"हास्यरस तथा उसका साहित्य (संस्कृत, हिन्दी)": अवतरणों में अंतर
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==हास्य के भेद==
हास्य के भेदों पर भी आचार्यों ने विचार किया है। उन्होंने हास्य के दो भेद किए हैं। एक है आत्मस्थ और दूसरा है परस्थ। हास्यपात्र की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है स्वत: उस पात्र का हँसना और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसाना। सामाजिकों या सहृदय श्रोताओं, अथवा नाट्यदर्शकों की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है अन्यों की हँसी के बिना स्वत: उनमें उद्भुत हास्य और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसता हुआ देखकर उनमें उत्पन्न हास्य। दृष्टिकोणों का यह अंतर समझ लेने पर इन दोनों शब्दों के अर्थों का विचार सरलतापूर्वक समाप्त किया जा सकता है।
फिर, आचार्यों ने हास्य के छह भेद किए विदेशी विद्वानों के विचार से हास्य के पाँच प्रमुख भेद हैं जिनके नाम हैं - '''ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन) भारतीय साहित्यपंडितों ने जिस प्रकार [[शृंगार]] के साथ न्याय किया है उसका दशमांश भी हास्य के साथ नहीं किया, यद्यपि भरत मुनि ने इसकी उत्पत्ति शृंगार से मानी है अर्थात् इसे रति या प्रीति का परिमाण माना है और इसे शृंगार के बाद ही नवरसों में महत्व का दर्जा दिया है। आनंद के साथ इसका सीधा संबंध है और न केवल रंजनता की दृष्टि से किंतु उपयोगिता की दृष्टि से भी इसकी अपनी विशिष्टता है। यह तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है, आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग पर समाजसुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता हुआ जनस्वास्थ्य और लोकस्वास्थ्य का उपकारक बनता है। यह निश्चित है कि संस्कृत साहित्य तथा हिंदी साहित्य में इस हास्यरस के महत्व के अनुपात से इसके उत्तम उदाहरणों की कमी ही है। फिर भी ऐतिहासिक सिंहावलोकन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य में हास्यरस का प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज तक निरंतर चला आ रहा है, यद्यपि वर्तमान काल के पूर्व उसें विविधता इतनी नहीं जितनी आज दिखाई पड़ रही है।
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हिंदी के वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल प्राय: पद्यों के ही काल रहे हैं। इस लंबे काल में हास्य की रचनाएँ यदा कदा होती ही रही हैं परंतु वे प्राय: फुटकर ढंग की ही रचनाएँ रही हैं। तुलसीदास जी के रामचरिमानस का नारदमोह प्रसंग शिवविवाह प्रसंग, परशुराम प्रसंग आदि और सूरदास जी के सूरसागर का माखनचोरी प्रसंग, उद्धव-गोपी-संवाद प्रसंग आदि अलबत्ता हास्य के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। तुलसीदास जी का निम्न छंद, जिसमें जराजर्जर तपस्वियों की शृंगारलालसा पर मजेदार चुटकी ली गई है, अपनी छटा में अपूर्व है-
: विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे
: गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।
: ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे
: कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे।।
बीरबल के चुटकुले, लाल बुझक्कड़ के लटके, घाघ और भड्डरी की सूक्तियाँ, गिरधर कविराय और गंग के छंद, बेनी कविराज के भड़ौवे तथा और भी कई रचनाएँ इस काल की प्रसिद्ध हैं। भारतजीवन प्रेस ने इस काल की फुटकर हास्य रचनाओं का कुछ संकलन अपने "भड़ोवा संग्रह" में प्रकाशित किया था। इस काल में, विशेषत: दान के प्रसंग को लेकर, कुछ मार्मिक रचनाएँ हुई हैं जिनकी रोचकता आज भी कम नहीं कही जा सकती। उदाहरण देखिए -
: चीटे न चाटते मूसे न सूँघते, बांस में माछी न आवत नेरे,
: आनि धरे जब से घर मे तबसे रहै हैजा परोसिन घेरे,
: माटिहु में कछु स्वाद मिलै, इन्हैं खात सो ढूढ़त हर्र बहेरे,
: चौंकि परो पितुलोक में बाप, सो आपके देखि सराध के पेरे।।
एक सूम ने संकट में तुलादान करना कबूल कर लिया था। उसके लिए अपना वजन घटाने की उसकी तरकीबें देखिए -
: बारह मास लौं पथ्य कियो, षट मास लौं लंघन को कियो कैठो
: तापै कहूँ बहू देत खवाय, तो कै करि द्वारत सोच में पैठो
: माधौ भनै नित मैल छुड़ावत, खाल खँचै इमि जात है ऐंठो
: मूछ मुड़ाय कै, मूड़ घोटाय कै, फस्द खोलाय, तुला चढ़ि बैठो।।
वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का बहुत विस्तार हुआ है। इस युग में पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। प्रमुख हैं नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध। इन सभी विधाओं में हास्यरस के अनुकूल प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा गया और लिखा जा रहा है। प्रतिभाशाली लेखकों ने पद्य के साथ ही गद्य की विविध विधाओं में भी अपनी हास्यरसवर्धिनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। इस युग के प्रारंभिक दिनों के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार हैं भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र। इनके नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति", "अंधर नगरी" आदि उनकी कृतियाँ हैं। उनका "चूरन का लटका" प्रसिद्ध है। उनके ही युग के लाला [[श्रीनिवास दास]], श्री [[प्रतापनारायण मिश्र]], श्री [[राधाकृष्णदास]], श्री [[प्रेमधन]], श्री [[बालकृष्ण भट्ट]] आदि ने भी हास्य की रचनाएँ की हैं। श्री प्रतापनारायण मिश्र ने "कलिकौतुक रूपक" नामक सुंदर प्रहसन लिखा है। "बुढ़ापा" नामक उनकी कविता शुद्ध हास्य की उत्तम कृति है।
उस समय अंग्रेजी राज्य अपने गौरव पर था जिसकी प्रत्यक्ष आलोचना खतरे से खाली नहीं थी। अतएव साहित्यकारों ने, विशेषत: व्यंग और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था।
वर्तमान काल में [[उपेंद्रनाथ अश्क]] ने "पर्दा उठाओ, परदा गिराओ" आदि कई नई सूझवाले [[एकांकी]] लिखे हैं। [[डॉ. रामकुमार वर्मा]] का एकांकी संग्रह "रिमझिम" इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, [[उदयशंकर भट्ट]], [[भगवतीचरण वर्मा]], [[प्रभाकर माचवे]], [[जयनाथ नलिन]], [[बेढब बनारसी]], [[कांतानाथ चोंच]],
[[राहुल सांकृत्यायन]], [[सेठ गोविंद दास]], [[श्रीनारायण चतुर्वेदी]], [[अमृतलाल नागर]], [[डा. बरसानेलाल जी]], [[वासुदेव गोस्वामी]], [[बेधड़क]] जी, विप्र जी, [[भारतभूषण अग्रवाल]] आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य के इस उपादेय अंग की समृद्धि की है।
अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के "सुभाषित आणि विनोद" नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, "गुलिवर्स ट्रैवेल्स" का, "डान क्विकज़ोट" का, सरशार के "फिसानए आज़ाद" का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।
==इन्हें भी देखें==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://mihirpandya.com/2010/12/top-15-comedy-films/ हिन्दी सिनेमा इतिहास की पंद्रह सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्में]
[[श्रेणी:साहित्य]]
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