"कुमाऊँ": अवतरणों में अंतर

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==कुमाऊँ के मूल निवासी==
 
प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में निश्चित रूप से कहना कठिन है कि मूलतः कुमाऊँ क्षेत्र में किन-किन मानव जातियों का प्रभुत्व था। महाभारत, पुराण और प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध कतिपय सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि यहाँ किरात, किन्नर, यक्ष, तंगव, कुलिंद, खस इत्यादि जातियाँ निवास करती थीं। महाभारत के वन पर्व में मध्य हिमालय की उपत्यकाओं में निवास करने वाली जातियों को किरात, तंगव तथा कुलिंट बताया गया है। '''किरांततंगणाकीर्ण कुलिंद शत संकुलम्‌ ।''' [[युधिष्ठिर]] के [[राजसूय-यज्ञ]] में उपस्थितों के नाम गिनाते हुए दुर्योधन कहता है कि [[मेरु]] मंदिर पर्वतों के मध्य [[शैलोक्ष]] नदी के किनारे निवास करने वाले खस-एकासन, पारद, कुलिंद, तंगव और परतंगण नामक पर्वतीय राजा काले रंग का चंबर और पिपीलिका जाति का स्वर्ण लाए थे। (महाभारत वनपर्व अध्याय ५२) [[द्रोणपर्व]] में आया है कि उक्त पर्वतीय जातियों ने [[पत्थर]] के हथियारों से महाभारत की लड़ाई में [[दुर्योधन]] की ओर से भाग लेकर कृष्ण के सारथी सात्यकि पर चारों ओर से पथराव किया था, किन्तु सात्यकि के नाराचों के समक्ष वे न टिक सके। (महाभारत द्रोणपर्व अध्याय १४१/४२-४३)[[ब्रह्मपुराण]] और [[वायुपुराण]] में मध्य [[हिमालय]] में [[किरात]], [[किन्नर]], [[यक्ष]], [[गंधर्व]], [[विद्याधर]], [[नाग]], इत्यादि जातियों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। [[स्कंदपुराण]] के मानस खंड में [[कोसी]] (कौशिकी) स्थित काषाय पर्वत नाम से वर्णित गिरिमाला को [[अल्मोड़ा]] का पहाड़ी भू-भाग माना गया है-
===पौराणिक काल===
प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में निश्चित रूप से कहना कठिन है कि मूलतः कुमाऊँ क्षेत्र में किन-किन मानव जातियों का प्रभुत्व था। महाभारत, पुराण और प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध कतिपय सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि यहाँ किरात, किन्नर, यक्ष, तंगव, कुलिंद, खस इत्यादि जातियाँ निवास करती थीं। महाभारत के वन पर्व में मध्य हिमालय की उपत्यकाओं में निवास करने वाली जातियों को किरात, तंगव तथा कुलिंट बताया गया है।
 
'''किरांततंगणाकीर्ण कुलिंद शत संकुलम्‌ ।'''
[[युधिष्ठिर]] के [[राजसूय-यज्ञ]] में उपस्थितों के नाम गिनाते हुए दुर्योधन कहता है कि [[मेरु]] मंदिर पर्वतों के मध्य [[शैलोक्ष]] नदी के किनारे निवास करने वाले खस-एकासन, पारद, कुलिंद, तंगव और परतंगण नामक पर्वतीय राजा काले रंग का चंबर और पिपीलिका जाति का स्वर्ण लाए थे। (महाभारत वनपर्व अध्याय ५२)
 
[[द्रोणपर्व]] में आया है कि उक्त पर्वतीय जातियों ने [[पत्थर]] के हथियारों से महाभारत की लड़ाई में [[दुर्योधन]] की ओर से भाग लेकर कृष्ण के सारथी सात्यकि पर चारों ओर से पथराव किया था, किन्तु सात्यकि के नाराचों के समक्ष वे न टिक सके। (महाभारत द्रोणपर्व अध्याय १४१/४२-४३)
 
[[ब्रह्मपुराण]] और [[वायुपुराण]] में मध्य [[हिमालय]] में [[किरात]], [[किन्नर]], [[यक्ष]], [[गंधर्व]], [[विद्याधर]], [[नाग]], इत्यादि जातियों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। [[स्कंदपुराण]] के मानस खंड में [[कोसी]] (कौशिकी) स्थित काषाय पर्वत नाम से वर्णित गिरिमाला को [[अल्मोड़ा]] का पहाड़ी भू-भाग माना गया है-
 
'''कौशिकी शाल्मली मध्ये पुण्यः काषाय पर्वतः।
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विन्यस्यन्ती भूविगणनया देहलीदन्त पुष्पै : (उ. मेघदूत ७०)'''
 
सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों में यह परिपाटी कुमाऊँ में विभिन्न त्येहारों के अवसरों पर आज भी विद्यमान है। यक्ष जाति के अलावा आदि युग में कुमाऊँ में नाग जाति के निवास के संकेत भी मिलते हैं। पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग नामक स्थान में बीनाग/बेनीनाग का प्रसिद्ध मंदिर है। नागों के नाम पर कुमाऊँ में और भी कई मंदिर है। जैसे धौलनाग, कालीनाग, पिंगलनाग, खरहरीनाग, बासुकि नाग, नागदेव इत्यादि। कुमाऊँ की आदिम जातियों में यक्ष और नाग जाति के अस्तित्व की कल्पना अनुमानों पर आधारित है किन्तु किरात जाति के संबंध में कुछ समाज शास्त्रीय एवं नृवैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक युग में कुमाऊँ-गढ़वाल के भू-भाग किरात, मंगोल आदि आर्येतर जातियों के निवास क्षेत्र रहे, जिन्हें कालान्तर में उत्तर-पश्चिम की ओर से आने वाले अवैदिक खस आर्यों ने विजित कर लिया। यह भी सम्भावना है कि इस प्रदेश पर आग्नेय परिवार की मुंडा भाषा-भाषी किरात जाति का प्रभुत्व दीर्घकाल तक रहा, अन्यथा प्राचीन काल में इसे किरातमण्डल की संज्ञा न मिलती। अपने स्वतंत्र भाषाई अस्तित्व के साथ किरातों के वंशज आज भी कुमाऊँ के अस्कोट एवं डीडीहाट नामक स्थानों में मौजूद हैं। कुमाऊँ की बोलियों में आज भी अनेक ऐसे शब्द प्रचलित हैं, जो प्रागैतिहासिक किरातों की बोली के अवशेष प्रतीत होते हैं, जैसे- ठुड़ (पत्थर), लिडुण (लिंगाकार कुंडलीमुखी जलीय पौधा), जुंग (मूंद्द), झुगर (अनाज का एक प्रकार), फांग (शाखा), ठांगर (बेलयुक्त पौधों को सहारा देने के लिए लगाई जाने वाली वृक्ष की सूखी शाखा), गांग (नदी), ल्यत (बहुत गीली मिट्टी) आदि शब्दावली के अतिरिक्त कतिपय-व्याकरण तत्व भी आग्नेय परिवार की भाषाओं से समानता रखते हैं, जैसे कुमाऊँनी कर्म कारक सूचक कणि/कन प्रत्यय मुंडा की भोवेसी तथा कोर्क बालियों में के/किन या खे/खिन है। बीस के समूह के आधार पर गिनने की पद्धति राजी और कुमाऊँनी में समान रूप से मिलती है। बीस के समूह के लिए कुमाऊँनी में बिसि शब्द है।
सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों में यह परिपाटी कुमाऊँ में विभिन्न त्येहारों के अवसरों पर आज भी विद्यमान है।
 
यक्ष जाति के अलावा आदि युग में कुमाऊँ में नाग जाति के निवास के संकेत भी मिलते हैं। पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग नामक स्थान में बीनाग/बेनीनाग का प्रसिद्ध मंदिर है। नागों के नाम पर कुमाऊँ में और भी कई मंदिर है। जैसे धौलनाग, कालीनाग, पिंगलनाग, खरहरीनाग, बासुकि नाग, नागदेव इत्यादि। कुमाऊँ की आदिम जातियों में यक्ष और नाग जाति के अस्तित्व की कल्पना अनुमानों पर आधारित है किन्तु किरात जाति के संबंध में कुछ समाज शास्त्रीय एवं नृवैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक युग में कुमाऊँ-गढ़वाल के भू-भाग किरात, मंगोल आदि आर्येतर जातियों के निवास क्षेत्र रहे, जिन्हें कालान्तर में उत्तर-पश्चिम की ओर से आने वाले अवैदिक खस आर्यों ने विजित कर लिया। यह भी सम्भावना है कि इस प्रदेश पर आग्नेय परिवार की मुंडा भाषा-भाषी किरात जाति का प्रभुत्व दीर्घकाल तक रहा, अन्यथा प्राचीन काल में इसे किरातमण्डल की संज्ञा न मिलती। अपने स्वतंत्र भाषाई अस्तित्व के साथ किरातों के वंशज आज भी कुमाऊँ के अस्कोट एवं डीडीहाट नामक स्थानों में मौजूद हैं।
 
कुमाऊँ की बोलियों में आज भी अनेक ऐसे शब्द प्रचलित हैं, जो प्रागैतिहासिक किरातों की बोली के अवशेष प्रतीत होते हैं, जैसे- ठुड़ (पत्थर), लिडुण (लिंगाकार कुंडलीमुखी जलीय पौधा), जुंग (मूंद्द), झुगर (अनाज का एक प्रकार), फांग (शाखा), ठांगर (बेलयुक्त पौधों को सहारा देने के लिए लगाई जाने वाली वृक्ष की सूखी शाखा), गांग (नदी), ल्यत (बहुत गीली मिट्टी) आदि शब्दावली के अतिरिक्त कतिपय-व्याकरण तत्व भी आग्नेय परिवार की भाषाओं से समानता रखते हैं, जैसे कुमाऊँनी कर्म कारक सूचक कणि/कन प्रत्यय मुंडा की भोवेसी तथा कोर्क बालियों में के/किन या खे/खिन है। बीस के समूह के आधार पर गिनने की पद्धति राजी और कुमाऊँनी में समान रूप से मिलती है। बीस के समूह के लिए कुमाऊँनी में बिसि शब्द है।
 
