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== दुर्ग का नामकरण ==
कुछ इतिहासकार इसे रामायण काल का बताते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार 'मोहम्मद कासिम' के कथनानुसार इसका निर्माण देवगिरि यादव वंश के क्षत्रिय राजामराठा आशा अहीरशंकरराजे ने करवाया था। आशा अहीरथा।उनके के पास हज़ारों की संख्या में गाय थी। उनकी सुरक्षा हेतु ऐसे ही सुरक्षित स्थान की आवश्यकता थी। कहते हैं, वह इस स्थान पर पंद्रहवीं शताब्दी में आया था और इस स्थान पर ईट मिट्टी, चूना और पत्थरों की ऊंची दीवारों का निर्माण करवाया। किले में प्रवेश के लिए भारीभरकम दरवाजे का निर्माण कराया इस तरह आशा अहीर के नाम से यह क़िला असीरगढ़ नाम से प्रसिद्ध हो गया।
 
असीरगढ़ कुछ समय के लिए मराठा वंश के राजाओं के आधिपत्य में भी रहा था, जिसका उल्लेख यादव जाति के इतिहासकारों ने संदर्भ में किया हैं। कुछ समय बाद असीरगढ़ क़िले की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के एक सिपाही मलिक ख़ाँ के पुत्र नसीर ख़ाँ फ़ारूक़ी को असीरगढ़ की प्रसिद्धि ने प्रभावित किया। वह बुरहानपुर आया। उसने आशा अहीर से भेंट कर निवेदन किया कि "मेरे भाई और बलकाना के ज़मीदार मुझे परेशान करते रहते हैं, एवं मेरी जान के दुश्मन बने हुए हैं। इसलिए आप मेरी सहायता करें और मेरे परिवार के लोगों को इस सुरक्षित स्थान पर रहने की अनुमति दें, तो कृपा होगी"। आशामराठा अहीरराजा उदार व्यक्ति था, उसने नसीर ख़ाँ की बात पर विश्वास करके उसे क़िले में रहने की आज्ञा दे दी। नसीर ख़ाँ ने पहले तो कुछ डोलियों में महिलाओं और बच्चों को भिजवाया और कुछ में हथियारों से सुसज्जित सिपाही योद्धाओं को भेजा। आशा अहीर और उसके पुत्र स्वागत के लिए आये। जैसे ही डोलियों ने क़िले में प्रवेश किया, डोलियों में से निकलकर एकदम आशा अहीर और उसके पुत्रों पर हमला किया गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार देखते ही देखते नसीर ख़ाँ फ़ारूक़ी का इस क़िले पर अधिकार हो गया।
 
आदिलशाह फ़ारूक़ी के देहांत के बाद असीरगढ़ का क़िला बहादुरशाह के अधिकार में आ गया था। वह दूर दृष्टि वाला बादशाह नहीं था। उसने अपनी और क़िले की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी सम्राट अकबर असीरगढ़ की प्रसिद्धि सुनकर इस किले पर अपना अधिपत्य स्थापित करने के लिए व्याकुल हो रहा था। उसने दक्षिण की ओर पलायन किया। जैसे ही बहादुरशाह फ़ारूक़ी को इस बात की सूचना मिली, उसने अपनी सुरक्षा के लिए क़िले में ऐसी शक्तिशाली व्यवस्था की, कि दस वर्षों तक क़िला घिरा रहने पर भी बाहर से किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ी। सम्राट अकबर ने असीरगढ़ पर आक्रमण कराना प्रारंभ कर दिया था, एवं क़िले के सारे रास्ते बंद कर दिये थे। वह क़िले पर रात-दिन तोपों से गोलाबारी करने लगा था। इस प्रकार युद्ध का क्रम निरंतर चलता रहा, परंतु अकबर को हर बार असफलता का ही मुंह देखना पड़ा था। उसने अपने परामर्शदाताओं से विचार-विमर्श किया, तब यह निश्चित हुआ कि बहादुरशाह से बातचीत की जाए। संदेशवाहक द्वारा संदेश भेजा गया। साथ ही यह विश्वास भी दिलाया गया कि बहादुरशाह पर किसी भी प्रकार की आँच नहीं आएगी। बहादुरशाह ने सम्राट अकबर की बात पर विश्वास किया। वह उससे भेंट करने के लिए क़िले के बाहर आया। बहादुरशाह फ़ारूक़ी ने अभिवादन किया और तत्पश्चात बात प्रारंभ हुई। बातचीत चल ही रही थी कि एक सिपाही ने पीछे से बहादुरशाह पर हमला कर दिया और उसे जख्मी कर बंदी बना लिया। उसने अकबर से कहा "यह तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया" है। इस पर अकबर ने कहा कि "राजनीति में सब कुछ जायज है।" फिर अकबर ने राजनीतिक दांव-पेंच और छल-कपट से क़िले के क़िलेदारों और सिपाहियों का सोना, चाँदी, हीरे, मोतियों से मूंह भर दिया। इन लोभियों ने क़िले का द्वार खोल दिया। अकबर की फ़ौज क़िले में घुस गई। बहादुरशाह की सेना अकबर की सेना के सामने न टिक सकी। इस तरह देखते ही देखते 17 जनवरी सन् 1601 ई. को असीरगढ़ के क़िले पर अकबर को विजय प्राप्त हो गई और क़िले पर मुग़ल शासन का ध्वज फहराने लगा।