर भोजन करना चाहिये अन्यथा शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का कलुषित होना सम्भव है।
हमारे प्राचीन ऋषियोंने आहार पर बहुत विचार करके आहार सम्बन्धी नाना प्रकार के आचारोंका निर्णय किया है। (स्वामी श्रीदयानन्दजी)
भोजन किस दिशा में बैठकर करें
 
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्गे यशस्यं दक्षिणामुखः।
 
अर्थात आयु चाहनेवालेको पूर्व मुख और यश चाहने वाले को दक्षिणमुख भोजन करना चाहिये।
पूर्व दिशा प्राण और शक्तिका उदय होता है। प्राणस्वरूप सूर्यदेव पूर्व से ही उदित होते हैं, इस कारण पूर्वाभिमुख होकर भोजन करने से आयु को बढ़ना स्वाभाविक है। इस विषयमें पश्चिमी पण्डितों ने भी अन्वेषण किया है।
उत्तर दिशा की तरफ मुख करें न खाएं खाना
 
माधव निदान और चरक संहिता का सिद्धान्त है कि उत्तर की ओर मुँह करके खाने से वैद्युतिक प्रवाह नसों के द्वारा अधिक वेग तथा विस्तार के साथ चलता है, इसलिये वह उतना आयु र्वृद्धिकर नहीं है, जितना कि पूर्वाभिमुख भोजन ।
इसी प्रकार यश देनेवीवाले पितरों का सम्बन्ध दक्षिण दिशा के साथ रहने के कारण दक्षिणाभिमुख भोजन से यशो लाभ होता है।
भोजन से पहले स्नान तथा पूजादि से शरीर और मन की पवित्रता बढ़ती है, इसलिये शास्त्र में कहा है
अस्नात्वाशी मलं भुङ्क्ते अजपी पूयशोणितम्।
 
नीरोग शरीर होने पर बिना स्नान किये खाने से मल भोजन और बिना जप- पूजा किये खाने से पूय-शोणित भोजन का दोष होता है। इसलिये हमेशा स्नान करने के बाद ही भोजन करना चाहिये। आयुर्वेदिक शास्त्रों में लिखा है
स्नान करने के पश्चात् ही भोजन करना उचित है, क्योंकि भगवत्पूजा या पेट पूजा बिना स्नान किये नहीं की जाती।
पञ्चाद्रों भोजनं कुर्यात् प्राङ्मुखो मौनमास्थितः
 
हस्ती पादौ तथैवास्यमेषा पञ्चार्द्रता मता।।
 
दोनों हाथ, दोनों पाँव और मुँह धोकर, पूर्वाभिमुख हो, मौन अवलम्बनकर धारण कर भोजन करे। योगशास्त्र में मनुष्य के स्वाभाविक श्वास की गति बारह अङ्गुल, किंतु भोजन काल में बीस अङ्गुल बतायी गयी है।
श्वास की गति अधिक होने पर आयु घटती और कम होने पर बढ़ती है। लोभ से भोजन करने में तथा हाथ- पाँव न धोकर भोजन करने में श्वास गति बढ़ती है। इसी कारण भगवान् को नैवेद्य (भोग) लगाकर प्रसाद रूप से तथा हाथ-पाँव धोकर खाना खाने की विधि बताई है।
 
भोजन हमेशा गीले पैर करना चाहिए
 
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नाईपादस्तु संविशेत्।
 
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात्॥
 
भींगे-पैर भोजन करे, परंतु शयन न करे। भींगे-पैर भोजन करने से आयु बढ़ती है और शयन करने से घटती है।
मौन होकर भोजन करने को इसलिये कहा है कि भोजन करते समय बोलते रहने से लार कम उत्पन्न होगी, फलतः मुँह सूख जाने से बीच-बीच में पानी पीना पड़ेगा।
लार कम उत्पन्न होने और मुँह सूखने के कारण पानी पीने से पाचनक्रिया में बाधा उत्पन्न होगी।
संसार की सब वस्तुएँ भगवान्‌की उत्पन्न की हुई हैं, तब उन्हें पकाकर भगवान्‌को बिना अर्पण किये खानेसे
तैर्दत्तानप्रदायैथ्यो यो भुङ्गे स्तेन एव सः॥
 
