"चैतन्य महाप्रभु": अवतरणों में अंतर

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| school_tradition = [[गौड़ीय मत]]
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'''चैतन्य महाप्रभु''' {([[१८ फरवरी]], [[१४८६]]-[[१५३४]]) [[वैष्णव]] धर्म के [[भक्ति योग]] के परम प्रचारक एवं [[भक्तिकाल]] के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के [[गौड़ीय संप्रदाय]] की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में [[हिंदू]]-[[मुस्लिम]] एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त [[वृंदावन]] को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि [[गौरांग]] ना होते तो [[वृंदावन]] आज तक एक मिथक ही होता।<ref name = "अमर उजाला "> {{cite web |url= http://www.amarujala.com/Dharam/default1.asp?foldername=20060316&sid=1|title= गौड़ीय संप्रदाय के प्रवर्तक|date= २१|year= २००९|month= जून|format= एचटीएम|work= |publisher= अमर उजाला |pages= |language= हिन्दी |archiveurl= |archivedate= |quote= }}</ref> वैष्णव लोग तो इन्हें श्री[[कृष्ण]] का [[राधा]] रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।<ref name = "जागरण "/><ref>{{cite web |url= http://www.stephen-knapp.com/Brahma_Madhva_Gaudiya_Disciplic_Succession.htm|title= ब्रह्म-माधव गौड़ीय मत सत्र|date= |year= |month|format= एचटीएम|work= |publisher= |pages= |language= अंग्रेज़ी|archiveurl= |archivedate= |quote="Sri Krishna is so maddened by it that He accepts the form of Lord Caitanya Mahaprabhu, who descends in the mood of Radharani" }}</ref><ref>{{cite web |url= http://srimadbhagavatam.com/11/5/32/en1|title= ब्रह्म-माधव गौड़ीय मत सत्र|date= |year= |month=|format= एचटीएम|work= |publisher= श्रीमद्भाग्दत|pages= ११.५.३२|language= अंग्रेज़ी|archiveurl= |archivedate= |quote=<small>''"In the age of Kali, intelligent persons perform congregational chanting to worship the incarnation of Godhead who constantly sings the names of Krishna. Although His complexion is not blackish, He is Krishna Himself. He is accompanied by His associates, servants, weapons and confidential companions."''</small> }}</ref> गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री [[:en:Krishnadasa Kaviraja|कृष्णदास कविराज गोस्वामी]] विरचित [[चैतन्य चरितामृत]]। इसके अलावा श्री [[:en:Vrindavana Dasa|वृंदावन दास ठाकुर]] रचित [[चैतन्य भागवत]]<ref> [http://www.gaudiya.com/index.php?topic=literature गौड़ीय साहित्य]</ref> तथा लोचनदास ठाकुर का [[चैतन्य मंगल]] भी हैं।<ref> [http://www.salagram.net/parishad39.htm श्री लोचनदास ठाकुर की जीवनी] (शालाग्राम.नेट पर) </ref>
 
==जन्म तथा प्रारंभिक जीवन==
[[चैतन्य चरितामृत]] के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन [[१४८६]] की [[फाल्गुन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ला]] [[पूर्णिमा]] को [[पश्चिम बंगाल]] के [[नवद्वीप]] (नादिया) नामक गांव में हुआ, <ref name = "जागरण "/> जिसे अब [[मायापुर]] कहा जाता है। इनका जन्म संध्याकाल में [[सिंह]] लग्न में [[चंद्र ग्रहण]] के समय हुआ था। उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए [[गंगा]] स्नान को जा रहे थे। तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा। <ref name = "जागरण "/> यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये [[नीम]] के पेड़ के नीचे मिले थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें [[गौरांग]], गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे।
 
इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।<ref name = "जागरण "> {{cite web |url= http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=3400&category=12|title= भगवन्नाम के अमर प्रचारक चैतन्य महाप्रभु|accessmonthday= |accessyear= |accessmonthday= |accessdaymonth = |accessyear= |author= डॉ.अतुल टण्डन|last= |first= |authorlink= |coauthors= |date= |year= |month= |format= एचटीएम|work= |publisher= याहू जागरण|pages= |language= हिन्दी |archiveurl= |archivedate= |quote= }}</ref> निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई [[न्याय]] व [[व्याकरण]] में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर [[राम]] व [[कृष्ण]] का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन [[१५०५]] में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह [[नवद्वीप]] के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।<ref>{{cite web |url= http://www.amarujala.com/dharam/default1.asp?foldername=20060316&sid=1|title= गौड़ीय संप्रदाय के प्रवर्तक|accessmonthday=[[11 मार्च]]|accessyear=[[2008]]|format= एएसपी|publisher= अमर उजाला|language=}}</ref>
 
