"भारतीय लिपियाँ": अवतरणों में अंतर

पंक्ति 10:
*सबमें स्वर, व्यंजन, मात्रा का कांसेप्ट है।
*सबमें वर्णों की संख्या लगभग समान है।
 
==भारतीय लिपियों की विशेषता==
 
===वर्णात्मक चिह्नावली===
भारतीय भाषाओं में संगणक पर कार्य करने के लिये उनकी लिपियों की बुनियादी
समझ आवश्यक है। वर्णंमाला में दो प्रकार के वर्ण होते हैं - स्वर व
व्यंजन। व्यंजन वे वर्ण हैं जिन्हें एक अकेली इकाई के रूप में बिना स्वर की
सहायता से उच्चारित नहीं किया जा सकता, जबकि स्वरों का उच्चारण स्वतन्त्र
रूप से या व्यंजन के साथ जोड़कर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि हम `क'
वर्ण का अकेले उच्चारण करें तो उसमें व्यंजन ध्वनि `क्' के साथ स्वर ध्वनि
`अ' अवश्य होगी। जबकि स्वर ध्वनि `अ' का उच्चारण स्वतन्त्र रूप से किया जा
सकता है । बोलते समय हम वाक्य या शब्द में आनेवाली ध्वनियों को श्रृंखला
रूप में उच्चारित करते हैं। इन उच्चरित ध्वनियों को यदि हम व्यंजन
व स्वर वर्णों की सहायता से क्रमबद्ध तरीके से लिखें तो हिन्दी शब्द `कमला'
कुछ इसप्रकार से लिखा जाएगा :
 
; क् + अ + म् + अ + ल् + आ
 
यहाँ पर, प्रत्येक व्यंजन एवं स्वर को अलग अलग लिखा गया है। इस लिखने
के तरीके में विशेषता यह है कि इसमें वर्णाक्षर व्यंजन और स्वर उच्चारण
क्रम के अनुसार लिखे गये है।
 
जब शब्द में उच्चारित ध्वनियों को वर्णों द्वारा उच्चारण क्रम में लिखा
जाता है तब इस पद्धति को वर्णात्मक चिह्नावली (alphabetical notation)
कहते हैं।
 
वर्णात्मक चिह्नावली समझने में सरल होती है तथा भाषा को लिपिबद्ध करने की
दिशा में इसे पहला स्वाभाविक कदम माना जा सकता है। यह टंकण (typing) के
लिये भी उपयुक्त है। किन्तु इसकी कमी यह है कि इसमें लिखना ज्यादा पड़ता
है जिसके कारण समय और कागज़ दोनों ही का ज्यादा खर्च होता है। अंग्रेजी की
रोमन लिपि एक वर्णात्मक चिह्नावली है। अंग्रेज़ी में 'कमला' ध्वनिक्रम इस
प्रकार लिखा जाएगा :
 
k a m a l a
 
(अंग्रेजी में वर्ण व ध्वनि में अभेद संबंध न होने से, जो
कठिनाइयाँ आती है, वह एक पृथक विषय है। चूंकि उसका संबंध वर्णात्मक
चिह्नावली से नहीं है अतः उसपर हम यहाँ चर्चा नहीं करेंगे.)
 
===अक्षरात्मक चिह्नावली (syllabic notation)===
वर्णात्मक चिह्नावली की उपरोक्त कमियों को दूर करने के लिये भारतीय
भाषाओं में अक्षरात्मक चिह्नावली (syllabic notation) का विकास किया
गया है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक स्वरान्त syllable के लिये एक चिह्न का
उपयोग होता है जिसे अक्षर कहते हैं। स्वरान्त syllable से अर्थ है शून्य ,
एक या उससे अधिक व्यंजनों के बाद स्वर से मिलकर बनने वाला वर्ण-क्रम।
उदाहरण के लिये, निम्नलिखित वर्ण-क्रम स्वरांत-syllable हैं:-
 