अर्थात देवता की दी हुई वस्तु ईश्वर को समर्पण किये बिना जो खाता है, वह चोर है। अत: भगवान्‌ को समर्पण करके ही अन्न ग्रहण करना चाहिये ।
खाद्य वस्तुएँ पवित्र और सात्त्विक होनी चाहिये। इसका कारण छान्दोग्योपनिषद्में बताया गया है।
अन्नमशितं त्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति यो मध्यमस्तन्माः सं योऽणिष्ठस्तन्मनः।।
दध्वः सोम्य मथ्यमानस्य योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदीषति तत् सर्पिर्भवति॥
एवमेव खलु सोम्यान्नस्याश्यमानस्य योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदीषति तन्मनो भवति।।
भोजन पचने की व्यवस्था
 
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ धुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।
अर्थात खाया हुआ अन्न तीन भाग में विभक्त हो जाता है। स्थूल असार अंश मल बनता है। मध्यम अंश से मांस बनता है और सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टि होती है। जिस प्रकार दधि के मथने पर उसका सूक्ष्म अंश ऊपर आकर घृत बनता है, उसी प्रकार अन्नके सूक्ष्मांश से मन बनता है।
मन अन्नमय ही है। आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि, सत्त्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्मृतिशुद्धि से सभी ग्रन्थियों का मोचन होता है। अतः सिद्ध हुआ कि अन्न के सात्त्विकादि गुणानुसार मन भी सात्त्विकादि भावापन्न होगा।
साधारणतः देखा जाता है कि अन्न न खाने यानि भोजन न करने से मन दुर्बल हो जाता है, चिन्तन-शक्ति नष्ट होने लगती है। अन्न खाने से मन सबल होता है तथा चिन्तन - शक्ति बढ़ने लगती है।
अतः यही अन्न यदि तामसिक होगा तो मन, बुद्धि, प्राण और शरीर तामसिक होंगे; जिससे ब्रह्मचर्य धारण और साधना आदि असम्भव हो जायँगे।
इसी तरह राजसिक अन्न से भी मन और बुद्धि चञ्चल होते हैं, अतः पवित्र और सात्त्विक अन्न ही ग्रहण करना चाहिये।
खाद्याखाद्य के सम्बन्ध में पश्चिमी देशों में जिस प्रणाली से विचार किया गया है, वह सर्वाङ्गदृष्ट्या पूर्ण नहीं है। उन्होंने केवल इतना ही विचार किया है कि किस वस्तु में कौनसा रसायनिक द्रव्य यानि विटामिन्स, प्रोटीन कितना है।
कैलशियम, प्रोटीन तथा विटामिन आदि जिसमें न्यून हो वह अखाद्य और जिसमें अधिक हो वह खाद्य है— इतना ही मोटा सिद्धान्त उन्होंने बना लिया है।
कौन-सी वस्तु किस ऋतुमें, किस प्रकार से सेवन की जाय, जिससे शरीर और मन का स्वास्थ्य परिवर्धित हो, इसकी विधि पश्चिमी चिकित्साशास्त्र की पोधियों में नहीं मिलती।
उन देशों में शीत अधिक है, अतः एक-सी ही वस्तुओं के बारहों मास सेवन करने से तद्देशवासियों का काम बन जाता है। परंतु इस देशमें छहों ऋतु एक से ही बलवान् हैं।
ऋतु भेद से वात, पित्त और कफ की न्यूनाधिकता होने के कारण शारीरिक तथा मानसिक अवस्था में कितना परिवर्तन होता है, यह जानने की वे अब तक चेष्टा नहीं करते।
दूसरे, पश्चिमी देशोंकी यह निर्णयविधि बड़ी ही जटिल है। वहाँ के प्रसिद्ध विद्वान् भी खाद्याखाद्य के सम्बन्ध में अभी एकमत नहीं हैं।
तीसरे, उदर में जाकर इन सब खाद्य-द्रव्यों का किस प्रकार विश्लेषण होता है और उससे शरीर पोषणकारी कौन-से गुण उत्पन्न होते हैं।
साधारण रासायनिक विश्लेषणद्वारा उसका निरूपण नहीं हो सकता। चौथे, इस देश के खाद्य-द्रव्यों के साथ उस देश के खाद्य-द्रव्योंके गुणावगुण का निर्णय नहीं हो सकता।
सबसे बढ़कर बात यह है कि खाद्य-द्रव्योंके साथ मन का क्या सम्बन्ध है, सो पश्चिमी लोग नहीं जानते।
अतः हमारे देशके खाद्याखाद्यका विचार हमारी शास्त्रीय विधियोंके अनुसार ही होना चाहिये। उसमें किसी खाद्य वस्तु में चाहे कितना ही विटामिन हो यदि उसके परिणामद्वारा शरीर में या मन में विषय भाव, तमोगुण आदि बढ़ेंगे, तो वह अवश्य ही वर्जित मानी जायगी।
भगवान् श्रीकृष्णने सात्त्विक, राजसिक और तामसिक-भेदसे खाद्य-द्रव्योंको तीन भागोंमें विभक्त किया है। यथा
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः
 
