"वाक्यपदीय": अवतरणों में अंतर
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इस प्रकार शब्द के आगमिक स्वरूप का विवेचन तथा शब्द ही से समस्त जगत् की सृष्टि का निरूपण ब्रह्मकांड में है।
==द्वितीय काण्ड= = ह्
द्वितीय कांड में "पद" वाचक है या "वाक्य" इसका विशद विचार है। भिन्न-भिन्न मतों का आलोचन है। इसी कांड में भर्तृहरि ने कहा है - शब्द और अर्थ एक ही परमतत्व के दो भेद हैं जो पृथक् नहीं रहते (2।31)। ऋषियों को तत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है किंतु उससे व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए व्यवहार के समय उन अनिर्वचनीय तत्वों का जिस प्रकार लोग व्यवहार करते हों उसी तरह सभी को करना चाहिए (2।143)। "प्रतिभा" को सभी प्रामाणिक मानते हैं और इसी के बल से पक्षियों के भी व्यवहार का ज्ञान लोगों को होता है (2।149)। बीज बोने के साथ साथ "लाह" का रस आदि पदार्थ के मिला देने से उस बीज के फलों के रंग में तथा उसके फलों में भेद हो जाता है। "शास्त्रार्थ" की प्रक्रिया केवल अज्ञ लोगों को समझाने के लिए है, न कि तत्व के प्रतिपादन के लिए। शास्त्रों में प्रक्रियाओं के द्वारा अविद्या का ही विचार है। "अविद्या" के उपमर्दन के पश्चात् आगम के विकल्पों से रहित शास्त्रप्रक्रिया प्रपंचशून्य होने पर "विद्या" के रूप में प्रकट होती है। इसीलिए कहा है कि असत्य के मार्ग के द्वारा ही सत्य की प्राप्ति होती है, जैसे बालकों को पढ़ाते समय उन्हें पहले शास्त्रों का प्रतिपादन केवल प्रतारणमात्र होता है। इत्यादि दार्शनिक रूप से व्याकरण के तत्वों का विचार 493 कारिकाओं में दूसरे कांड में है।
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