0 + अ = अ
 
क् + अ = क
 
ख् + य् + अ = ख्य
 
 
शब्द के अन्त में, अन्तिम व्यंजनों के क्रम में स्वर न होने पर भी
उसे अक्षर के रूप में लिख सकते हैं; उदाहरणार्थ हिन्दी में प्रायः शब्द
के अन्तिम व्यंजन के स्वर का उच्चारण नहीं होता परन्तु लिखित रूप में वहाँ
पूर्णाक्षर का प्रयोग होता है। जैसे : कमल।
 
अतः, अक्षर एक या अधिक वर्णों को प्रदर्शित करता है।
 
अक्षर की संरचना में एक अहम् बात यह है कि अक्षर का आकार व्यंजन व
स्वरों की मात्राओं के आकार से मिलकर बनता है (क+ई=की)। अतः इन्हें सीखना आसान है।
(कुछ विशेष अक्षरों को छोड़कर, जैसे 'क्ष')। वर्णात्मक व अक्षरात्मक
चिह्नावली के कुछ सरल उदाहरण हैं:-
 
वर्णात्मक चिह्नावली अक्षरात्मक चिह्नावली
क् + अ = क
म् + अ = म
 
इसमें मुख्य बात यह है कि व्यंजन के साथ `अ' स्वर को जोड़ कर एक "सरल"
अक्षर बना दिया गया। उदाहरणार्थ : यहाँ `क' प्रतीक है एक सरल अक्षर का
जो 'क्' व्यंजन व अकारान्त स्वर के मिलने से बना है (क् + अ = क)।
इस चिह्नावली के अन्तर्गत व्यंजनों में स्वरों के योजन के लिये मात्राओं
का विकास हुआ। यदि व्यंजन के बाद `अ' के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर आता है तो
अक्षर पर एक छोटा सा विशेष चिह्न लगा दिया जाता है जो उस स्वर का द्योतक
है। इसी चिह्न को उस स्वर की मात्रा कहते हैं, जैसे `उ' की मात्रा `उ',
`ए' की मात्रा `ए', `इ' की मात्रा `इ' इत्यादि। जब व्यंजन के बाद `अ'
स्वर आता है तो किसी भी अतिरिक्त निशान की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरणार्थ,
 
वर्णात्मक चिह्नावली अक्षरात्मक चिह्नावली
(मात्रा अलग से प्रदर्शित)
की: क् + ई = क + ई
कु: क् + उ = क + उ
क: क् + अ = क
कई: क् + अ + ई = क + ई
 
उपरोक्त में `की' व `कई' के अन्तर पर गौर कीजिए ।
`की' में `क' पर `ई' स्वर की मात्रा है जबकि `कई' में `क' और `ई' अक्षर
क्रमबद्ध रूप में हैं । अतः, मात्राओं को अक्षर पर अंकित किया जाता है चाहे
अक्षर सरल हो या संयुक्त। हर मात्रा को लगाने के लिये विशिष्ट स्थान हैं,
जो कि अक्षर के चारों ओर हैं। जैसे:-
 
3 (ए,ऐ)
|-------------|
1 | अक्षर | 2
(इ) | | (आ,ई,ओ,औ)
|-------------|
4 (उ,ऊ)
 
 
अक्षर के बायीँ ओर 'इ' की मात्रा आती है, इसी प्रकार से 'ए' व 'ऐ'
मात्राएँ ऊपर आती हैं, 'उ' व 'ऊ' नीचे तथा अन्य दायीं ओर । यह तरीका,
हस्त-लेखन के लिये अति लाभप्रद है। परंतु टंकण की दृष्टि से कुछ कठिनाइयाँ
आती हैं, जिनका उल्लेख हम बाद में करेंगे। इतना करने से लिखना बहुत सरल व
संक्षिप्त (compact) हो जाता है। हाँ, सीखने की दृष्टि से थोडी सी मेहनत
ज्यादा है, चूंकि अब मात्राओं को भी सीखना पड़ता है।
 
(संयुक्ताक्षरों के प्रयोग से लिपि और अधिक संक्षिप्त हो जाती है,
परन्तु साथ ही उनको भी अलग चिह्नों के रूप में सीखना पड़ता है। इस पर चर्चा
बाद में.)
 
