"छत्तीसगढ़": अवतरणों में अंतर

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*[[छत्तीसगढ के प्रमुख साहित्यकार]]
 
[[भारत]] में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो '[[मगध]]' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "[[बिहार]]" बन गया और दूसरा '[[दक्षिण कौशल]]' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "[[छत्तीसगढ़]]" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और [[पौराणिक काल]] से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर [[वैष्णव]], [[शैव]], [[शाक्त]], [[बौद्ध]] के साथ ही अनेकों [[आर्य]] तथा [[अनार्य]] संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।
 
==छत्तीसगढ़ का पौराणिक महत्व==
 
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल, जिसका विस्तार पश्चिम में [[त्रिपुरी]] से ले कर पूर्व में [[उड़ीसा]] के [[सम्बलपुर]] और [[कालाहण्डी]] तक था, का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, जो कि कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया, का 'दक्षिण कोशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के [[महानदी]] (जिसका नाम उस काल में '[[चित्रोत्पला]]' था) का [[मत्स्यपुराण]] तथा [[महाभारत]] के [[भीष्म पर्व]] में वर्णन है -
 
"चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।<br>
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।"<br>
'''- महाभारत - भीष्मपर्व - 9/34'''
 
"मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।<br>
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।"<br>
'''मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 50/25)'''
 
"चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।<br>
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।"<br>
'''ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 19/31)'''
 
[[वाल्मीकि रामायण]] में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट उल्लेख है। यहाँ स्थित [[सिहावा पर्वत]] के [[आश्रम]] में निवास करने वाले [[श्रृंगी ऋषि]] ने ही [[अयोध्या]] में राजा [[दशरथ]] के यहाँ [[पुत्र्येष्टि यज्ञ]] करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान [[राम|श्री राम]] का पृथ्वी पर अवतार हुआ। इस दृष्टि से राम को धरती पर लाने का प्रमुख श्रेय छत्तीसगढ़ को ही प्राप्त है। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।
 
प्रतीत होता है कि राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। [[कालिदास]] के [[रघुवंश]] [[काव्य]] में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र [[लव]] को [[शरावती]] का और [[कुश]] को [[कुशावती]] का राज्य दिया था। यदि शरावती और [[श्रावस्ती]] को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कोशल के शासक बने। सम्भवतः उनकी [[राजधानी]] कुशावती आज के [[बिलासपुर]] जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता [[कौशल्या]] की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये [[विन्ध्याचल]] को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोशल में ही था।
 
उपरोक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन [[तपोस्थल]] रहा है।
 
==रामायण कालीन छत्तीसगढ़==
 
ऐसे अनेकों तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता [[रामायण]] युग को स्पर्श करती है। उस काल में [[दण्डकारण्य]] नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और [[तपस्या]] करते थे। इनमें [[वाल्मीकि]], [[अत्रि]], [[अगस्त्य]], [[सुतीक्ष्ण]] प्रमुख थे इसीलिये दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये।
 
प्रतीत होता है कि [[छोटा नागपुर]] से लेकर [[बस्तर]] तथा [[कटक]] से ले कर [[सतारा]] तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी. व्हान्स एग्न्यू लिखते हैं, "सामान्य रूप से इस विश्वास की परम्परा चली आ रही है कि [[रतनपुर]] के राजा इतने प्राचीनतम काल से शासन करते चले आ रहे हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू 'माइथॉलाजी' (पौराणिक कथाओं) में वर्णित पशु कथाओं (fables) से है। (चारों महान राजवंश) सतारा के नरपति, कटक के गजपति, बस्तर के रथपति और रतनपुर के अश्वपति हैं" (A Reeport on the Suba or Province of Chhattisgarh - written in 1820)। अश्व और हैहय पर्यायवाची हैं। श्री एग्न्यू का मत है कि कालान्तर में 'अश्वपति' ही हैहय वंशी हो गये। इससे स्पष्ट है कि इन चारों राजवंशो का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन है तथा उनके वंशों का नामकरण चतुरंगिनी सेना के अंगों के आधार पर किया गया है।
 
बस्तर के शासकों का 'रथपति' होने के प्रमाण स्वरूप आज भी दशहरे में रथ निकाला जाता है तथा [[दन्तेश्वरी]] माता की पूजा की जाती है। यह राम की उस परम्परा का संरक्षण है जब कि [[दशहरा]] के दिन राम ने [[शक्ति]] की पूजा कर लंका की ओर प्रस्थान किया था। यद्यपि लोग दशहरा को रावण-वध की स्मृति के रूप में मनाते हैं किन्तु उस दिन [[रावण]] का वध नहीं हुआ था वरन उस दिन राम ने [[लंका]] के लिये प्रस्थान किया था। (दशहरा को रावण-वध का दिन कहना ठीक वैसा ही है जैसे कि संत [[तुलसीदास]] के '[[रामचरितमानस]]' को 'रामायण' कहना।)
 
राजाओं की उपाधियों से यह स्पष्ट होता है राम ने छत्तीसगढ़ प्रदेश के तत्कालीन वन्य राजाओं को संगठित किया और [[चतुरंगिनी सेना]] का निर्माण कर उन्हें नरपति, गजपति, रथपति और अश्वपति उपाधियाँ प्रदान की। इस प्रकार [[रामायण काल]] से ही छत्तीसगढ़ प्रदेश राम का लीला स्थल तथा दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का केन्द्र बना।
 
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