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥ कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः
 
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥
 
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
 
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥
 
(श्रीमदभागवत गीता १७।८ - १०)
 
अर्थात सरस, स्निग्ध, सारवान् और हृदयग्राही आहार सात्त्विक होता है।
अधिक कटु, अम्ल, लवण, उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष और विदाही (जलन उत्पन्न करनेवाला, चरपरा) आहार राजसिक है।
और बासी, रसहीन, दुर्गन्धयुक्त, जूठा अपवित्र आहार तामसिक है।
सात्त्विक आहार से बल, उत्साह, आरोग्य, सुख और प्रीति की वृद्धि होती है और चित्त में सत्त्वगुण की वृद्धि तथा आध्यात्मिक उन्नति की होती है।
राजसिक आहारसे दुःख, शोक और रोग उत्पन्न होते हैं और तामसिक आहारसे जड़ता, अज्ञान, कुरोग और पशुभाव बढ़ता है।
अतः राजसिक और तामसिक खाद्यद्रव्यों का परित्याग कर सात्त्विक आहार करना चाहिये। इसी कारण आर्यशास्त्र में प्याज तथा लहसुन आदि राजसिक और तामसिक वस्तुओंका भोजन करना निषिद्ध है, यथा
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च।
 
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥ (मनु० ५१५)।
 
लहसुन, गाजर, प्याज, कवक (कुकुरमुत्ता) (तथा विष्ठादि अपवित्र वस्तु से उत्पन्न शाकादि) द्विजातियों के लिये सर्वथा अभक्ष्य हैं।
इन वस्तुओंके खानेसे मन, बुद्धि, शरीर, प्राण, आत्मा - सभी मलिन हो जाते हैं और ब्रह्मचर्य नाश, पशुभाव वृद्धि, काम या सेक्स वृद्धि, चित्तचाञ्चल्य आदि उत्पन्न होकर आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग एकाएक बंद हो जाता है।
यह डॉक्टरी विज्ञान-सम्मत है कि स्पर्श से एक के शरीरसे दूसरेके शरीरमें रोग संक्रमित होते हैं। लोगों ने कोरोना काल में देख ही लिया।
हाथ के साथ हाथ का स्पर्श होने पर भी रोग के बीज एक दूसरेमें चले जाते हैं। केवल रोग ही नहीं, स्पर्श से शारीरिक और मानसिक वृत्तियोंमें हेर-फेर भी हो जाता है।
प्रत्येक मनुष्यमें एक प्रकार की विद्युत् शक्ति रहती है, जो मनुष्यकी प्रकृति और चरित्र के भेदनसे प्रत्येक में विभिन्न जातीय होकर स्थित है।
तामसिकों में तमोमयी, राजसिकों में रजोमयी और सात्त्विकों में सत्त्वमयी विद्युत् विराजमान है।
अन्ततः जिस वृत्तिके लोगोंके साथ रहा जाय, जिस वृत्तिके लोगोंका हुआ या दिया अन्न सेवन किया जाय; उसी प्रकार की वृत्ति सहवासियों अथवा अन्न ग्रहण करनेवालोंमें संक्रमित होगी। भिन्न-भिन्न प्रकार की विद्युत् का प्रकृति परिणाम एक दूसरे पर हुए बिना न रहेगा।
अतः चाहे जिसका भी हो, छुआ या दिया हुआ अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिये। हिन्दूशास्त्रों में नीच, अपवित्र, पापी और चाण्डाल आदि का हुआ अन्न ग्रहण करनेवीका जो निषेध है।
पंक्तियों में बैठकर भोजन करने की जो आज्ञा है, इसका तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको अलग-अलग कारण भी यही है कि प्रत्येक वर्ण की विद्युत् (प्रकृति) जन्म से ही विभिन्न प्रकार की होती है और उसका अन्य प्रकृति में संक्रमण होना स्वाभाविक है।
अपनेसे निम्न श्रेणीके लोगोंके साथ बैठकर भोजन करने से अपनी उच्च गुण विशिष्ट विद्युत् मलिन हो जाती है अथवा नाना जाति को बिजली के विपरीत संघर्ष से किसी का भी भोजन परिपक्व नहीं हो पाता।
भोजनके समय इन नियमोंका पालन करना आवश्यक है। एक वर्ण में पंक्ति भोजन के समय यह भी नियम अवश्य रखना चाहिये कि जितने व्यक्ति एक साथ बैठें, सभी भोजन का प्रारम्भ तथा समाप्ति एक ही साथ करें; क्योंकि पंक्ति में भोजन के समय सबके शारीरिक यन्त्र में क्रिया विशेष होने से तथा एक साथ बैठने के कारण सभीबीके भीतर एक वैद्युतिक श्रृंखला (Electric line or circle) बन जाती है।
उसी में से जो आगे उठ जायगा, वह यदि दुर्बल है तो उसकी वैद्युतिक शक्तिको बाकी बैठने वाले खींच लेंगे, जिससे उस पहले उठने वाले के पेटबीमें भोजन पचेगा नहीं और वह दुर्बल हो जायगा।
दूसरे उठने वाला यदि अधिक शक्तिशाली है, तो सारे बैठने वालों की विद्युत्-शक्तिको वह खींचकर उठेगा, जिससे बाकी सभीके पेटमें विकार हो सकता है।
अतः पंक्ति भोजनवीमें साथ ही बैठने-उठने का नियम अवश्य रखना चाहिये। और यदि किसी से अन्न लेना हो, तो सत्पात्र देखकर उससे लेना चाहिये, क्योंकि पापियों का अन्न ग्रहण करने से उसका पाप अपने में भी संक्रमित होगा।
वह कौन शक्ति है जो हाथ की नसोंवीके द्वारा अँगुलियों के अन्त तक चली जाती है? इसी को वैज्ञानिकगण 'आकाशी शक्ति' कहते हैं।
वह मस्तिष्कसे प्रारम्भ होती है, मनोवृत्तियों के साथ जा मिलती है और स्नायुपथ से प्रवाहित होकर हाथ, आँख और पाँवकी एड़ी तक पहुँचती है।
इन तीनोंके ही द्वारा दूसरों पर यह अपना प्रभाव दिखाती है, किंतु इसका सबसे अधिक प्रभाव हाथकी अँगुलियों द्वारा ही प्रकट होता है।
पितृमातृसुहृद्वैद्यपुण्यकृद्धंसबर्हिणाम्
 