इस आविष्कार का एक परिणाम यह है कि एक सरल अक्षर में 'अ' की अनुपस्थिति
प्रदर्शित करने के लिये एक विशेष मात्रा लगानी पड़ती है, जिसे हम हलन्त
कहते है। उदाहरणार्थ, `क्या' शब्द में `क' अक्षर पर हलन्त लगाना पड़ता है:
 
वर्णात्मक चिह्नावली अक्षरात्मक चिह्नावली
(मात्रा अलग से प्रदर्शित)
क्या: क् + य् + आ = क +_ + य + आ
 
 
===संयुक्ताक्षर===
दूसरी मुख्य बात यह है कि जब किसी शब्द में व्यंजन एक के बाद एक आते हैं
तब उन्हें एक साथ जोड़कर लिखा जाता है जिसे संयुक्ताक्षर भी कहते है। आगे
आनेवाले स्वर के अनुरूप मात्रा इसी संयुक्ताक्षर पर लगती है। उदाहरणार्थ,
`क्या' शब्द में शुद्ध व्यंजन `क्' तथा अक्षर `य' है जिन्हें क्रम से जोड़कर
`क्य' संयुक्ताक्षर बनाया जाता है। तत्पश्चात साधारण नियम के अनुसार उस पर
`आ' की मात्रा लगाई जाती है।
 
वर्णात्मक चिह्नावली अक्षरात्मक चिह्नावली
(संयुक्ताक्षर सहित)
क्या: क् + य् + आ = क्य् + आ = क्य + आ
 
ऐतिहासिक दृष्टि से इस तरह की यौगिक (compositional) syllabic-चिह्नावली,
एक क्रान्ति से कम नहीं है। यही हमारी परिचित आधुनिक लिपि है।
 
===संयुक्ताक्षर व मात्राएँ===
अक्षरात्मक चिह्नावली में मात्रा लगाने का नियम सरल व संयुक्त दोनों ही
प्रकार के अक्षरों पर एक समान लागू होता है। मतलब यह है कि अक्षर चाहे
सरल (उदाहरण के लिए `क') हो या संयुक्त (उदाहरण के लिए `स्म'), मात्रा
ऊपर दिए गए नियमानुसार ही लगेगी। यानि `इ' की मात्रा नियमानुसार बायीं
ओर लगती है तो वह दोनो प्रकार के अक्षरों में बायीं ओर ही लगेगी, जैसे:-
क+इ=क+इ=कि । और यही नियम संयुक्ताक्षर पर भी लागू होता है, जिस कारणवश `इ'
की मात्रा संयुक्ताक्षर के बायीं ओर लिखी जाएगी। नीचे दिये संस्कृत शब्द
`तस्मिन' में संयुक्ताक्षर `स्मि' पर ध्यान दीजिये:-
 
तस्मिन् :
= त् + अ + स् + म् + इ + न् (वर्णात्मक चिह्नावली)
= त + स्म + इ + न् (अक्षरात्मक चिह्नावली - मात्रा अलग से)
= त + स्मि + न् (अक्षरात्मक चिह्नावली)
 
'इ' मात्रा 'म' के बायीं ओर न होकर , संयुक्ताक्षर 'स्म' के बायीं ओर
लगती है, जो नियमानुसार है। (इस नियम को ठीक से न समझने के कारण कहीं
कहीं पर यह पढने को मिलता है कि हमारी भाषाओँ की लिपियाँ नियमानुसार नहीँ
हैं। यह बात सही नहीं है, तथा अज्ञानतावश कही जाती है.)
 
