"लखमी चंद": अवतरणों में अंतर
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फौजी मेहर सिंह इनके शिष्य नहीं थे |
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पंडित लखमी चन्द ने अपने गुरुभाई जैलाल नदीपुर माजरावाले के साथ मिलकर मात्र 18-19 वर्ष की उम्र में ही अलग बेड़ा बनाया और ‘साँग’ मंचित करने लगे। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और महान आशा के बल पर उन्होंने एक वर्ष के अन्दर ही लोगों के बीच पुनः अपनी पकड़ बना ली। उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े-बड़े धुरन्धर कलाकार उनके बेड़े में शामिल होने लगे और पंडित लखमी चन्द देखते ही देखते ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात होते चले गए। ‘साँग’ के दौरान साज-आवाज-अन्दाज आदि किसी भी मामले में किसी तरह की ढील अथवा लापरवाही उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। उन्होंने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकार रखे और ‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलन्दियों पर पहुंचाया।
पंडित लखमीचन्द के शिष्यों की लंबी सूची है, जिन्होंने ‘साँग’ कला को समर्पित भाव से आगे बढ़ाया। उनके शिष्य पंडित माँगेराम (पाणची) ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर ‘साँग’ को एक नया आयाम दिया और अपने गुरु पंडित लखमी चन्द के बाद दूसरे स्थान पर ‘साँग’ कला में अपना नाम दर्ज करवाया। पंडित माँगेराम के अलावा पंडित रामचन्द्र, पंडित रत्तीराम, पंडित माईचन्द, पंडित सुलतान, पंडित चन्दन लाल, पंडित रामस्वरूप
पंडित लखमीचन्द ने अपने जीवन में लगभग दो दर्जन ‘साँगों’ की रचना की, जिनमें ‘नल-दमयन्ती’, ‘हरीशचन्द्र’, ‘ताराचन्द’, ‘चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘सत्यवान-सावित्री’, ‘चीरपर्व’, ‘पूर्ण भगत’, ‘मेनका-शकुन्तला’, ‘मीरा बाई’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘कीचक पर्व’, ‘पदमावत’, ‘गोपीचन्द’, ‘हीरामल जमाल’, ‘चन्द्र किरण’ ‘बीजा सौरठ’, ‘हीर-रांझा’, ‘ज्यानी चोर’, ‘सुलतान-निहालदे’, ‘राजाभोज-शरणदे’, ‘भूप पुरंजन’ आदि शामिल हैं। इनके अलावा उन्होंने दर्जनों भजनों की भी रचना की।
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