"ताराचंद बड़जात्या": अवतरणों में अंतर
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ताराचन्द बरजात्या का जन्म 10 मई, 1914 को [[राजस्थान]] में हुआ था. उन्होंने [[कोलकाता]] के [[विद्यासागर कॉलेज]] से स्नातक की परीक्षा पास करके 19 वर्ष की आयु में 1933 में [[मोतीमहल थियेटर]] में बिना किसी वेतन के एक प्रशिक्षु के रूप में काम करने लगे कडी मेहनत और लगन से उन्होंने अपने मालिक के लिए सफलता अर्जित की. उनकी आर्थिक मदद से ही 14 साल बाद 15 अगस्त 1947 में उन्होंने राजश्री पिक्चर्स प्रा. लिमिटेड की स्थापना की और कम लागत, देशी कलेवर, नये कलाकारों और सार्थक मूल्यों के सहारे फिल्में बनाने लगे. आर्थिक रूप से उन्हें इस बात का लाभ मिला कि उन्होंने जिन फिल्मों के वितरण का अधिकार मिला उनमें अधिकतर खूब चलीं. जिन फिल्म निर्माता निर्देशकों ने उनपर पूरा भरोसा किया उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नाम मनमोहन देसाई का था जिन्होंने अपनी कई सफल फिल्मों -अमर अकबर अंथोनी ,परवरिश, धरमवीर, कुली आदि फिल्मों के वितरण का अधिकार उन्हें सौंपा. जिन सफल फिल्मों से उन्हें सबसे अधिक लाभ मिला उनमें शोले, जुगनू,, रोटी, कपड़ा और मकान और विक्टोरिया नं 203 प्रमुख हैं.
बडजात्या का एक बड़ा अवदान यह भी है कि उनके माध्यम से दक्षिण भारतीय फिल्म जगत से हिंदी समाज ज्यादा जुड पाया. अपने दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण क्षेत्र में अनुभवों के आधार पर उन्हें लगा कि इन क्षेत्रीय फिल्मों को राष्ट्रीय आधार मिलना चाहिए. उन्हें विश्वास था कि दक्षिण भारतीय भाषाओं की सफल फिल्मों को हिन्दी क्षेत्र के दर्शक जरूर पसंद करेंगे. शुरू में जेमिनी, ए वी एम, प्रसाद जैसे बडे निर्माताओं को यह भरोसा नहीं था लेकिन जब ताराचन्द बरजात्या ने उन्हें भरोसा दिलाया और वितरण में मदद का वादा किया तब उन्हें भरोसा हुआ. इस क्रम में हिंदी में चन्द्रलेखा, मिलन, संसार , जीने की राह , ससुराल, राजा और रंक और खिलौना जैसी सफल फिल्में बनी. 1962 में ताराचंद ने अपना स्वतंत्र प्रोडक्शन शुरू किया. इसके बाद एक के बाद एक सफल फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ. [[आरती (फ़िल्म)|आरती]] (1962) से शुरू हुआ सफर [[दोस्ती]], [[जीवन मृत्यु (1970 फ़िल्म)|जीवन-मृत्यु]], [[उपहार (1971 फ़िल्म)|उपहार]], [[पिया का घर]], [[सौदागर (1973 फ़िल्म)|सौदागर]], [[गीत गाता चल]], [[तपस्या (1976 फ़िल्म)|तपस्या]], [[चितचोर (1976 फ़िल्म)|चितचोर]], [[दुल्हन वही जो पिया मन भाये (1977 फ़िल्म)|दुल्हन वही जो पिया मन भाए]], [[अँखियों के झरोखे से (1978 फ़िल्म)|अँखियों के झरोखे से]], [[तराना (1979 फ़िल्म)|तराना]], [[सावन को आने दो (1979 फ़िल्म)|सावन को आने दो]], [[नदिया के पार (1982 फ़िल्म)|नदिया के पार]], [[सारांश (1984 फ़िल्म)|सारांश]] से होता हुआ [[मैंने प्यार किया]] तक चलता रहा. 1992 में उनका देहांत हो गया.
अपनी फिल्मों में वे मानवतावादी भारतीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील दिखे. उन्हें लगता था कि देश की भाषा, देशी संगीत और देशी भाव-बोध अगर सार्थक रूप में लोगों के सामने लाया जाए तो लोगों की सराहना मिलेगी. बिल्कुल ऐसा ही हुआ.
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