मात्राएँ लगाने के नियम के अन्तर्गत प्रत्येक अक्षर को एक चिह्नात्मक
इकाई के रूप में लिया जाता है। अक्षर अपने आप में स्वर के बिना अधूरा
है। सरल अक्षर मात्र एक स्वर का (अ), अथवा एक व्यंजन + एक स्वर का योग
(क्+अ) होता है और संयुक्ताक्षर एक से अधिक व्यंजन व एक स्वर(स्+म्+अ)
का योग होता है।
 
------------------------------------------------------------
I। मात्राओं को लगाने का नियम:-
हर मात्रा को अक्षर पर लगाने का एक विशिष्ट स्थान होता है, जो अक्षर
के इर्द-गिर्द होता है:- बायेँ, दायेँ, ऊपर, व नीचे। यह नियम सभी अक्षरों
पर लागू होता है, अक्षर सरल हों या संयुक्त।
------------------------------------------------------------
 
मात्राओं को लगाने के नियमों के समान ही व्यंजनों को जोड़कर संयुक्ताक्षर
बनाने के लिये भी सरल किन्तु विशेष नियम हैं:- व्यंजनों को बायें से दायें,
या ऊपर से नीचे की ओर जोडा जाता है। जिसमें क्रम में पहला व्यंजन बायीं ओर
या ऊपर की ओर होता है। बायें से दायें के उदाहरण हम देख ही चुके हैं जैसे,
'क्य','स्म' इत्यादि, ऊपर-नीचे जोड़ने के उदाहरण नीचे दिये हुए हैं:-
 
सिद्ध:- स् + इ + द् + ध् + अ = स + इ + द्ध
= सि + द्ध
विट्ठल:- व् + इ + ट् + ठ् + अ + ल् + अ = व + इ + ट्ठ + ल
= वि + ट्ठ + ल
द्वादश:- द् + व् + आ + द् + अ + श् + अ = द्वा + द + श
पद्मनाभ:- प् + अ + द् + म् + अ + न् + आ + भ् + अ = प + द्म + ना + भ
 
उपरोक्त में चूँकि 'द्' के पश्चात् 'ध्' आता है, अतः 'द' ऊपर व 'ध'
नीचे लिखा जाता है। (छपाई में कभी कभी 'ध', 'द' के बायीं ओर प्रतीत होता
है, इससे भ्रम हो सकता है कि भारतीय लिपियाँ नियमानुसार नहीं हैं। परंतु यह
समझ में आते ही कि अक्षर ऊपर से नीचे निश्चित नियम से लिखे जाते है,
यह भ्रम दूर हो जाता है.)
 
संयुक्ताक्षर बनाते समय, द्वितीय व्यंजन के चिह्न को दायीं ओर लिखा जाए या
नीचे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उन व्यंजनों का रूप कैसा है। रूप
के अनुसार ही उन्हें उचित तरीके से जोड़ने में आसानी होती है। यदि दोनों
व्यंजनों के चिह्नों में खडी-पाई (आ) नहीं है तो द्वितीय को प्रथम के नीचे
लिखा जाता है, जैसे 'ट्ठ'। (यदि किसी फौन्ट में, ऊपर-नीचे लिखने के
सीमित चिह्न हैं, तो उनमें हलन्त की सहायता ली जाती है.)
 
------------------------------------------------------------
II संयुक्ताक्षर बनाने का नियम:-
दो व्यंजनों को जोड़कर संयुक्ताक्षर बनाने का नियम है:- बायें से
दायें, व ऊपर से नीचे। कौनसा तरीका काम में लिया जाय, यह व्यंजनों के
रूप पर निर्भर करता है।
------------------------------------------------------------
 
 
=== 'र' के लिये विशेष नियम===
 
`र' के साथ कुछ विशेष नियम है जो संक्षिप्तता की दृष्टि से बनाये गये
हैं। यह नियम संयुक्ताक्षर के क्रम में `र' के स्थान पर निर्भर करते हैं।
अगर `र' दूसरे स्थान पर है और उसके पहले कोई व्यंजन तथा बाद में स्वर है
तो संयुक्ताक्षर बनाते समय `र' के लिए पहले व्यंजन के नीचे एक विशेष चिह्न
लगा दिया जाता है:-
 
