"स्मृति": अवतरणों में अंतर

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स्मृति की भाषा सरल थी, नियम समयानुसार थे तथा नवीन परिस्थितियों का इनमें ध्यान रखा गया था। अतः ये अधिक जनग्राह्य तथा समाज के अनुकूल बने रहे। फिर भी श्रुति की महत्ता इनकी अपेक्षा अत्यधिक स्वीकार की गई। परन्तु पीछे इनके बीच संधि स्थापित करने के लिए वृहस्पति ने कहा कि श्रुति और स्मृति मनुष्य के दो नेत्र हैं। यदि एक को ही महत्ता दी जाय तो आदमी काना हो जाएगा। अत्रि ने तो यहाँ तक कहा कि यदि कोई वेद में पूर्ण पारंगत हो स्मृति को घृणा की दृष्टि से देखता हो तो इक्कीस बार पशु योनि में उसका जन्म होगा। वृहस्पति और अत्रि के कथन से इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वेद के समान स्मृति की भी महत्ता अब स्वीकार की गई। पीछे चलकर सामाजिक चलन में श्रुति के ऊपर स्मृति की महत्ता को स्वीकार कर लिया गया जैसे दत्तक पुत्र की परम्परा का वेदों में जहाँ विरोध हैं वहीं स्मृतियों में इसकी स्वीकृति दी गई है। इसी प्रकार पञ्चमहायज्ञ श्रुतियों के रचना काल की अपेक्षा स्मृतियों के रचना काल में व्यापक हो गया। वेदों के अनुसार झंझावात में, अतिथियों के आने पर, पूर्णिमा के दिन छात्रों को स्वाध्याय करना चाहिए क्योंकि इन दिनों में सस्वर पाठ करने की मनाही थी। परन्तु स्मृतियों ने इन दिनों स्वाध्याय को भी बन्द कर दिया। शूद्रों के सम्बन्ध में श्रुति का यह स्पष्ट निर्णय है कि वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उपनिषदों ने शूद्रों के ऊपर से यह बन्धन हटा दिया एवं उनके मोक्ष प्राप्ति की मान्यता स्वीकार कर ली गई। ये सभी तथ्य सिद्ध करते हैं कि श्रुति की निर्धारित परम्पराओं पर स्मृतियों की विरोधी परम्पराओं को पीछे सामाजिक मान्यता प्राप्त हो गई। स्मृतियों की इस महत्ता का कारण बताते हुए मारीचि ने कहा है कि स्मृतियों के जो वचन निरर्थक या श्रुति विरोधी नहीं हैं वे श्रुति के ही प्रारूप हैं। वेद वचन रहस्मय तथा बिखरे हैं जिन्हें सुविधा में स्मृतियों में स्पष्ट किया गया है। स्मृति वाक्य परम्पराओं पर आधारित हैं अतः इनके लिए वैदिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इनकी वेदगत प्रामाणिकता स्वतः स्वीकार्य है। वैदिक भाषा जनमानस को अधिक दुरूह प्रतीत होने लगी थी, जबकि स्मृतियाँ लौकिक संस्कृत में लिखी गई थीं जिसे समाज सरलता से समझ सकता था तथा वे सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप सिद्धांतप्रतिपादित करती थीं। स्मृति लेखकों को भी वैदिक महर्षियों की तरह समाज ने गरिमा प्रदान की थी। वैदिक और स्मृति काल के बीच व्यवहारों तथा परिस्थितियों के बदलने से एवं विभिन्न आर्थिक कारणों और नवीन विचारों के समागम से स्मृति को श्रुति की अपेक्षा प्राथमिकता मिली। इसका कारण यह भी बताया जा सकता है कि समाजशास्त्रीय मान्यता के पक्ष में था। इन सब कारणों से श्रुति की मान्यता को स्मृतियों की मान्यता के सम्मुख ५०० ईसा पूर्व से महत्त्वहीन समझा जाने लगा।
 
 
 
==मुख्य स्मृतियाँ ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://unlimitedmemory.tripod.com/id23.html स्मृति-सहायक (न्युमोनिक्स)]
 
 
[[श्रेणी:हिन्दू धर्म]]
[[श्रेणी:धर्मग्रन्थ]]
[[श्रेणी:उत्तम लेख]]
 
[[cs:Smrti]]