"बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य)": अवतरणों में अंतर

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'''बृहत्त्रयी''' के अंतर्गत तीन [[महाकाव्य]] आते हैं - "किरातार्जुनीय" "शिशुपालवध" और "नैषधीयचरित"।
 
[[भामह]] और [[दंडी]] द्वारा परिभाषित महाकाव्य लक्षण की रूढ़ियों के अनुरूप निर्मित होने वाले मध्ययुग के अलंकरण प्रधान [[संस्कृत]] महाकाव्यों में ये तीनों कृतियाँ अत्यंत विख्यात और प्रतिष्ठाभाजन बनीं। [[कालिदास]] के काव्यों में कथावस्तु की प्रवाहमयी जो गतिमत्ता है, मानवमन के भावपक्ष की जो सहज, पर प्रभावकारी अभिव्यक्ति है, इतिवृत्ति के चित्रफलक (कैन्वैस) की जो व्यापकता है - इन काव्यों में उनकी अवहेलना लक्षित होती है। छोटे छोटे वर्ण्य वृत्तों को लेकर महाकाव्य रूढ़ियों के विस्तृत वर्णनों और कलात्मक, आलंकारिक और शास्त्रीय उक्तियों एवं चमत्कारमयी अभिव्यक्तियों द्वारा काव्य की आकारमूर्ति को इनमें विस्तार मिला है। किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित में इन प्रवृत्तियों का क्रमश: अधिकाधिक विकास होता गया है। इसी से कुछ पंडित, इस हर्षवर्धनोत्तर संस्कृत साहित्य को काव्यसर्जन की दृष्टि से "ह्रासोमुखयुगीनह्रासोन्मुखयुगीन" मानते हैं। परंतु कलापक्षीय काव्यपरंपरा की रूढ़ रीतियों का पक्ष इन काव्यों में बड़े उत्कर्ष के साथ प्रकट हुआ। इन काव्यों में भाषा की कलात्मकता, शब्दार्थलंकारों के गुंफन द्वारा उक्तिगत चमत्कारसर्जन, चित्र और श्लिष्ट काव्यविधान का सायास कौशल, विविध विहारकेलियों और वर्णनों का संग्रथन आदि काव्य के रूढ़रूप और कलापक्षीय प्रौढ़ता के निदर्शक हैं। इनमें शृंगाररस की वैलासिक परिधि के वर्णनों का रंग असंदिग्ध रूप से पर्याप्त चटकीला है। हृदय के भावप्रेरित, अनुभूतिबोध की सहज की अपेक्षा, वासनामूलक ऐंद्रिय विलासिता का अधिक उद्वेलन है। फिर पांडित्य की प्रौढ़ता, उक्ति की प्रगल्भता और अभिव्यक्तिशिलप की शक्तिमत्ता ने इनकी काव्यप्रतिभा को दीप्तिमय बना दिया है। साहित्यक्षेत्र का पंडित बनने के लिए इनका अध्ययन अनिवार्य माना गया है।
 