ट्रक: ट् + र् + अ + क् + अ = ट्र + क
प्रकार: प् + र् + अ + क् + आ + र् + अ = प्र + का + र
 
इसी प्रकार यदि `र' के बाद व्यंजन है तो उस व्यंजन के ऊपर एक विशेष
चिह्न लगा दिया जाता है:
 
पर्व: प् + अ + र् + व् + अ = प + र्व
 
अतः संयुक्ताक्षर में `र' व्यंजनक्रम में पहले होने पर ऊपर तथा बाद में
होने पर नीचे आता है।
 
===अनुस्वार का प्रयोग===
 
हमारी लिपि में एक और तरीका है संक्षिप्तता से लिखने का:- यह है अनुस्वार
का प्रयोग। प्रत्येक व्यंजन के वर्ग में अन्तिम व्यंजन के लिये, अनुस्वार
(ं) का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे:-
 
; अन्तिम = अंतिम
 
व्यंजनों की नासिक्यता (nasalization) के लिये अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता
है तथा स्वरों की नासिक्यता के लिए अनुनासिक (ँ) का प्रयोग होता है।
उदाहरण के लिए:
 
ह् + अँ + स् + अ = हँस , और
ह् + अ + न् + स् + अ = हन्स =हंस
 
इनमें चन्द्रबिन्दु (ँ) तो स्वरों की नासिक्यता को चिह्नित करता है परन्तु
बिन्दु (ं) का एकमात्र उद्देश्य लिपि में संक्षिप्तता लाना है।
 
 
===अन्य बातें===
 
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि भाषा की दृष्टि से शुद्ध व्यंजन व शुद्ध स्वर
के माध्यम से ही विश्लेषण करना सही है। ISCII मानकानुसार कम्प्यूटर में
आन्तरिक तौर पर अक्षरात्मक चिह्नावली में ही लेख रखा जाता है। उसमें
मात्राएँ भी शामिल हैं। परंतु भाषा संसाधन के लिये, उनको हटाकर शुद्ध
व्यंजन व स्वर में आसानी से परिवर्तित किया जा सकता है।
 
अनुस्वार की तरह के नियम अन्य भारतीय भाषाओं में भी हैं। एक सी वर्णं
व्यवस्था तथा अक्षरात्मक लिपि होने से सभी भारतीय भाषाओं में एक समानता
है। किसी एक भाषा की लिपि का कम्प्यूटरीकरण होने पर अन्य भारतीय भाषाओं
का कम्प्यूटरीकरण आसान है। जो तकनीक एक पर लगाई गई हो, वह दूसरी भाषाओं
के कम्प्यूटरीकरण में भी काम में आ सकती है। जैसे जिस्ट प्रौद्योगिकी
कम्प्यूटर पर सभी भारतीय भाषाओं की लिपियों में एक साथ कार्य करती है।
 
कम्प्यूटर में टंकण (type) करने के लिये कुंजीपटल (keyboard) का प्रयोग
किया जाता है, जिसका design हमारी उँगलियों के आकार व हाथ की लंबाई पर
निर्भर करता है। अतः कुंजियों की बनावट व आकार में अत्यधिक परिवर्तन नही
हो सकता। ज्यादा कुंजियाँ होने पर कुंजियों को ढूंढना व याद रखना कठिन
हो जाता है। अतः एक संयुक्ताक्षर का एक ही कुंजी से टंकण करना मुश्किल
व अलाभप्रद है। कम्प्यूटर के आने से पूर्व बने मशीनी टाइपराइटर पर टंकण
करने में अनेकों कठिनाइयाँ आती थीं .पहली तो यह कि यदि हम चाहते हैं कि
टाइप की हुई सामग्री अक्षरात्मक-चिह्नावली में दिखे, तो उसी चिह्नावली
में उसे टाइप करना अनिवार्य है। अतः संयुक्ताक्षर सहित अनेकों चिह्नों को
कुंजीपटल पर याद रखना पड़ता था। दूसरा, चूँकि मात्राएँ अक्षर के चारों ओर
आ सकती हैं, अतः ऐसी मशीन बनाना तो जटिल कार्य था ही, साथ ही output सुंदर
नहीं दिखता था। इन सब को देखते हुए कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी में यह सोचा गया
कि अगर हम टंकण तो वर्णात्मक चिह्नावली में कर सकें, पर कम्प्यूटर screen
पर परिचित अक्षरात्मक चिह्नावली दीख पडे तो अच्छा होगा। इसी को आधार मानकर
इस प्रौद्योगिकी का सफल विकास किया गया है.ये सब कमियाँ कम्प्यूटर के आगमन
से सामाप्त हो गई हैं। परंतु यह आवश्यक है कि हम वर्णात्मक व अक्षरात्मक
चिह्नावली में पारस्परिक संबंध को समझें।
 
