"कर्पूरमंजरी": अवतरणों में अंतर

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{{वार्ता शीर्षक}}'''कर्पूरमंजरी''' [[संस्कृत]] के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यमीमांसक [[राजशेखर]] द्वारा रचित [[प्राकृत]] का [[नाटक]] (सट्टक) है। प्राकृत भाषा की विशुद्ध साहित्यिक रचनाओं में इस कृति का विशिष्ट स्थान है।
 
==सट्टक==
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==ग्रन्थ परिचय==
[[प्राकृत भाषा]] मं पाँच सट्टकों (1. [[विलासवती]], 2. [[चंदलेहा]], 3. [[आनंदसुंदरी]], 4. [[सिंगारमंजरी]] और 5. [[कर्पूरमंजरी]]) की प्रसिद्धि है जिनमें विलासवती के अतिरिक्त सभी उपलब्ध हैं। इन सबमें कर्पूरमंजरी सर्वोत्कृष्ट और प्रौढ़ रचना है। राजशेखर का संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। वे सर्वभाषानिषणण कहे जाते थे। कर्पूरमंजरी की प्राकृत प्रौढ़ एवं प्रांजल है। पहले कहा जाता था कि इसका पद्यभाग शौरसेनी प्राकृत में हैं। पर डा. मनमोहन घोष ने इस मत को अमान्य सिद्ध किया है। इसमें मुख्यत: [[शौरसेनी]] का ही प्रयोग है। इसमें कवि ने स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, बसंततिलका आदि संस्कृत के छंदों का प्रौढ़ एवं सफल प्रयोग किया है। प्राकृत के छंद भी इसमें हैं। प्राकृत में इस सट्ट के लिखने का कारण कर्पूरमंजरी (1।7) में कवि ने बताया है कि संस्कृत बंध पुरुष होते हैं और प्राकृत भाषा के बंध सुकुमार। दोनों में पुरुष और ललना के समान अंतर है। प्राकृत भाषा के प्रौढ़ आद्यंत प्रयोग के कारण इस सट्टक में दिखाया गया है कि राजा चंद्रपाल ने कुंतलराजपुत्री कर्पूरमंजरी से विवाह करके चक्रवर्तीपद प्राप्त किया। ऐंद्रजालिक भैरवानंद ने इंद्रजाल द्वारा इसमें अद्भुत रस की योजना की गई है।
 
[[श्रेणी:साहित्य]]