"व्यवहार प्रक्रिया": अवतरणों में अंतर

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जन्म से ही पशुओं में अनेक प्रकार के जटिल कार्य करने की क्षमता होती है। ये कार्य जीवनयापन के निमित्त अत्यंत आवश्यक होते हैं; यथा शिशु का स्तनपान; संतान के हित पशु जाति का व्यवहार; चिड़िया की घोंसला बनाने की प्रवृत्ति; इत्यादि। ऐसी प्रवृत्तियाँ भी जन्मजात प्रकृति का अंग होती हैं। यदि चौपाए भागते-दौड़ते हैं, जो पक्षी उड़ते फिरते हैं। जहाँ मधुमक्खी सुगंधित पुष्पों पर मंडराती है वहाँ छिपकली कीट, फतिंगों का शिकार करती है। ऐसी प्राकृतिक जीवनोपयोगी वृत्तियों को सहज प्रवृत्ति, वृत्ति व्यवहार (इंस्टिंक्ट) अथवा जातिगत प्रकृति भी कह सकते हैं। पशुवर्ग का प्रत्येक आचरण, मूल रूप से उसकी विशेष प्रकृत प्रवृत्ति से विकसित होता है। एक बैल या उसका बछड़ा, घासफूस, पत्ते, तृण आदि से पेट भरता है। परंतु एक उच्च वर्ग का सभ्य आदमी तथा उसके बच्चे विशेष ढंग से पकवान बनवाकर, और उचित क्रम से असन वा बर्तन आदि सजाकर ही भोजन करते हैं। सभ्यता के कृत्रिम आवरण में हम प्रकृत मूल प्रवृत्ति की एक धुँधली सी झलक देख सकते हैं। अत: कहते हैं कि मूल प्रवृत्ति के क्षुद्र आधार पर ही उच्चाकांक्षी बृहत् सभ्यता की झाँकी खुलकर खेलती है। एक आंग्ल वैज्ञानिक प्रा. [[विलियम मैक्डूगल]] के विचार से प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के तीन अंग होते हैं-
 
* एक विशेष उद्दीपक परिस्थिति,
* एक विशिष्ट रसना अथवा संवेग, और
* एक विशिष्ट प्रतिक्रिया क्रम।
 
इनमें से संयोगवश उद्दीपक परिस्थिति तथा अनुकूल कार्य के क्रम में अत्यधिक परिवर्तन होता है। सामान्यत: कष्टप्रद अपमानजनक व दु:साध्य परिस्थिति में मनुष्य क्रोधित होकर प्रतिकार करता है। किंतु जहाँ बच्चा खिलौने से रुष्ट होकर उसे तोड़ने का प्रयास करता है, वहाँ एक वयस्क स्वदेशाभिमान के विरुद्ध विचार सुनकर घोर प्रतिकार करता है। जहाँ बच्चे का प्रतिकार लात, धूँसा तथा दाँत आदि का व्यवहार करता है, वहाँ वयस्क का क्रोध अपवाद, सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक हानि तथा अद्भुत भौतिक रासायनिक अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग करता है। किंतु क्रोध का अनुभव तो सब परिस्थितियों में एक समान रहता है। प्रा. मैक्डूगल ने पशु वर्ग के विकास, तथा संवेगों के निश्चित रूप की कसौटी से एक मूल प्रवृत्तियों की सूची भी बनाई है। संवेग अथवा भय, क्रोध आदि को ही मुख्य मानकर तदनुसार मूल प्रवृत्तियों का नाम, स्वभाव आदि का वर्णन किया है। उनकी सूची बहुत लोकप्रिय है, और उसकी ख्याति प्राय: अनेक आधुनिक समाजशास्त्रों में मिलती है। परंतु वर्तमानकाल में उसका मान कुछ घट गया है। डा. वाटसन ने अस्पताल में सद्य:जात शिशुओं की परीक्षा की तो उन्हें केवल क्रोध, भय और काम वृत्तियों का ही तथ्य मिला। एक जापानी वैज्ञानिक डा. कूओं ने यह पाया है कि सभी बिल्लियाँ न तो चूहों को प्रकृत स्वभाव से मारती हैं, और न ही उनकी हत्या करके खाती हैं। उचित सीख से तो बिल्लियों की मूल प्रवृत्ति में इतना अधिक विकार आ सकता है कि चूहेमार जाति की बिल्ली का बच्चा, बड़ा होकर भी चूहे से डरने लगता है। अत: अब ऐसा समझते हैं कि जो वर्णन मैक्डूगल ने किया है वह अत्यधिक सरल है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक स्थिति को सरलतम बनाकर समझने के निमित्त, मानसिक उद्देश्यपूर्ति की उलझन से बचकर, शरीर के सूक्ष्म क्रियाव्यवहार को ही मूल प्रकृति मानने लगे हैं। उन्हें दैहिक तंतुओं के मूल गुण प्रकृति मर्यादित तनाव (Tissue Tension) में ही मूल प्रवृत्ति का विश्वास होता है। जब उद्दीपक वा परिस्थिति विशेष के कारण देह के भिन्न तंतुओं (रेशों) में तनाव बढ़ता है, तो उस तनाव के घटाने के हिव एक मूल वृत्ति सजग हो जाती है, और इसकी प्रेरणा से जीव अनेक प्रकार की क्रियाएँ आरंभ करता है। जब उचित कार्य द्वारा उस दैहिक तंतु तनाव में यथेष्ट ढिलाव हो जाता है, तब तत्संबंधित मूल वृत्ति तथा उससे उत्पन्न प्रेरणा भी शांत हो जाती है। दैहिक तंतुओं का एक गुण और है कि विशेष क्रिया करते करते थक जाने पर विश्राम की प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक दैहिक तथा मनोदैहिक क्रिया में न्यूनाधिक थकान तथा विश्राम का धर्म देखा जाता है। अत: निद्रा को यह आहार, भय, मैथुन आदि से सूक्ष्म कूठरस्थ वृत्ति मानते हैं। अर्थात् आधुनिक मत केवल दो प्रकार की मूल प्रवृत्ति मानने का है-
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पशुवर्ग के आचरण को समझने के लिए एकमात्र उपाय, उनकी विभिन्न प्रेरणाओं का ज्ञान प्राप्त करना है। प्रेरणा और प्रवृत्ति के संबंध से कुछ विद्वान् मूल प्रवृत्ति से ही मूल प्रेरणा की उत्पत्ति मानते हैं। किंतु सभ्य जीवन में कृत्रिम वा सीखी हुई मनोवृत्तियों का भी उचित स्थान है। इस युग में धनोपार्जन का कार्य सबको ही करना पड़ता है। धन की इच्छा तो अपने इष्टसाधन का निमित्त मात्र है। वास्तविक प्रेरणा तो अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति, तथा उनके संभोग की मनोवृत्ति से होती है। अत: धनोपार्जन की प्रेरणा एक अर्जित अर्थात् आधुनिक सभ्यता में सीखी हुई प्रेरणा है। धन के अद्वितीय विनिमय गुण के कारण ही धन पाने की इच्छा उत्पन्न होती है। किंतु इस प्रेरणावश सामान्य धन कमाने में उतना ही लिपटा रहता है, जितना आहार विहार की प्रेरणाओं से। यदि किसी बच्चे में साइकिल सवारी की प्रेरणा है, तो वह कभी घुड़सवारी से शांत नहीं होती। दोनों ही कृत्रिम प्रेरणाएँ हैं, किंतु उन्हें निर्मूल कहना मिथ्या है। उक्त बच्चे के लिए साइकिल वैसा ही सबल व्यवहारप्रेरक है, जैसा स्वादिष्ठ भोजन। प्रेरणा को हम सरलता से दो वर्गों में बांट सकते हैं -
 