किरात जाति के अलावा कुमाऊँ क्षेत्र में हिमालय के उत्तरांचल में निवास करने वाली भोटिया जाति का भी प्रभुत्व रहा। भोटिया शब्द मूलतः बोट या भोट है। तिब्बत को भोट देश या भूटान भी कहा जाता है तथा उस देश से संबंधित होने के कारण वहाँ के निवासियों को भोटिया कहा गया। भोटियों की भाषा तिब्बती कही गई। यह तिब्बती से निकटता रखती है। जोहार दारमा, ब्याँस तथा चौदाँस की भाषा में स्थानगत विभेद पाए जाते हैं। भोटियों की बोली जोहारी पर कुमाऊँनी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ मुंडा तथा तिब्बती परिवार की भाषा बोलने वाले लोग निवास करते रहे होंगे।
 
कुमाऊँ में शक संवत् के प्रचलन एवं अल्मोड़ा में कोसी के समीप स्थित कटारमल सूर्य मंदिर के अस्तित्व से इस संभावना की पुष्टि होती है कि किरात, राजी, नाग इत्यादि आदिम जातियों के पश्चात यहाँ शक जाति का अस्तित्व रहा है। गडनाथ, जागनाथ, भोलानाथ आदि लोक देवताओं के मंदिरों तथा गणनाथ आदि नामों के आधार पर यहाँ नाथ जाति के अस्तित्व की भी संभावना व्यक्त की जा सकती है। इतना निर्विवाद है कि कुमाऊँ के आदि निवासी कोल, किरात, राजी नाग, हूण, शक, बौर, थारु, बोक्सा, भोटिया और खस जाति के लोग हैं। इनमें सबसे सशक्त जाति खस थी, जो अन्य जातियों के बाद कुमाऊँ में आई। यहां भाषा और संस्कृति की आधार भूमि के निर्माण में भी खसों का योगदान रहा है।
 
किरात जाति के अलावा कुमाऊँ क्षेत्र में हिमालय के उत्तरांचल में निवास करने वाली भोटिया जाति का भी प्रभुत्व रहा। भोटिया शब्द मूलतः बोट या भोट है। तिब्बत को भोट देश या भूटान भी कहा जाता है तथा उस देश से संबंधित होने के कारण वहाँ के निवासियों को भोटिया कहा गया। भोटियों की भाषा तिब्बती कही गई। यह तिब्बती से निकटता रखती है। जोहार दारमा, ब्याँस तथा चौदाँस की भाषा में स्थानगत विभेद पाए जाते हैं। भोटियों की बोली जोहारी पर कुमाऊँनी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ मुंडा तथा तिब्बती परिवार की भाषा बोलने वाले लोग निवास करते रहे होंगे। कुमाऊँ में शक संवत् के प्रचलन एवं अल्मोड़ा में कोसी के समीप स्थित कटारमल सूर्य मंदिर के अस्तित्व से इस संभावना की पुष्टि होती है कि किरात, राजी, नाग इत्यादि आदिम जातियों के पश्चात यहाँ शक जाति का अस्तित्व रहा है। गडनाथ, जागनाथ, भोलानाथ आदि लोक देवताओं के मंदिरों तथा गणनाथ आदि नामों के आधार पर यहाँ नाथ जाति के अस्तित्व की भी संभावना व्यक्त की जा सकती है। इतना निर्विवाद है कि कुमाऊँ के आदि निवासी कोल, किरात, राजी नाग, हूण, शक, बौर, थारु, बोक्सा, भोटिया और खस जाति के लोग हैं। इनमें सबसे सशक्त जाति खस थी, जो अन्य जातियों के बाद कुमाऊँ में आई। यहां भाषा और संस्कृति की आधार भूमि के निर्माण में भी खसों का योगदान रहा है। मूलतः आर्य जाति से संबंधित होते हुए भी खस ऋग्वेद के निर्माण से पूर्व अपने मूल आर्य भाइयों से अलग होकर पृथक-पृथक दलों में मध्य एशिया से पूर्व दिशा में की ओर चले होंगे। यही कारण है कि वे अवैदिक आर्य भी कहलाते हैं। अनुमान है कि वे ई.पू. द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग पश्चिम से पूर्व की ओर भारत के विभिन्न भागों में फैल गए। कुमाऊँ में खसों के प्रवेश का निश्चित समय बताना दुष्कर कार्य है, तो भी इतना निश्चित है कि यहाँ राजपूतों के आगमन से पूर्व खसों का प्रभुत्व था।
 
==कुमाऊँ के शासक==