"ललित कला": अवतरणों में अंतर

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===भागवत नाट्य नाटक या भागवत्‌ मेल नाट्य नाटक===
नाट्य नाटकों में यह एक प्रकार का है जो बहुत ही श्रेष्ठ माना जाता है। इन नाटकों का अभिनय प्राय: पुरुषों के द्वारा ही होता है। गणपति, नरसिंह इत्यादि देवों की मुखाकृतियाँ होती है जिनकी पूजा नट नित्य किया करते हैं और नाट्य काल में ्व्रातव्रत धारण करते हैं। ये नाटक बहुधा मंदिरों में ही खेले जाते हैं, अन्यत्र नहीं।
 
नाटक के प्रारंभ में मंगलाचरण गाया जाता है। बाद में कोणाँगीदा सर नामक विदूषक रंगमंच में प्रवेश करता है। नाटककार की विशेषताएँ और नाटक का लक्ष्य ओरडिसिंधु (एकाक्षर छंद) में गाए जाते हैं।
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सभी कलाओं की भाँति धातु और काष्ठ की मूर्तियाँ भी विदेशी राज्य के भिन्न दृष्टिकोण के कारण और उचित संरक्षण तथा प्रोत्साहन के अभाव में निर्जीव एवं रूढ़िग्रस्त हो गईं। कहीं उनका लोप हुआ तो कहीं उनके कुशल कारीगरों ने जीवननिर्वाह के लिए अन्य काम धंधे सम्हाल लिए। धनी शिक्षित वर्ग विदेशी वस्तुओं की सभ्यता और कला की चकाचौंध में अपनी परिष्कृत रुचि गवाँ बैठे। शिक्षित कलाकारों ने भी विदेशी कला का अनुसरण किया किंतु कालांतर से अब फिर इन खोई हुई वैभवशील कलाओं की ओर ध्यान जा रहा है और अनेक उदीयमान कलाकारों ने काष्ठ मूर्तिकला को अपना माध्यम बनाया है जिसमें भारतीय परंपरागत शैली के साथ हम आज अंतरराष्ट्रीय कलादृष्टि का सुंदर समन्वय पाते हैं। प्रत्येक माध्यम का अपना स्वतंत्र गुण और चरित्र है जो दूसरे माध्यम में हमें नहीं मिलता। धातु की मूर्ति काष्ठ जैसी न लगे और काष्ठ की मूर्ति पत्थर, सीमेंट अथवा धातु जैसी न लगे और उसके अंर्तहित गुणों को परखकर माध्यम के अनुकूल, नस, रंग, रूप को ध्यान में रख कलाकार अपनी कृति की कल्पना करे और उसके गोपनीय सौंदर्य को उन्मीलित कर दे जिससे उतार चढ़ाव, रेखा इत्यादि के सम्मिश्रण से एक मौलिक रचना प्रस्तुत हो, यही आधुनिक कलाकार का ध्येय और उद्देश्य है। बाह्यरूप कुछ भी हो पर हमारी कला के मूल सिद्धांत, जो षडंग के अंतर्गत आते हैं, अब भी किसी भी माप दंड से खरे उतरते हैं चाहे दृष्टिकोण कितना ही अति आधुनिक हो।
 
==इन्हें भी देखें==
*[[मूर्ति कला|मूर्तिकला]]
*[[सौन्दर्यशास्त्र]]
*[[वास्तुकला]]
 
==बाहरी कडियाँ==
*[http://hp.gov.in/LAC/Fine art/kala3.aspx ललित कला (परिचय)]
 
[[श्रेणी:कला]]