* आकर्षक वा सुखद प्रेरक की प्राप्ति के प्रति और
* अपकर्षक वा दु:खद प्रेरक से बचने के प्रति।
 
यदि पहले वर्ग की प्रेरणा को अनुकूल वा धनात्मक (+) कहें, तो दूसरे वर्ग की प्रेरणा को प्रतिकूल वा ऋणात्मक (-) कह सकते हैं। एक में व्यक्ति प्रेरक के लोभ से अग्रसर होता है और दूसरी में व्यक्ति प्रस्तुत प्रेरक से भयभीत होकर पीछे हटता है, या विमुख होकर दूर भागता है, अथवा रक्षा का अन्य उपाय करता है। यदि पहली में प्रवृत्ति है तो दूसरी में निवृत्ति।
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यह तो दैहिक तंतुओं का भी नियम है कि वे सतत कार्य करते रहने से थक जाते हैं। ज्ञानेंद्रियाँ भी थककर संज्ञाशून्य हो जाती हैं। बहुत मिठाई खाने से मिठास का अनुभव सुखहीन वा फीका पड़ जाता है। धूप जलाने पर उसकी गंध तो कुछ समय तक हम अनुभव करते हैं किंतु थोड़ी देर में वह सुगंध प्राय: लुप्त हो जाती है। यही दशा दैनिक संघर्ष द्वारा परिस्थिति के दु:खद अंश की होती है। कह सकते हैं कि इस चेतनालोप द्वारा हम शोकमुक्त होकर समाज के साथ समायोजित होते हैं। परंतु ये लुप्त प्रेरणाएँ अज्ञात मानस अवस्था में गुप्त रूप से बनी रहती हैं और उचित अवसर पाकर छद्म रूप से ज्ञात मन द्वारा इष्टपूर्ति का प्रयास करती हैं।
 
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post.html क्षोभनशीलता और संवेदिता] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_13.html व्यवहार के सहज रूप और सहजवृत्तियां] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html अनुकूलित संबंध और सहज क्रियाएं] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_28.html जीवों द्वारा उपार्जित व्यवहार के रूप] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/09/blog-post.html पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - १] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
*[http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/09/blog-post_18.html पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - २] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
 
[[श्रेणी:मनोविज्ञान]]
[[श्रेणी:उत्तम लेख]]
 
[[an:Comportamiento]]