"तत्त्व (जैन धर्म)": अवतरणों में अंतर

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जैन तत्त्वमीमांसा सात(कभी-कभी नौ, उपश्रेणियाँ मिलाकर) सत्य अथवा मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिन्हें तत्त्व कहा जाता है| यह मानव दुर्गति की प्रकृति और उसका निदान करने का प्रयास है| प्रथम दो सत्यों के अनुसार, यह स्वयंसिद्ध है कि जीव और अजीव का अस्तित्व है| तीसरा सत्य है कि दो पदार्थों, जीव और अजीव के मेल से, जो योग कहलाता है, कर्म द्रव्य जीव में प्रवाहित होता है| यह जीव से चिपक जाता है और कर्म में बदल जाता है| चौथा सत्य बंध का कारक है, जो चेतना (जो जीव के स्वभाव में है) की अभिव्यक्ति को सीमित करता है| पांचवां सत्य बताता है कि नए कर्मों की रोक (संवर), सही चारित्र (सम्यकचारित्र), सही दर्शन (सम्यकदर्शन) एवं सही ज्ञान (सम्यकज्ञान) के पालन के माध्यम से आत्मसंयम द्वारा संभव है| गहन आत्मसंयम द्वारा मौजूदा कर्मों को भी जलाया जा सकता, इस छटवें सत्य को "निर्जरा" शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है| अंतिम सत्य है कि जब जीव कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, तो मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त हो जाता है, जो जैन शिक्षा का लक्ष्य है|
 
==जीव==
[[जैन धर्म]] के अनुसार आत्मा (जीव) एक वास्तविकता के रूप में मौजूद है| आत्मा जिस शरीर में रहती है, आत्मा का उससे अलग अस्तित्व होता है| चेतना और उपयोग (ज्ञान और धारणा) जीव के लक्षण होते है| हालाँकि, जीव जन्म और मृत्यु दोनों का बोध करता है, पर असलियत में इसका निर्माण और विनाश नहीं होता है| मृत्यु और जन्म केवल जीव के एक अवस्था के खत्म होने और अगली दशा के शुरू होने को दर्शाती है|
 
==अजीव==
अजीव, वे पांच प्राणरहित पदार्थ हैं, जो जीव के साथ मिलकर इस ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं| पांच अजीव हैं-
*पुद्गल
*धर्म तत्त्व और अधर्म तत्त्व
*आकाश
*काल