"विकिपीडिया:निर्वाचित विषय वस्तु": अवतरणों में अंतर

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आज जब हमारी प्राचीन वैदिक ज्ञानसंपदा सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक , नैतिक , धार्मिक ,वैज्ञानिक , पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की दृfष्ट से सही साबित हो रही है , तो फिर विश्वविद्यालयों में ज्योतिष की पढ़ाई को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है ? वैज्ञानिक संसाधनों के अभाव के बावजूद हमारे ऋषि मुनियों के द्वारा `गणित ज्योतिष´ का विकास जब इतना सटीक है , तो उन्हीं के द्वारा विकसित `फलित ज्योतिष´ अंधविश्वास कैसे हो सकता है ? भले ही सदियों की उपेक्षा के कारण वह अन्य विज्ञानों की तुलना में कुछ पीछे रह गया हो और इस कारण उसके कुछ सिद्धांत आज की कसौटी पर खरे न उतरते हों। भले ही व्यक्ति अपनी मेहनत , अपने स्तर और अपने कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त करता हो , किन्तु उनकी परिस्थितियों और चारित्रिक विशेषताओं पर ग्रह का ही नियंत्रण होता है और `गत्यात्मक ज्योतिष´ द्वारा इसे सिद्ध किया जा सकता है।
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मानव जब जंगल में रहते थे , उस समय भी उनकी जन्मपत्री बनायी जाती , तो वैसी ही बनती , जैसी आज के युग में बनती है। वही बारह खानें होते , उन्हीं खानों में सभी ग्रहों की स्थिति होती , विंशोत्तरी के अनुसार दशाकाल का गणित भी वही होता , जैसा अभी होता है। आज भी अमेरिका जैसे उन्नत देश तथा अफ्रीका जैसे पिछड़े देश में लोगों की जन्मपत्र एक जैसी बनती है। मानव जाति ने अपने बुfद्ध के प्रयोग से जंगलों की कंदराओं को छोड़कर सभ्य और प्रगतिशील समाज की स्थापना की है , ये सब किसी के भाग्य में लिखे नहीं थे , ये चिंतन , अन्वेषण और प्रयोग के ही परिणाम हैं। लेकिन यह तो मानना ही होगां कि इसके लिए प्रकृति ने अन्य जानवरों की तुलना में मानव को अतिरिक्त बुfद्ध से नवाजा। यदि यह नहीं होता , तो मनुष्य आज भी पशुओं की तरह ही होते। बस इसी तरह प्रकृति हमारी मदद करती है।
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विश्वविद्यालय में ज्योतिष का प्रवेश विवाद का विषय नहीं होना चाहिए , विवाद सिर्फ इसपर हो कि ज्योतिष के विभाग में नियुक्ति किनकी हो और पुस्तकें कैसी रखी जाएं ? यदि इसमें भी राजनीति हुई , तो ज्योतिष जैसा पवित्र विभाग भी मैला हो जाएगा।
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