"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर

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संस्कृत कोशों का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विषय को सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है । इस संबंध में विद्वानों ने 'अमरसिंह' द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय 'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश) को केंद्र में रखकर उसी आधार पर संस्कृत कोशों को तीन कालखंडों में विभाजित किया है-
*(१) अमरकोश-पूर्ववर्ती संस्कृत कोश,
*(२) अमरकोशकाल तथा
*(३) अमरकोशपरवर्ती संस्कृत कोश ।
 
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'सर्वानंद' ने 'अमरकोश की अपनी टीका में बताया है कि 'व्याडि' और 'वररुचि' आदि के कोशों में केवल लिंगों का संग्रह है और 'त्रिकांड' एवं 'उत्पलिनी' में केवल शब्दों का । परंतु 'अमरकोश' में दोनों की विशेषताएँ एकत्र संमिलित हैं । इस प्रकार 'व्याडि', 'वररुचि' (या कात्य) 'भागुरि' और 'धन्वंतरि' आदि अनेक कोशकारों का क्षीरस्वामी ने अमर—पूर्ववर्ती कोशकारों और 'त्रिकांड', 'उत्पलिनी', 'रत्नकोश' और 'माला' आदि अमर—पूर्ववर्ती कोशग्रोथों का परिचय दिया है ।
 
 
==अमरकोशकाल (रचनाकाल—लगभग चौथी पाँचवी शती)==
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यह कोशग्रंथ मुख्यतः पर्यायवाची ही है । फिर भी तृतीय कांड के द्वार, जिसे हम आधुनिक पदावली में परिशिष्टांश कह सकते हैं, इस कोश की पूर्ण और व्यापक तथा उपयोगी बनाया गया है ।
 
 
==अमरकोशपरवर्ती काल के संस्कृत कोश==
अमरपरवर्ती काल में संस्कृत कोशों की अनेक विधाएँ लक्षित होती हैं -
*कुछ कोश मुख्यतः केवल नानार्थ कोश के रूप में हमारे सामने आते है,
*कुछ को समानार्थक शब्दकोश और
*कुछ को अशंतः पर्यायवाची कोश कह सकते हैं ।
 
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मेदीनी के अनंतर के लघुकोश न तो बारबार उद्धृत् हुए है और न पूर्वकोशों के समान प्रमाणरूप में मान्य है । परंतु इनमें कुछ ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोशों का उपयोग हुआ है जो आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में अंशतः उपलब्ध हैं ।
 
*(१) 'जिनभद्र सुरि' का कोश है अपवर्गनाममाला— जिसका नाम 'पंचवर्गपरिहारनाममाला भी है । इनका काल संभवतः १२ वीं शताब्दी के आस पास है ।
*(२) 'शब्दरत्नप्रदीप'—संभवतः यह कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच कांडोवाला कोश है । (समय लगभग १२९५ ई०)।
*(३) महीप का शब्दरत्नाकर—कोश है जिसके नानार्थभाव का शीर्षक है—अनेकार्थ या नानार्थतिलक; समय है लगभग १३७४ ई०।
*(४) पद्यगदत्त के कोश का नाम 'भूरिक- प्रयोग है । इसका समय लगभग वही है । इस कोश का पर्यायवाची भाग छोटा है और नानार्थ भाग बड़ा। *(५) रामेश्वर शर्मा की शब्दमाला भी ऐसी ही कृति है ।
*(६) १४ वी शताब्दी के विजयनगर के राजा हरिहरगिरि की राजसभा में भास्कर अथवा दंमडाधिनाथ थे । उन्होने नानार्थरत्नमाला बनाया ।
*(७) अभिधानतंत्र का निर्माण जटाधर ने किया ।
*(८) 'अनेकार्थ' या नानार्थकमंजरी'— 'नामांगदसिंह' का लघु नानार्थकारी है ।
*(९) रूपचंद्र की रूपमंजरी—नाममाला का समय १६ वी शती है ।
*(१०) शारदीय नाममाला 'हर्षकीर्ति' कृत है (१६२४ ई०)।
*(११) शब्दरत्नाकर के कर्ता 'वर्मानभट्ट वाण' हैं ।
*(१२) नामसंग्रहमाला की रचना अप्पय दीक्षित ने की है । इनके अतिरिक्त
*(१३) नामकोश (सहजकीर्ति) का (१६२७) और
*(१४) पंचचत्व प्रकाश (१६४४) सामान्य कोश हैं ।
 
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इन कोशटीकाओं में शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी है । 'अमरकोश' की 'रामाश्रयी' टीका में प्रत्येक शब्द की पाणिनीय व्याकरणनुसारी व्युत्पत्ति दो गई है । कभी-कभी किसी में तुटियाँ ओर कभी कभी प्रयोग भी बताए गए है । सब मिलाकर इन टीकाओं को कोशवाड़ःमय का महत्वपूर्ण अंग कहा जा सकता है । वस्तुतः ये कोशों के पूरक अंग है । इनमें 'उक्त अनुक्त और दुरुक्त' विषयों का विचार और विवेचन किया गया है । अतः संस्कृत कोशो को इतिहास में इनका महत्व और योगदान हमें कभी नहीं भूलना चाहिए ।
 
 
==निष्कर्ष==
(१) जहाँ तक संस्कृत कोशों का संबंध है, शब्दप्रकृति के अनुसार उसके तीन प्रकारह कहे जा सकते हैं -
* शब्दकोश,
* लौकिक शब्दकोश, और
* उभयात्मक शब्दकोश
 
(२) वैदिक निघंटुओं की शब्द-संग्रह-पद्धति क्या थी इसका ठीक ठीक निर्धारण नहीं होता, पर उपलब्ध निघंटु के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि उसमें नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चारों प्रकार के शब्दों का संग्रह रहा होगा । परंतु उनका संबंध मुख्य और विरल शब्दों से रहता था । और कदाचित् वेदविशेष या संहिताविशेष से भी प्रायः वे संबद्ध थे । वे संभवनः गद्यात्मक थे ।
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(१३) अपभ्रंश के कोश संभवतः पृथक् उपलब्ध नहीं है । प्राकृत के देशी शब्दकोशों अथवा देशी नाममालाओं में ही उनका अंतर्भाव समझना चाहिए ।
 
 
==इन्हें भी देखें==
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[[श्रेणी:संस्कृत]]
[[श्रेणी:शब्दकोश]]
[[श्रेणी:उत्तम लेख]]