मन में यह प्रश्न भी उठ सकता है कि टंकण के लिए यदि वर्णात्मक लिपि को
मान लिया जाता तो ये सारी परेशानियाँ दूर हो जातीं। परंतु चूँकि हस्त-
लेखन में अक्षरात्मक लिपि प्रचलित थी, अतः वर्णात्मक लिपि का उपयोग
करने का सोचा नहीं गया। यह एक उदाहरण है, जहाँ एक बेहतर विज्ञान होने
के कारण, प्रौद्योगिकी का उपयोग नहीं किया गया क्योंकि वह अभी उस स्तर
पर नहीं पहुँची थी। शायद इसी कारणवश छापाखाने का भी प्रचलन उतना
नहीं हुआ जितना होना चाहिए था।
 
इस प्रौद्योगिकी को उपयोग में न लाने से जो हमें हानि हुई वह सर्व-विदित
है। शायद यह भी एक कारण था कि यूरोप हम से विज्ञान में आगे निकल गया।
इन बातों के बारे में अब केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है, निश्चित
रूप से कुछ कहना कठिन है।
 
===एक और पहलू===
प्रश्न उठ सकता है कि यदि अक्षर शुद्ध व्यंजन व स्वर का योग है तो मात्रा
क्या है? म् + इ = मि क्यों होता है `मि_' क्यों नहीं ? इनका उत्तर एक
गणितीय समीकरण के रूप में नीचे दिया जा रहा है।
 
 
;मात्रा व स्वर में गणितीय संबंध
 
यहाँ मात्रा व स्वर चिह्नों के संबंध को हम एक गणितीय समीकरण के रूप
में देखेंगे।
 
;स्वर का अपनी मात्राओं से संबंध
 
मात्रा सहित व मात्रा रहित चिह्नावलियों के कई उदाहरण हम देख चुके हैं।
जैसे:-
 
वर्णात्मक चिह्नावली अक्षरात्मक चिह्नावली
(मात्रा अलग से प्रदर्शित)
 
क्_ + इ = क + इ -- (1)
(1.बाएं) (1.दाएं)
 
हमें यह भी पता है कि 'क' को शुद्ध व्यंजन व स्वर में तोडा जा सकता है:-
 
क = क् + अ -- (2)
 
उपरोक्त 'क' के मूल्य को समीकरण (1) में दाहिने ओर रखा जा सकता है:-
 
क्_ + इ = क्_ + अ + इ -- (3)
(1.बाएं) के समान (2) तथा (1.दाएं) के सम्मिश्रण से
 
[उपरोक्त कुछ इस प्रकार है जैसा कि निम्नलिखित गणित के उदाहरण से
स्पष्ट हो जाएगा:-
8 + 3 = 9 + 2 -- (1')
9 = 8 + 1 -- (2')
तत्पश्चात्, समीकरण (2') के अनुसार 9 के मूल्य को समीकरण (1') में
रखने से:-
8 + 3 = 8 + 1 + 2 -- (3')
(1'.बाएं) के समान (2') तथा (1'.दाएं) के सम्मिश्रण से
दोनों ओर से यदि हम 8 को घटा दें तो पाएंगे:-
3 = 1 + 2.]
 
