"सायकिल": अवतरणों में अंतर

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== इतिहास ==
यूरोपीय देशों में बाइसिकिल के प्रयोग का विचार लोगों के दिमाग में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही आ चुका था, लेकिन इसे मूर्त्तरूप पैरिस नगर के एक कारीगर ने सन् 1816 में सर्वप्रथम दिया। उस यंत्र को हॉबी हॉर्स, अर्थात् काठ का घोड़ा, कहते थे। पैर से घुमाए जानेवाले क्रैंकों (पैडल) युक्त पहिए का आविष्कार सन् 1865 ई. में पैरिस निवासी लालेमें (Lallement) ने किया। इस यंत्र को वेलॉसिपीड (velociped) कहते थे । इसपर चढ़नेवाले को बेहद थकावट हो जाती थी। अत: इसे हाड़तोड (bone shaker) भी कहने लगे। इसकी सवारी, लोकप्रिय हो जाने के कारण, इसकी बढ़ती माँग को देखकर [[इंग्लैंड]], [[फ्रांस]] और [[अमरीका]] के यंत्रनिर्माताओं ने इसमें अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर सन् 1872 में एक सुंदर रूप दे दिया, जिसमें लोहे की पतली पट्टी के तानयुक्त पहिए लगाए गए थे । इसमें आगे का पहिया 30 इंच से लेकर 64 इंच व्यास तक और पीछे का पहिया लगभग 12 इंच व्यास का होता था। इसमें क्रैंकों के अतिरिक्त गोली के वेयरिंग और ब्रेक भी लगाए गए थे।
 
'''[[भारत]]''' में भी साइकिल के पहियों ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई। 1947 में आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल ट्रांसपोर्ट सिस्टम का अनिवार्य हिस्सा रही। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह निजी ट्रांसपोर्ट का सबसे ताकतवर और किफायती जरिया था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के बूते चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से चिट्ठियां बांटते हैं।
 
जमाना बदला और कूरियर सेवाएं ज्यादा भरोसेमंद बन गईं, लेकिन साइकिल की अहमियत यहां भी खत्म नहीं हुई। बड़ी संख्या में कूरियर बॉय भी साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। 1990 में देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई और तेज आर्थिक बदलाव का सिलसिला शुरू हुआ। देश की युवा पीढ़ी को मोटरसाइकिल की सवारी ज्यादा भा रही थी। लाइसेंस परमिट राज में स्कूटर के लिए सालों इंतजार करने वालों का धैर्य चुक गया था। उदारीकरण के कुछ साल बाद शहरी मध्यवर्ग को अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा खर्च करने में हिचक नहीं थी। शहरों में मोटरसाइकिल का क्रेज बढ़ रहा था। गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। राजदूत, बुदेर और बजाज के स्कूटर नए भारत में पीछे छूट रहे थे। हीरो होंडा देश की नई धड़कन बन रही थी। यह बदलाव आने वाले सालों में और तेज हुआ। देश में बदलाव के दोनों पहिये बदल गए थे। इसके बावजूद भारत में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा साइकिल भारत में बनती हैं।
 
नब्बे के दशक के बाद से साइकिलों की बिक्री के ट्रेंड में अहम बदलाव आया है। साइकिलों की कुल बिक्री में बढ़ोतरी आई है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी बिक्री में गिरावट आई है। आसान फंडिंग की बदौलत लोग मोटरसाइकिल को इन इलाकों में ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। दरअसल, 1990 से पहले जो भूमिका साइकिल की थी, उसकी जगह गांवों और शहरों में मोटरसाइकिल ने ले ली। 2002-03 में दोपहिया गाडि़यों की बिक्री (स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, इलेक्ट्रिक टू व्हीलर) जहां 48.12 लाख थी, वह 2008-09 में बढ़कर 74.37 लाख हो गई थी। इसका मतलब यह है कि पिछले कारोबारी साल में देश में जितनी साइकिल बिकीं, उतनी ही बिक्री दोपहियों (स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, इलेक्ट्रिक टू व्हीलर) की भी रही।
 
== सायकिल के विभिन्न भाग ==