"लालमणि मिश्र": अवतरणों में अंतर

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पिता के स्वर्गवास के बाद सन 1940 में वे कानपुर लौट आए. अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से प्रेरित वो बालकोँ को संगीत सिखाने के नये रास्ते ढूँढ रहे थे; वह भी तब जब पारम्परिक समाज मेँ कुलीन व्यक्ति संगीत को हेय दृष्टि से देखते थे। एक एक कर उन्होनेँ कई बाल संगीत विद्यालय स्थापित किए; विद्यार्थी की ज़रूरत के मुताबिक़ औपचारिक, अनौपचारिक पाठ्यक्रमोँ मेँ परिवर्तन किया; वाद्य वृन्द समिति की स्थापना की। क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थान भारतीय संगीत परिषद का गठन किया तथा पहला उच्च शिक्षण का आधार गाँधी संगीत महाविद्यालय आरम्भ किया। संगीत के हर आयाम से परिचित उन्होने शैली, शिक्षण पद्धति, वाद्य-रूप, वादन स्वरूप -- सभी पर कार्य किया जिससे उन्हेँ सभी ओर से आदर और सम्मान मिला।
==विश्व-दर्शन==
[[चित्र:LalmaniMisra_Composer.jpg|thumb|left|तरंग वाद्यजलतरंग बजाते हुए]]प्रख्यात नृत्य गुरु पण्डित उदय शँकर ने अपनी नृत्य मँडली में उन्हें संगीत निर्देशक के पद पर आमंत्रण दिया जिसे लालमणि जी ने सहर्ष स्वीकार किया। मंडली की अभिनव नृत्य प्रस्तुतिओं तथा पौराणिक एवम आधुनिक विषयों पर आधारित बैले, ऑपेरा आदि के लिये उन्होंने मनोहारी संगीत रचनाएँ की। सन 1951 से 1955 तक भारत के कई नगरों से होता हुआ उदय शँकर जी का ट्रुप श्रीलंका, इंगलैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, अमरीका, कनाडा का भ्रमण करता रहा। इस प्रयोगधर्मी नृत्य मँडली के लिये उनका बहु वाद्य पारंगत होना तथा ऑर्केस्ट्रा में रुचि रखना फलदायी सिद्ध हुआ।
 
उनके लिए भी इसका अनुभव अर्थपूर्ण रहा। स्वदेश लौटते ही उन्होंने मीरा ऑपेरा की रचना की जिसका प्रथम मंचन सन 1956 में कानपुर में किया गया। भगवान कृष्ण की मूर्ति में मीरा का विलीन हो जाना दर्शकों को स्तम्भित कर गया।