==धार्मिक दीक्षा==
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हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥
</blockquote></center>
[[चित्र:Mahaprabhu Mahaprabhu_103103.jpg |thumb|150px|गौरांग की मायापुर में एक मंदिर में स्थित प्रतिमा]]
यह अठारह शब्दीय (३२ अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे '''तारकब्रह्ममहामंत्र''' कहा गया, व [[कलियुग]] में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था।<ref name = "जागरण "/> जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन [[१५१०]] में संत प्रवर [[श्री पाद केशव भारती]] से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। मात्र २४ वर्ष की आयु में ही इन्होंने गृहस्थ आश्रम का त्याग कर सन्यास ग्रहण किया।<ref name = "जागरण "/> बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए। सन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार [[जगन्नाथ मंदिर, पुरी| जगन्नाथ मंदिर]] पहुंचे, तब भगवान की मूर्ति देखकर ये इतने भाव-विभोर हो गए, कि उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे, व मूर्छित हो गए। <ref name = "जागरण "/> संयोग से तब वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित [[सार्वभौम भट्टाचार्य]] महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। घर पर शास्त्र-चर्चा आरंभ हुई, जिसमें सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरांग ने [[भक्ति]] का महत्त्व [[ज्ञान]] से कहीं ऊपर सिद्ध किया व उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित [[सार्वभौम भट्टाचार्य]] ने गौरांक की शत-श्लोकी स्तुति रची जिसे आज '''[[चैतन्य शतक]]''' नाम से जाना जाता है। <ref name = "जागरण "/>[[उड़ीसा]] के [[सूर्यवंश|सूर्यवंशी]] सम्राट, गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव ने इन्हें श्री[[कृष्ण]] का अवतार माना, और इनका अनन्य भक्त बन गया।<ref> [http://philtar.ucsm.ac.uk/encyclopedia/hindu/devot/gauvai.html गौड़ीय वैष्णव] <small>"His magnetism attracted men of great learning such as Särvabhauma Bhattächärya, the greatest authority on logic, and Shree Advaita Ächärya, leader of the Vaishnavas in Bengal, and men of power and wealth like the King of Orissa, Pratapa Rudra and his brähman minister, Rämänanda Räya..."</small> </ref>
 
चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने के बाद [[नीलांचल]] चले गए। इसके बाद दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र व [[सेतु बंध]] आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन [[१५१५]] में [[विजयादशमी]] के दिन [[वृंदावन]] के लिए प्रस्थान किया। ये वन के रास्ते ही वृंदावन को चले। कहते हैं, कि इनके हरिनाम उच्चारण से उन्मत्त हो कर जंगल के जानवर भी इनके साथ नाचने लगते थे। बड़े बड़े जंगली जानवर जैसे शेर, बाघ और हाथी आदि भी इनके आगे नतमस्तक हो प्रेमभाव से नृत्य करते चलते थे। [[कार्तिक]] [[पूर्णिमा]] को ये वृंदावन पहुंचे।<ref name = "जागरण "/> वृंदावन में आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है। यहां इन्होंने इमली तला और अक्रूर घाट पर निवास किया। वृंदावन में रहकर इन्होंने प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति भावना को जागृत किया। यहां से फिर ये [[प्रयाग]] चले गए। इन्होंने [[काशी]], [[हरिद्वार]], [[शृंगेरी]] ([[कर्नाटक]]), [[कामकोटि पीठ]] ([[तमिलनाडु]]), [[द्वारिका]], [[मथुरा]] आदि स्थानों पर रहकर भगवद्नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष [[जगन्नाथ पुरी]] में रहकर बिताएं। यहीं पर सन [[१५३३]] में ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उन्होंने श्रीकृष्ण के परम धाम को प्रस्थान किया।
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==षण्गोस्वामी==
{{main|षण्गोस्वामी}}
[[हिंदू धर्म]] में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छः प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई। गौरांग ने जिस गौड़ीय संप्रदाय की स्थापना की थी। उसमें षड्गोस्वामियों की अत्यंत अहम भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया। रसिक कवि कुल चक्र चूडामणि श्री [[जीव गोस्वामी]] महराज षण्गोस्वामी गणों में अन्यतम थे। उन्होंने परमार्थिक नि:स्वार्थ प्रवृत्ति से युक्त होकर सेवा व जन कल्याण के जो अनेकानेक कार्य किए वह स्तुत्य हैं। चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्त अनुसार हरि-नाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वह मात्र २० वर्ष की आयु में ही सब कुछ त्याग कर वृंदावन में अखण्ड वास करने आ गए थे।<ref name = "सेंट्स "> {{cite web |url= http://santslife.blogspot.com/2008/12/blog-post_2270.html|title= गौड़ीय संप्रदाय के स्तंभ जीव गोस्वामी|author= ब्रह्म शर्मा |date= २८|year= २००८|month= दिसंबर|format= एचटीएम|work= |publisher= सेंट्स लाइफ, ब्लॉगस्पॉट |pages= |language= हिन्दी |archiveurl= |archivedate= |quote= }}</ref> ये [[षड्गोस्वामी]] थे:
*'''श्री [[गोपाल भट्ट गोस्वामी]]''', बहुत कम आयु में ही [[गौरांग]] की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया।<ref> श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.१०५</ref>
*'''श्री [[रघुनाथ भट्ट गोस्वामी]]''', सदा हरे कृष्ण का अन्वरत जाप करते रहते थे, और [[श्रीमद भागवत]] का पाठ नियम से करते थे। राधा कुण्ड के तट पर निवास करते हुए, प्रतिदिन भागवत का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाते थे, और इतने भावविभोर हो जाते थे, कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भी भीग जाते थे। <ref> श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०१.१५२-१५८</ref>
*'''श्री [[रूप गोस्वामी]]''' ([[१४९३]] – [[१५६४]]), का जन्म [[१४९३]] ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के ५१ वर्ष ये [[ब्रज]] में ही रहे।<ref> श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.८४; मध्य लीला अध्याय-१९; अंत्य लीला अध्याय-१</ref>
*'''श्री [[सनातन गोस्वामी]]''' ([[१४८८]]-[[१५५८]]), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।
*'''श्री [[जीव गोस्वामी]]'''([[१५३३]]-[[१५४०]]), का जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां [[१५३३]] ई०(तद.१४५५ शक. [[भाद्रपद]] शुक्ल द्वादशी को हुआ था। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी, इनकी आंखें कमल के समान थीं, व इनके अंग-प्रत्यंग में चमक निकलती थी। श्री [[रूप गोस्वामी]] ने इन्हें [[श्रीमद्भाग्वत]] का पाठ कराया। और अन्ततः ये वृंदावन पहुंचे। वहां इन्होंने एक मंदिर भी बनवाया। <ref>श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.८५</ref>
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:''श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य हैं, प्रेमपरक है। उनकी तीन शक्तियाँ- परम ब्रह्म शक्ति, माया शक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियाँ दो प्रकार की हैं- एक है प्राभव विलास-जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपियों से क्रीड़ा करते हैं। दूसरी है वैभव-विलास- जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते है। चैतन्य मत के व्यूह-सिद्धान्त का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा है। राधा ही कृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही उनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा है। गोपी-कृष्ण-लीला प्रेम का प्रतिफल है।''<ref name = "सहित्य संग्रह ">{{cite book |last= रमण|first= रेवती|authorlink= रेवती रमण|coauthors= |editor= |others= |title= जातीय मनोभूमि की तलाश|origdate= |origyear= |origmonth= |url= http://vrihad.com:5200/bs/home.php?bookid=713|format= |accessday= |accessmonth= |accessyear= |edition= |date= २३|year= २००५|month= मई|publisher= भारतीय ज्ञानपीठ|location= |language=हिन्दी |id= ७१३|doi = |pages= १९२|chapter= |chapterurl= |quote = }} </ref>
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==यह भी देखें==
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{{चैतन्य महाप्रभु}}{{भक्ति काल के कवि }}
 
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[[श्रेणी: भक्तिकाल के कवि]]
 
[[श्रेणी: भक्तिकाल के कवि]]
[[श्रेणी:कृष्णाश्रयी शाखा के कवि]]
[[श्रेणी:चैतन्य महाप्रभु]]
[[श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना]]
 
{{pp-semi-template|small=yes}}
 
[[bn:চৈতন্য মহাপ্রভু]]