अर्थात पिता, माता, सुहृद्, वैद्य, पुण्यात्मा, हंस, मयूर, सारस और चकवे की दृष्टि भोजन में उत्तम है। इनकी दृष्टि पड़ने से अन्नका दोष दूर हो जाता है।
चकवे के विषयमें मत्स्यपुराणमें लिखा है कि
'चकोरस्य विरेष्येते नयने विषदर्शनात्।
 
सारसस्य चकोरस्य भोजने दृष्टिरुत्तमा।।
 
अर्थात अन्नमें विष आदि दोष रहनेपर चकवे आँखें मूँद लेते हैं जिससे विषाक्त अन्न का पता लग जाता है। दृष्टिदोष के विषय में लिखा है
हीनदीनक्षुधार्त्तानां पाषण्डस्त्रैणरोगिणाम्।
 
कुक्कुटाहिशुनां दृष्टिर्भोजने नैव शोभना॥
 
अर्थात नीच, दरिद्र, भूखे, पाषण्ड, स्त्रैण, रोगी, मुर्गे, सर्प और कुत्ते की दृष्टि भोजन में ठीक नहीं होती है। उनकी विषदृष्टि अन्न में संक्रमित होने से अजीर्ण रोग उत्पन्न होते हैं।
अच्छी या बुरी दृष्टिमें कितनी शक्ति है सो आजकल मेस्मेरिज्म, हिप्नटिज्म आदि विद्याओं के द्वारा स्पष्ट प्रमाणित हो चुका है। यदि कभी इनमें से किसी की दृष्टि अन्नपर पड़ जाय, तो निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर उसके अर्थका चिन्तन करते-करते भोजन करना चाहिये । यथा
अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वरः।
 
