"अपरा विद्या": अवतरणों में अंतर

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[[उपनिषद्]] की दृष्टि में '''अपरा विद्या''' निम्न श्रेणी का ज्ञान मानी जाती हैं। [[मुंडक उपनिषद्]] (1/1/4) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है-
 
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उपनिषद् का आग्रह परा विद्या के उपार्जन पर ही है। ऋग्वेद आदि चारों वेदों तथा शिक्षा, व्याकरण आदि छहों अंगों के अनुशीलन का फल क्या है ? केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान, जो आत्मतत्व की जानकारी में किसी तरह सहायक नहीं होता। छांदोग्य उपनिषद् (7/1/2-3) में नारद-सनत्कुमार-संवाद मे भी इसी पार्थक्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मंत्रविद् नारद सकल शास्त्रों मे पंडित हैं, परंतु आत्मविद् न होने से वे शोकग्रस्त हैं। ''मन्त्रविदेवास्मि नात्मवित्‌... रिति शोक-मात्मवित्‌।'' अत: उपनिषदों का स्पष्ट मंतव्य है कि अपरा विद्या का अभ्यास करना चाहिए जिससे इसी जन्म में, इसी शरीर से आत्मा का साक्षात्कार हो जाए (केन 2/23)। यूनानी तत्वज्ञ भी इसी प्रकार का भेद-दोक्सा तथा एपिस्टेमी-मानते थे जिनमें से प्रथम साधारण विचार का तथा द्वितीय सत्य क संकेतक माना जाता था।
 
[[श्रेणी:विद्या]]
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[[श्रेणी:विद्या|विद्या, अपरा]]
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[[श्रेणी:उपनिषद|विद्या, अपरा]]
[[श्रेणी:उत्तम लेख|विद्या, अपरा]]