"पीथमपुर के कालेश्वरनाथ": अवतरणों में अंतर

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{{wikify}}[[चित्र:Kaleshwarnath Temple.JPG|thumb|right|400px|पीथमपुर का कालेश्वरनाथ मंदिर]]जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से 11 कि. मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र 8 कि. मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर पीथमपुर में कालेश्वरनाथ का एक मंदिर है। जांजगीर के कवि श्री तुलाराम गोपाल ने ``िशवरीनारायण और सात देवालय`` में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्ष में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चूंकि राजा अंगराज बहुत ही सहिष्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अत: उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत शरीर की ऋषि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूष का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋषि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूष महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतध्र्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूष ने जिस कालेश्वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृश्य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को दर्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन 1954 में प्रकािशत श्री कलेश्वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-
 
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तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् 1755 में मंदिर निर्माण कराया है तो अवश्य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए 185 वर्ष का अंतराल पर्याप्त होता है। अत: यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि 185 वर्ष बाद उसका पुन: उद्भव संवत् 1940 में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले िशलालेख को पुन: दीवार में जड़ दिया गया होगा।
 
पीथमपुर में काल कालेश्वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना शुरू हो गया था। प्रारंभप्रारम्भ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार 10 दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋषिकेष, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल कालेश्वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् िशव बारात के इस शोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उिड़या में िशवायन लिखा। िशवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में िशव बारात की कल्पना को साकार किया है।
 
[[चित्र:Kaleshwarnath.jpg|thumb|right|300px|पंचमुखी शिवलिंग]]इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान शैव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस शैव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धारािशव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के िशव मंदिर के अवशेष हैं और धारािशव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री शंकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्ष तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूषोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री िशवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंदगिरिजानन्द जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंदवासुदेवानन्द जी महाराज, और स्वामी दयानंददयानन्द जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडेश्वर मठ काशी से संबंधित थे। स्वामी दयानंददयानन्द भारतीे जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडेश्वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंदअच्युतानन्द जी महाराज ने 20.02.1953 को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजीगिरिजानन्दजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक `सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला` की स्थापना सन् 1923 में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च िशक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक शाखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वर्षों तक नहीं चल सकी( लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और िशवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाषा में विशेष रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
 
सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख िशलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फर्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है।<ref>{{cite book |last=केशरवानी |first=प्रोफ़ेसर |title= पीथमपुर के कालेश्वरनाथ |year=मार्च २००६ |publisher=बिलासा प्रकाशन |location=बिलासपुर (छत्तीसगढ़)|id= |page=५८|accessday= २६|accessmonth= जुलाई|accessyear= २००८}}</ref>
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[[श्रेणी:मंदिरमन्दिर]]