"व्याकरण": अवतरणों में अंतर

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व्याकरण तथा [[भाषाविज्ञान]] दो शब्दशास्त्र हैं; दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न-भिन्न है; पर एक दूसरे के दोनों सहयोगी हैं। व्याकरण पदप्रयोग मात्र पर विचार करता है; जब कि भाषाविज्ञान "पद" के मूल रूप (धातु तथा प्रातिपदिक) की उत्पत्ति व्युत्पत्ति या विकास की पद्धति बतलाता है। व्याकरण यह बतलाएगा कि (निषेध के पर्य्युदास रूप में) "न" (नञ्) का रूप (संस्कृत में) "अ" या "अन्" हो जाता है। व्यंजनादि शब्दों में "अ" और स्वरादि में "अन्" होता है - "अद्वितीय", "अनुपम"। जब निषेध में प्रधानता हो, तब ("प्रसज्य प्रतिषेध" में) समास नहीं होता - अयं ब्राह्मणो नाऽस्ति", "अस्य उपमा नास्ति"। अन्यत्र "अब्राह्मणा: वेदाध्ययने मंदादरा: संति" और "अनुपमं काश्मीरसौंदर्य दृष्टम्" आदि में समास होगा; क्योंकि निषेध विधेयात्मक नहीं है। व्याकरण समास बता देगा और कहाँ समास ठीक रहेगा, कहाँ नहीं; यह सब बतलाना "साहित्य शास्त्र" का काम है। "न" से व्यंजन (न्) उढ़कर "अ" रह जाता है और ("न" के ही) वर्णत्य से "अन्" हो जाता है। इसी "अन्" को सस्वर करके "अन" रूप में "समास" के लिए हिंदी ने ले लिया है - "अनहोनी", "अनजान" आदि। "न" के ये विविध रूप व्याकरण बना नहीं देता; बने बनाए रूपों का वह "अन्वाख्यान" भर करता है। यह काम भाषाविज्ञान का है कि वह "न" के इन रूपों पर प्रकाश डाले।
 
व्याकरण बतलाएगा कि किसी धातु से "न" भाववाचक प्रत्यय करके उसमें हिंदी की संज्ञाविभक्ति "आ" लगा देने से (कृदंत) भाववाचक संज्ञाएँ बन जाती हैं-आना, जाना, उठना, बैठना आदि। परंतु व्याकरण का काम यह नहीं है कि आ, जा, उठ, बैठ आदि धातुओं की विकासपद्धति समझाए। यह काम भाषाविज्ञान का है। संस्कृत में ऐसी संज्ञाएँ नपुंसक वर्ग में प्रयुक्त होती हैं - आगमनम्, गमनम्, उत्थानम्, उपवेशनम् आदि। परंतु हिंदी में पुंप्रयोग होता है-"आपका आना कब हुआ?" हिंदी ने पुंप्रयोग क्यों किया, यह व्याकरण न बताएगा। वह अन्वाख्यान भर करेगा -"ऐसी संज्ञाएँ पुंवर्गीय रूप रखती है" बस! यह बताना भाषाविज्ञान का काम है कि ऐसा क्यों हुआ! संजीत
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