==किरातार्जुनीय==
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==शिशुपालवध (माघ महाकाव्य) ==
संस्कृत के कवि प्रशस्तिपरक सुभाषितोक्ति के अनुसार [[माघ कवि]] के इस महाकाव्य में कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव और दंडी (या श्रीहर्ष) का पदलालित्य तीनों एकत्र समन्वित हैं। कालिदास का भावप्रवाह, भारवि का कलानैपुण्य और भट्टिकार के व्याकरणपांडित्य के एकत्र योग से उसका उत्कर्ष बढ़ गया है। पाणिनीय संस्कृत की मुहावरेदार भाषा के प्रयोग नैपुण्य में शिशुपाल वध भट्टि काव्य से भी श्रेष्ठ है। भावह्रासोन्मुखी अलंकृतकाव्ययुगीन संस्कृत काव्यों में सर्वाधिक प्रिय माघकाव्य को पथप्रदर्शक और आदर्श मान लिया गया था। माघ के एकमात्र उपलब्ध इस महाकाव्य पर उनकी युगांतस्थायी कीर्ति अवलंबित है। "भोजप्रबंध", "प्रबंधचिंतामणि" तथा "शिशुपालबध" के अंत में उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर इनका जीवनवृत्त संकलित है। गुर्जरांतर्गत किसी प्रांत के शासक "धर्मनाम" (वर्मनाम या वर्मलात) नामक राजा के यहाँ इनके दादा सुप्रभदेव प्रधान मंत्री थे। पिता का नाम दत्तक था। वे बड़े विद्वान् और दानशील थे। प्रस्तुत महाकवि का जन्म भीनमाल में और अत्यंत संपन्न परिवार में हुआ था। इनका शैशव और यौवन - वैभव और विलास में बीता था। नगर रसिकों की विलासचर्या और रसभोग की प्रकृति का इन्हें पूर्ण परिचय और अनुभव था। माघदंपति अत्यंत दानी और कृपालु थे। दान में अपना सब कुछ वितरित करने से इनका वार्धक्य अर्थदारिद्रय से कष्टमय बीता। इनका विद्यमानकाल अधिकांश विद्वानों ने सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है। शिशुपालवध की रचना - जनश्रुतियों में कहा जाता है - किरातार्जुनीय के अनुकरण पर हुई थी। एकाक्षर द्वयक्षरवालेद्व्यक्षरवाले पद्यादि तथा चित्रबंधात्मक शब्दचित्र काव्य भी यहाँ हैं और आरंभिक दो सर्गों में राजनीतिक मंत्रणा भी। स्पष्ट ही इस पर भारविकाव्य की प्रतिच्छाया है। परंतु अलंकृत-काव्य-रचना-कौशल तथा प्रकृत्यादि के वर्णन की दृष्टि से किरातार्जुनीय की अपेक्षा शिशुपालवध बहुत उत्कृष्ट है। इसके वर्णन पांडित्यपूर्ण, अलंकृत और रूढ़िसंवलित होने पर भी बड़े सप्राण हैं। उनमें कवि के प्रत्यक्ष निरीक्षण और राग की सजीवता है। किरातकाव्यतुल्य अलंकृतवर्णन की शैली पर चलकर भी इसके विषयवर्णनों में भावतरलता, अभिव्यंजनशैली की प्रौढ़ता, मूर्त्तप्रत्यक्षीकरण्, समर्थ अलंकारविधान आदि से यह काव्य अत्यंत सरस और प्रौढ़ कहा जाता है। परंतु इसकी भी महाभारत गृहीत मूल कथा लघु है जो वर्णनविस्तार से स्फीतकलेवर हो गई है। अत्याचार और बल से त्रस्त त्रैलोक्य की दशा नारद से सुनकर कृष्ण, बलराम और उद्धव ने मंत्रणा की और पांडवों के राजसूय यज्ञ में जाने का निश्चय किया। तृतीय सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक यात्रा, विश्राम आदि अवांतर प्रसंगों और विहारकेलियों का ऐसा वर्णन है जहाँ इतिवृत्त के निर्वाह का पूरा अभाव है। चौदहवें से लेकर बीसवें सर्ग तक युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ तथा कृष्ण और शिशुपाल के युद्ध एवं तत्संबद्ध अवंातर प्रसंगों का कलात्मक और अलंकृत वर्णन है। यह काव्य भी मुख्यत: वीर रस का है पर श्रृंगार की केलियों और विलास की वासनात्मक मधुरिमा से संपन्न। परंतु वीर रस से संपृक्त वर्णन भी इसमें बड़े जीवंत और प्रभावशाली हैं। मूल कथा, 1, 2, 14 तथा 20 संख्यक सर्गों में ही (अवांतर वर्णनों के रहने पर भी) मुख्यत: है। परतु श्रृंगारी वर्णनों में - विशेषत: विभावानुभावों के अंकन में संश्लिष्ट चित्र सजीव और गतिमय हैं। उनका प्रकृतिवर्णन भी अप्रस्तुत विधानों के अलंकरणभार से बोझिल होकर भी सरस है। वे स्वभावोक्ति और प्रौढ़ोक्ति द्विविध निर्माण के निष्णात शिल्पी हैं। कुल मिलाकर शिशुपालवध अपने ढंग का उत्कृष्टतम काव्य है जिसका प्रभावमय कवित्व और वैदुष्य बेजोड़ है।
 
==नैषधीय चरित==