इति संचिन्त्य भुञ्जानं दृष्टिदोषो न बाधते॥
 
अञ्जनीगर्भसम्भूतं कुमारं ब्रह्मचारिणम्।
 
दृष्टिदोषविनाशाय हनुमन्तं स्मराम्यहम्॥
 
अन्न ब्रह्माका रूप है और अन्न का रस विष्णुरूप है तथा भोक्ता महेश्वर हैं, इस प्रकार चिन्तन करते-करते भोजन करने पर दृष्टिदोष नहीं होता।
अञ्जनीकुमार ब्रह्मचारी हनुमान् जी को दृष्टि दोष नाशार्थ मैं स्मरण करता हूँ, ये ही सब भोजनके विषयमें नियम हैं।
दिन में एक ही बार भोजन करना चाहिये।
 
'आपस्तम्ब' में लिखा है कि
 
दिवा पुनर्न भुञ्जीत नान्यत्र फलमूलयोः।
 
तात्पर्य यह कि दिनमें एक ही बार भोजन करना चाहिये; परंतु क्षुधाबोध या भूख होने पर फल-मूल आदि का आहार कर सकते हैं। बार बार खाने से सूर्य, शनिदेव और राहु कुपित होते हैं और भाग्य का नाश कर देते हैं।
किसी वस्तु से माथा लपेट कर और जूता पहनकर भोजन करना उचित नहीं -
यो भुङ्गे वेष्टितशिरा यश्च भुङ्क्ते विदिङ्मुखः।
 
सोपानत्कश्च यो भुङ्क्ते सर्वं विद्यात् तदासुरम्॥
 
किसी वस्तु से माथा लपेट कर तथा शास्त्र निषिद्ध दिशा की ओर मुख करके और जूता पहनकर, खाना आसुरी प्रकृति का लक्षण है।
रात्रि में हलका भोजन करना चाहिये । क्योंकि निद्रावस्था में स्नायुशक्ति दुर्बल रहती है, उस समय पर भरके या गम्भीर भोजन का परिपाक ठीक नहीं होता।
दिन या रात्रिका भोजन ऐसा न हो, जिसमें खूब चरपरे मसाले पड़े हों और जो आसानीसे पच न सके, न पचनेवाले भोजन करने से शरीर और मन दोनों बिगड़ते हैं। अतः सहजमें पचनेवाले हलके पदार्थ ही खाये जायँ।
शाम को भोजन करने से भूत प्रेतों का डेरा बन जाता है घर
 
संध्याके समय भोजन न करे; क्योंकि संध्याके समय भूत-प्रेतोंकी अन्न पर रहती है। उनकी अन्न पर आसक्ति रहने से उस समय अन्न ग्रहण करने वालों के अन्नपरिपाक में संदेह रहता है।
इसी तरह अधिक रात बीत जाने पर भी भोजन न करे, क्योंकि भोजनोत्तर कम-से-कम दो घंटे जागकर तब सोना चाहिये।
ऐसा न करने से अन्न नहीं पचेगा। अन्न के न पचने से गहरी प्रागाढ़ निद्रा नहीं लगेगी। अच्छी नींद न आने से नाना प्रकार के स्वप्न दीख पड़ेंगे और निद्राभङ्ग होगा; जिससे स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा।
भोजन कर लेने के कुछ समय पश्चात् जल पीना चाहिये। वह स्वच्छ, लघु, शीतल, सुगन्धित, स्वयं स्वादहीन, हृद्य और तृष्णानिवारक हो। जल के विषय में महर्षि यमने कहा है
दिवार्करश्मिसंस्पृष्टं रात्रौ रात्रौ नक्षत्रमासितैः।
 
संध्ययोश्च तथोभाभ्यां पवित्रं जलमुच्यते॥
 
अर्थात दिनमें सूर्यकिरण, रात्रि को चन्द्र- किरण और सन्ध्याओं में दोनों किरणों से संस्पृष्ट जल ही उत्तम है। जिस जल पर सूर्यकिरण नहीं पड़ते अथवा जिस जल को वायु नहीं सोखती।
वह अति स्वच्छ रहनेपर भी कफ उत्पन्न करता है। उस जल को गरम करके ठंडा होने पर पिये। ऐसा जल काश, श्वास, ज्वर, कफ, वात, आम और अजीर्णका नाश करता है।
नारियल का जल मधुर, पाचक और पित्तशामक होता है। लाल नारियल के जल में केवल पित्तशमन का ही गुण है।
सोडावाटर, लेमनेड आदि क्षारयुक्त जल इस देश के आहारविहार और जलवायु के लिये सर्वथा अनुपयुक्त और अपथ्यकर है।
जल पीनेके विषय में भावप्रकाशमें लिखा है
 
