"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर

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छो डॉ. अम्बेदकर का देश-प्रेम
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गाँधी और आम्बेडकर ने अनेक मुद्दों पर एक जैसे विचार रखे, जबकि कई मुद्दों पर उनके विचार बिलकुल अलग या विपरीत थे। ग्रामीण भारत, जाति प्रथा और छुआ-छूत के मुद्दों पर दोनो के विचार एक दूसरे का विरोधी थे। हालांकि दोनों की कोशिश देश को सामाजिक न्याय और एकता पर आधारित करने की थी और दोनों ने इन उद्देश्यों के लिए अलग-अलग रास्ता दिखाया। गाँधी के मुताबिक यदि हिंदू जाति व्यवस्था से छुआछूत को निकाल दिया जाए तो पूरी व्यवस्था समाज के हित में काम कर सकती है। इसकी तार्किक अवधारणा के लिए गाँधी ने गाँव को एक पूर्ण समाज बोलते हुए विकास और उन्नति के केन्द्र में रखा। गाँधी के उलट आम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट करने का मत सामने रखा। आम्बेडकर के मुताबिक जबतक समाज में जाति व्यवस्था मौजूद रहेगी, छुआछूत नए-नए रूप में समाज में पनपती रहेंगी। गाँधी ने लोगों को गाँव का रुख करने की वकालत की, जबकि आम्बेडकर ने लोगों से गाँव छोड़कर शहरों का रुख करने की अपील की। गाँव व शहर के बारे में गाँधी व आम्बेडकर के कुछ भिन्न विचार थे। गाँधी सत्याग्रह में भरोसा करते थे। आम्बेडकर के मुताबिक सत्याग्रह के रास्ते ऊंची जाति के हिंदुओं का हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि जाति प्रथा से उन्हें भौतिक लाभ होता है। गाँधी राज्य में अधिक शक्तियों को निहित करने के विरोधी थे। उनकी प्रयास अधिक से अधिक शक्तियों को समाज में निहित किया जाए और इसके लिए वह गाँव को सत्ता का प्रमुख इकाई बनाने के पक्षधर थे। इसके उलट आम्बेडकर समाज के बजाए संविधान को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने की पैरवी करते थे।<ref>{{Cite web|url=https://m.aajtak.in/news/national/story/what-differentiates-bhimrao-ambedkar-from-mahatma-gandhi-923344-2017-04-14|title=ये बातें बाबा साहेब अंबेडकर को महात्मा गाँधी से अलग करती हैं|website=https://m.aajtak.in|access-date=15 जुलाई 2019|archive-url=https://web.archive.org/web/20190715114303/https://m.aajtak.in/news/national/story/what-differentiates-bhimrao-ambedkar-from-mahatma-gandhi-923344-2017-04-14|archive-date=15 जुलाई 2019|url-status=live}}</ref><ref>{{Cite web|url=https://books.google.co.in/books?id=3LCyOqW-FvkC&pg=PT149&lpg=PT149&dq=%E0%A4%86%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A4%B0+%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80+%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9&source=bl&ots=1HuINPLLdM&sig=ACfU3U2WnuTANemwrhWLiTAk8UyFicV2oA&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwi1-M7zxqLjAhWE6XMBHY5iCng4ChDoATADegQICRAB|title=Gandhi Aur Ambedkar|first=Ganesh|last=Mantri|date=1 जन॰ 2009|publisher=Prabhat Prakashan|via=Google Books}}</ref><ref>{{Cite web|url=https://hindi.theprint.in/opinion/ambedkar-mahad-march-vs-gandhi-dandi-march/56363/|title=नमक से पहले पानी: आम्बेडकर का महाड़ मार्च बनाम गाँधी का दांडी मार्च|access-date=15 जुलाई 2019|archive-url=https://web.archive.org/web/20190715114303/https://hindi.theprint.in/opinion/ambedkar-mahad-march-vs-gandhi-dandi-march/56363/|archive-date=15 जुलाई 2019|url-status=live}}</ref>
 
== '''डॉ. अम्बेदकर का देश-प्रेम''' ==
'''डॉ. अम्बेदकर का देश-प्रेम'''
 
'''(राजनीतिक स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय एकीकरण पर उनका दृष्टिकोण)'''
 
डॉ. अम्बेदकर ने अपने सार्वजनिक जीवन में महात्मा गांधी और कांग्रेस का विरोध किया था अवसरों पर उनके इस विरोध में कटुता भी थी, लेकिन इस आधार पर उनके देश-प्रेम और राजनीतिक
 
स्वतन्त्रता के प्रति उनकी निष्ठा पर सन्देह करने का कोई औचित्य नहीं है। डॉ. अम्बेदकर प्रारम्भ से ही देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के समर्थक थे और उनका यह मूल मनोभाव सदैव बना रहा।
 
सन् 1916 में डॉ. अम्बेदकर ने एम. ए. अर्थशास्त्र की परीक्षा के लिए जो शोध प्रबन्ध कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था, वह आठ वर्ष पश्चात् 'The Evolution of Provincial Finance in the British India' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। भीमराव ने इस शोध प्रबन्ध में दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए थे :
 
(1) प्रत्येक देश में सामाजिक शोषण व अन्याय व्याप्त है, तथा
 
(2) इसका अर्थ यह नहीं है कि उस देश को राजनीतिक शक्ति प्राप्त न हो।
 
फरवरी 1942 में बम्बई विधानसभा की एक बहस में बोलते हुए डॉ. अम्बेदकर ने कहा था, "मेरा झगड़ा कुछ मामलों पर सवर्ण हिन्दुओं से है। मैं शपथ लेता हूं कि मैं अपने देश की रक्षा के लिए अपना जीवन निछावर कर दूंगा।"
 
