श्रीनिवासाचार्य के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म निम्बार्काचार्य के आश्रम में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ था। उनके पिता आचार्यपाद और माता लोकमती थीं, जो अपनी विद्वत्ता और धार्मिकता के लिए प्रसिद्ध थे। परंपरा के अनुसार, आचार्यपाद, जो अपने विद्वत्ता के माध्यम से विश्व विजय के उद्देश्य से यात्रा कर रहे थे, निम्बार्क के आश्रम में पहुँचे। सूर्यास्त निकट होने के कारण, उन्होंने किसी भी प्रकार का आतिथ्य स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर, निम्बार्क ने एक नीम के वृक्ष के ऊपर सूर्य को स्थिर कर दिया, जिससे आचार्यपाद और उनके साथियों को भोजन समाप्त करने का समय मिल गया। इस घटना से प्रभावित होकर, आचार्यपाद निम्बार्काचार्य के शिष्य बन गए और आश्रम में ही निवास करने लगे।
ऐसा कहा जाता है कि निम्बार्काचार्य ने व्यक्तिगत रूप से श्रीनिवासचार्य को शास्त्रों की शिक्षा दी, अपने ''वेदांत पारिजात-सौरभ'' को उन्हें समर्पित किया और उनके निर्देश के लिए दशाश्लोकी की रचना की। निम्बार्क ने उन्हें राधाष्टक और कृष्णाष्टक भी सिखाए-क्रमशः राधा और कृष्ण की स्तुति में आठ-आठ श्लोक। परंपरा के अनुसार, इन श्लोकों का श्री निम्बार्काचार्य जी के मार्गदर्शन में इनउच्चारण छंदोंकरने कापर पाठश्री करके,श्रीनिवासाचार्य श्रीनिवासचार्यजी को [[राधा कृष्ण|राधा और कृष्ण]] की दृष्टि प्रदान की गई थी।गई।
अपने शिष्य विश्वचार्यविश्वाचार्य के साथ, श्रीनिवासचार्यश्रीनिवासाचार्य ने बड़ेव्यापक पैमानेरूप परसे यात्रा की, [[वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव]] शिक्षाओंउपदेशों का प्रसारप्रचार किया और कथितबताया तौरजाता परहै कि उन्होंने कई लोगों को धर्मइस विश्वास में परिवर्तित किया।{{Sfn|Agrawal|2013|p=95}}{{Sfn|Bose|2004|p=978}}{{Sfn|Gupta|2000|p=2}}
== काल ==
=== ब्रह्म ===
श्रीनिवासचार्य ब्रह्म को दिव्य और शाश्वत दोनों रूपों में सार्वभौमिक आत्मा मानते हैं, जिन्हें [[कृष्ण|श्री कृष्ण]], [[विष्णु]], [[वासुदेव]], पुरुषोत्तम, [[नारायण]], परमात्मा, [[भगवान]] आदि जैसे विभिन्न नामों से संदर्भित किया जाता है।{{Sfn|Gupta|2000|p=29}}{{Sfn|Agrawal|2013|p=98}} इसीजिस तरहप्रकार, निम्बार्काचार्य, अपने वेदांतप्रसिद्ध कृति वेदान्त कामधेनु दशश्लोकी में, श्री कृष्ण को उनकी पत्नीअर्धांगिनी राधाश्री राधिका के साथ संदर्भित करतेकिया हैं।है।{{Sfn|Ramnarace|2014|p=191}}{{Sfn|Bhandarkar|2014|p=64}}{{Sfn|Agrawal|2013|p=92}}
ब्रह्म सर्वोच्च प्राणीसत्ता है, वह सभी शुभ गुणों का स्रोत है, और अथाहअसीमित गुणों कासे स्वामीयुक्त है। यह [[सार्वस्थ्य|सर्वव्यापी]], [[सार्वज्ञ्य|सर्वज्ञ]], सभी का स्वामी और सभी से बड़ामहान है।{{Sfn|Bose|2004|p=8}} ब्रह्मब्रह्मन के बराबरसमान या उससे बड़ाश्रेष्ठ कोई नहीं हो सकता। वह ब्रह्मांडसृष्टि केका निर्माणनिर्माता, रखरखावसृष्टि, पालन और विनाश का निर्माताकारण हैहै। {{Sfn|Gupta|2000|p=29}}{{Sfn|Bose|2004|p=23}}
श्रीनिवासाचार्य दावायह प्रतिपादित करते हैं कि ब्रह्म सगुण (गुणों के साथ) शगुन है। इसलिए, वे उन शास्त्रोंशास्त्रीय वचनों की व्याख्या भिन्न रूप से करते हैं जो ब्रह्म को ''निर्गुण'' (गुणों के रूप में वर्णित करते हैं (बिना किसी गुण के) जैसाबताते किहैं। उनका तर्क है कि ''निर्गुण'', जब ब्रह्म पर लागूनिर्गुण होताका हैप्रयोग, तो सभी गुणों के पूर्ण निषेधअभाव केको बजायनहीं बल्कि अशुभ गुणों की अनुपस्थिति का संकेतको देतादर्शाता है।<ref>{{Cite web|url=https://search.worldcat.org/en/title/695391405|title=Śaraṇaṁ prapadye : proceedings of the seminar on Śaraṇāgati {{!}} WorldCat.org|website=search.worldcat.org|page=98|language=en|access-date=2024-09-12}}</ref> इसी तरहप्रकार, निराकर''निराकार'' (रूपहीनआकार रहित) जैसे शब्दों को भी किसी अवांछनीय या अशुभ रूप की अनुपस्थिति कोके दर्शानेसंदर्भ के लिएमें समझा जाता है। श्रीनिवासचार्यश्रीनिवासाचार्य नेयह इसमानते विचार को बरकरार रखाथे कि श्री कृष्ण मेंश्रीकृष्ण सभी शुभ गुणगुणों से युक्त हैं और यहगुणात्मक किविभाजन, गुणजैसे पुण्य और दुर्गुणपाप, या शुभता और अशुभता, जैसेउन सापेक्षपर गुण उन्हें प्रभावितप्रभाव नहीं करते हैं।डालते।{{Sfn|Gupta|2000|p=32}}{{Sfn|Bose|2004|p=522,523}}{{Sfn|Ramnarace|2014|p=172}}
=== संबंध ===
श्रीनिवासाचार्यस्रीनिवासाचार्य के अनुसार, व्यक्तिगतजीवात्मा आत्माब्रह्म से न तो पूरी तरह से अलग हैभिन्न (अत्यांताअत्यंत भेद) है और न ही पूरी तरह से समान (अत्यांतअत्यंत अभेद) है, बल्कि भाग-संपूर्णइसे सादृश्यब्रह्म का उपयोगएक करतेभाग हुए(अंश-अंशी इसेभाव) ब्रह्ममाना कागया एकहै, हिस्साजो मानाभाग-सम्पूर्ण की उपमा का उपयोग जाताकरता है।{{Sfn|Agrawal|2013|p=112}}{{Sfn|Radhakrishnan|2011|p=417}} हालांकिहालाँकि, इस "भाग" की व्याख्याको एक शाब्दिकवास्तविक टुकड़ेखंड के रूप में नहीं की जानी चाहिए, बल्कि ब्राह्मणब्रह्म कीके ''शक्ति'' (शक्ति) कीके अभिव्यक्तिप्रकटीकरण के रूप में कीसमझा जानीजाना चाहिए।{{Sfn|Bose|2004|p=437}}
== संदर्भ ==
|