अत्यम्बुपानाच्च विपच्यतेऽन्न मनम्बुपानाच्च स एव दोषः।
 
तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि॥
 
अर्थात् बहुत जल पीने से तथा बिलकुल ही न पीने से अन्न का परिपाक नहीं होता। इसलिये पाकाग्नि के बढ़ाने के लिये बार-बार थोड़ा-थोड़ा जल पीते रहना चाहिये। पानी का पर्याप्त पीना जवानी बनाए रखता है। झुरियां नहीं पड़ती। बुढ़ापा जल्दी नहीं आता।
सुबह उठते ही खाली पेट गर्म पानी पीना जहर के समान होता है। इससे नाड़ी कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होकर शरीर अनेक विकारों से घिर जाता है।
आयुर्वेद शास्त्र में मिताहार की बड़ी प्रशंसा की गयी है । मिताहारके लक्षणके विषयमें लिखा है
 
कुक्षेर्भागद्वयं भोज्यैस्तृतीयं वारि पूरयेत्।
 
वायोः संचरणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत्॥
 
अर्थात उदर का दो भाग भोज्य पदार्थों से तथा तीसरा भाग जल से पूर्ण किया जाय और चौथा भाग वायु संचार के लिये लिखा खाली रखा जाय, यही मिताहार का लक्षण है। इससे आयु बढ़ती है, रोग का नाश होता है तथा बल और सुखका लाभ होता है।
भुक्त्वा पाणितलं धृष्ट्वा चक्षुषोर्यदि दीयते।
 
अचिरेणैव तद्वारि तिमिराणि व्यपोहति॥
 
स्वर्यातिश्च सुकन्यां च च्यवनं शक्रमश्विनौ।
 
भोजनान्ते स्मरेद् यस्तु तस्य चक्षुर्न हीयते॥
 
अर्थात भोजनके बाद मुख प्रक्षालन यानि कुल्ला करना चाहिये, जिससे मुखमें उच्छिष्ट न रहे।
तदनन्तर 'स्वर्याति' आदि मन्त्र पाठ करते हुए आर्द्र हस्तद्वय घर्षण पूर्वक दोनों चक्षुओं यानि आंखों में तीन बार लगाने पर दृष्टि शक्ति अच्छी होती है।
तदनन्तर क्या करना चाहिये, उसके लिये लिखा है
भुक्त्वा राजवदासीत यावन्न विकृतिं गतः।
 
ततः शतपदं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्॥
 
एवं चाधोगतञ्चान्नं सुखं तिष्ठति जीर्यति॥
 
अर्थात भोजन के बाद पहले वीरासन में बैठना चाहिये। पश्चात् शतपद घूमकर वामपार्श्व यानि बाएं तरफ में सोना चाहिये ।
प्राचीन ग्रंथ भावप्रकाश में लिखा है कि
वामदिशायामनलो नाभेरूर्ध्वेऽस्ति जन्तूनाम्।
 
तस्मात्तु वामपार्श्वे शयीत भुक्तप्रपाकार्थम्॥
 
अर्थात नाभि के ऊपर वामपार्श्व में अग्नि रहती है, इसलिये वामपार्श्व में सोने पर अन्न का परिपाक अच्छा होता है। भोजन जल्दी पचता है और कब्ज नहीं होती।
भोजन के बाद कठिन परिश्रम कदापि नहीं करना चाहिये, उससे रक्त- संचालन अधिक होने पर पाक क्रिया में बाधा होती है। इसलिये लिखा है
अनायासप्रदायीनि कुर्यात् कर्माण्यतन्द्रितः।
 
जिससे परिश्रम न हो, इस प्रकार के हलके काम कर सकते हैं। वैद्यक शास्त्र में और भी लिखा है
भुक्त्वोपविशतस्तन्द्रा शयानस्य तु पुष्टता।
 
आयुश्चंक्रममाणस्य मृत्युर्धावति धावतः॥
 
अर्थात भोजनके बाद बैठे रहने से शरीर में भारीपन और शिथिलता आने लगती है, सोये रहने से शरीर पुष्ट होता है, थोड़ी देर पादचारण करने से आयु बढ़ती है और ही दौड़ने से मृत्यु भी पीछे-पीछे जाती है। ये सब नियम हैं। इनका पालन करना चाहिये।
 
 
[[अष्टांग हृदय|अष्टाङ्गहृदयम्]] के सूत्रस्थान में '''दिनचर्या''', रात्रिचर्या, [[ऋतुचर्या]], का वर्णन है। दिनचर्या से तात्पर्य [[आहार]], [[विहार]] और आचरण के नियमों से है।