डॉ. अम्बेदकर ने 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का विरोध किया था और गांधीजी द्वारा संचालित इस आन्दोलन को ‘अनुत्तरदायित्वपूर्ण और पागलपन भरा कार्य' बतलाया था, लेकिन इस प्रसंग में इस बात को ध्यान में रखना होगा कि भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध तो उदारवादी नेता तेजबहादुर सप्रू और हिन्दू महासभा के नेता सावरकर द्वारा भी किया गया था। यह देश की स्वतन्त्रता का विरोध नहीं था; ये तो देश की स्वतन्त्रता के लिए अपनाई जाने वाली रणनीति और व्यूह रचना के मतभेद थे।
 
डॉ. अम्बेदकर न केवल प्रबल देशभक्त वरन् राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के भी प्रबल समर्थक थे। पक्षों द्वारा कहा गया है कि डॉ. अम्बेदकर ने भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में रुचि ली; लेकिन वस्तुतः अम्बेदकर के सम्बन्ध में इस प्रकार के विचार को अपनाने का कोई आधार नहीं है। देश के विभाजन के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेदकर का विचार वही था, जिसे कुछ महीनों बाद नेहरू और पटेल ने अपनाया था। विचार यह था कि यदि भारत की राजनीतिक समस्या का अन्य कोई विकल्प नहीं है, तो हमें पाकिस्तान स्वीकार करना ही होगा।
 
प्रारम्भ में वे देश के विभाजन के विरोधी थे और उनका विचार था कि “कोई विभाजन नहीं, वरन् मुस्लिम लीग का अन्त और हिन्दुओं तथा मुसलमानों की एक सम्मिलित पार्टी की स्थापना 'हिन्दू राज के भूत' को दफनाने का एकमात्र प्रभावदायक मार्ग है।"" लेकिन अन्त में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि "जहां तक मेरा सम्बन्ध है, महत्वपूर्ण प्रश्न केवल यह है कि क्या मुसलमान पाकिस्तान लेने के लिए दृढ़ निश्चयी हैं या पाकिस्तान उनके लिए केवल एक नारा और बदलती हुई मनोस्थिति है ? क्या पाकिस्तान उनकी स्थाई आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है ? इस प्रश्न पर मतभेद हो सकते हैं ? जब एक बार यह निश्चित हो जाय कि मुस्लिम वर्ग पाकिस्तान चाहता है, तब इसमें सन्देह नहीं कि बुद्धिमत्तापूर्ण मार्ग उसे सिद्धान्त रूप में स्वीकार कर लेना है।<nowiki>''</nowiki>2 यह स्थिति विभाजन के प्रति उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय देती है और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए ही उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान, हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को, दासता तथा अतिक्रमण के भय से मुक्त कर देगा। डॉ. अम्बेदकर ने यह भी प्रस्ताव किया था कि भारत के सभी मुसलमान पाकिस्तान तथा पाकिस्तान से सभी हिन्दू भारत स्थानान्तरित हो जाएं, जिससे कोई झगड़ा और खून-खराबा न हो; लेकिन डॉ. अम्बेदकर की इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
 
भारत के अन्य कुछ राजनेताओं के समान ही डॉ. अम्बेदकर भी ऐसा सोचते थे कि एक बार भारत का विभाजन हो जाने के बाद देश की एकता को पुनः प्राप्त किया जा सकेगा। सन् 1946 के अन्तिम दिनों में उन्होंने कहा था, “मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती कि जिस लीग ने देश के विभाजन के लिए आन्दोलन किया है, कुछ दिन पश्चात् जब जाग्रति जाएगी, यह सोचना प्रारम्भ कर देगी कि हर प्राणी के लिए संगठित भारत ही अच्छा था।”” कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका यह विचार यथार्थवादिता से बहुत दूर था।
 
डॉ. अम्बेदकर द्वारा देशी रियासतों को जो परामर्श दिया गया, उससे भी यह स्पष्ट है कि डॉ. अम्बेदकर राजनीतिक एकीकरण के प्रबल समर्थक थे। सन् 1947 के मध्य में उन्होंने देशी रियासतों को परामर्श देते हुए
 
कहा था, "रियासतों को अपनी प्रभुसत्ता भारतीय संघ में मिला देनी चाहिए।" उन्होंने आगे कहा, "उनका स्वतन्त्र रहकर संयुक्त राष्ट्रसंघ से मान्यता तथा सुरक्षा प्राप्त कर लेने का विचार कल्पना लोक में रहने के समान है।""
 
डॉ. अम्बेदकर के सम्बन्ध में डॉ. वी. पी. वर्मा लिखते हैं. "इसमें सन्देह नहीं कि वे देशभक्त थे और राष्ट्रीय एकीकरण के विरोधी नहीं थे। कोई भी उनके इस विचार का विरोध नहीं कर सकता कि अछूतों के लिए हिन्दुत्व द्वारा उन पर लादी गई घोर अपमानजनक स्थितियों का विरोध और उनसे मुक्ति ब्रिटिश शासन से देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने की तुलना में भी अधिक आवश्यक कार्य था।
 
== इन्हें भी देखें ==