इसी प्रकार से, समीकरण (3) के दोनों ओर से 'क्' को घटा सकते हैं,
ठीक वैसे ही, जैसे गणित के (3') उदाहरण मे 8 को घटा दिया गया है।
तथा दोनों ओर से `क्' को हटाने पर हम पाते है:-
 
इ = अ + इ -- (अ)
 
उपरोक्त एक महत्त्वपूर्ण समीकरण है, जो 'इ' स्वर का मूल्य अपनी
मात्रा (इ) के रूप में देता है। (इसको निकालने में `क' के स्थान पर
किसी भी व्यंजन का प्रयोग किया जा सकता था.)
 
 
;मात्रा का अपने स्वर से संबंध
 
उपरोक्त में, 'इ' स्वर का मूल्य मात्राओं में लिखा गया है। अब हम मात्रा
के मूल्य को स्वर में प्रदर्शित करेंगें।
 
पहले देखतें हैं गणित के समीकरण को। समीकरण (1') के बांए हिस्से में
यदि हम शून्य जोड दें तो हमें मिलता है:-
; 8 + 0 + 3 = 9 + 2 -- (4')
 
अब यदि 0 के स्थान पर रखें:- 1 + (-1) तो:-
8 + [1 + (-1)] + 3 = 9 + 2
या, (8+1) + (-1) + 3 = 9 + 2
या, 9 + (-1) + 3 = 9 + 2
या, दोनों ओर से '9' घटाने पर,
(-1) + 3 = 2
 
इसी प्रकार से अब देखते हैं कि मात्रा का अपने स्वर से क्या संबंध
है। इसका पता लगाने के लिए हमें लिपि के शून्य की आवश्यकता होगी। हम
जानते हैं कि हलंत (_) 'अ' को घटाता है, अर्थात्:-
 
अ + _ = 0 (शून्य)
 
अब समीकरण (1) में बायी ओर के हिस्से में `क्' के बाद शून्य जोडने से हमें
मिलता है:-
 
क्_ + 0 + इ = क + इ -- (4)
या, क्_ + (अ + _) + इ = क + इ
या, (क्_ + अ) + _ + इ = क + इ
या, क + _ + इ = क + इ
 
दोनों ओर से 'क' घटाने पर,
_ + इ = इ
 
या, इसे ऐसे भी लिख सकते हैं:-
इ = _ + इ -- (आ)
 
यह समीकरण प्रदर्शित करता है कि मात्रा `इ' का मूल्य है हलन्त जमा 'इ'।
अर्थात्, 'इ' में हलन्त निहित है तथा वह अपने से पूर्व अक्षर में से `अ'
को घटाता है।
 
 
;अन्य मात्राएं
 
ऊपर जो बात `इ' के लिये कही गई है, वैसी ही बात अन्य मात्राओं के लिये
भी लागू होती है। अतः :-
 
उ = _ + उ
ऊ = _ + ऊ इत्यादि।
 
 
=== निष्कर्ष===
हलन्त एक प्रकार से एक ऋणात्मक (negative) वस्तु है, ठीक वैसे ही जैसे
कि ऋणात्मक संख्या (negative number)। जिस प्रकार ऋणात्मक संख्या को
एक धनात्मक संख्या में जोडने पर धनात्मक संख्या का मान कम हो जाता है,
उसी प्रकार से हलन्त को अपने से पूर्व अक्षर में जोडने पर उसमें से 'अ'
घट जाता है। हलन्त का प्रयोग, भारतीय भाषाओं की विशेषता है। हलन्त का
आविष्कार भारत में हुआ, तथा कदाचित् इस प्रकार की अवधारणा अन्य किसी
भाषा में नहीं है।
 
भारत में भाषा पर विशेष रूप से कार्य हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे कि यूनान
(Greece) में ज्योमिति पर। भारत ने विश्व को शून्य कि अवधारणा दी,
तथा इस सबको देखते हुए लगता है कि यह आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि
भारत में शून्य की अवधारणा भाषा में विकसित होकर गणित में गई हो।
 
 
==इन्हें भी देखें==