"यज्ञ": अवतरणों में अंतर
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यज्ञ, योग की विधि है जो परमात्मा द्वारा ही हृदय में सम्पन्न होती है। जीव के अपने सत्य परिचय जो परमात्मा का अभिन्न ज्ञान और अनुभव है, यज्ञ की पूर्णता है। यह शुद्ध होने की क्रिया है। इसका संबंध अग्नि से प्रतीक रूप में किया जाता है।
अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृताम वर ॥ 4/8 भगवत गीता
शरीर या देह के दासत्व को छोड़ देने का वरण या निश्चय करने वालों में, यज्ञ अर्थात जीव और आत्मा के योग की क्रिया या जीव का आत्मा में विलय, मुझ परमात्मा का कार्य है।
यज्ञ की विधि क्या है?
अग्नि को पावक कहते हैं क्योंकि यह अशुद्धि को दूर करती है। लोहे की असस्क को भीषण गर्मी में तपने के बाद, वह लोहा बन कर निकलता है। यह क्रिया भी लोहे का यज्ञ है।
पारंपरिक विधि में यज्ञ की इस विधि को प्रतीकों से समझाया जाता रहा है। कुछ लोग उस अग्नि क्रिया को गलती से यज्ञ मान लेते हैं।
अग्नि में दूध के छींटे पडने से अग्नि बुझने लगती है। अग्नि और दूध के जल का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान देता है कि मनुष्य के अनियंत्रित विचार या अनुभव, संसार में अर्थहीन हैं और वह प्राकृतिक सिद्धांतों द्वारा नहीं फैल सकता । कोई भी अनुभव सर्व व्यापी नहीं होता। कोई व्यक्ति जो दुखी है वह अपने दुख के अनुभव को कैसे व्यक्त कर सकता है? और यदि वह अपनी बात कहता भी है या रोता बिलखता है, तो भी कोई दूसरा व्यक्ति उस दुख को नहीं समझ सकता।
दूध को मथने से उसका जल और घी अलग अलग हो जाते हैं। अब उसी अग्नि में घी डाला जाता है, जिस से अग्नि उसे प्रकाश में परिवर्तित कर देती है। । अग्नि और घी का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान देता है कि जब ज्ञान को उसी अग्नि रूपी सत्य में डाल दिया जाता है तब इस कर्म का प्रभाव अलग हो जाता है और अग्नि उस ज्ञान को संसार में प्रकाशित हो अंधकार को दूर करती है।
मुदिता मथइ, विचार मथानी । दम आधार, रज्जु सत्य सुबानी ।
तब मथ काढ़ि, लेइ नवनीता । बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥ 116.8 उत्तरकाण्ड
बिमल ज्ञान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छायी ॥ 121.6 उत्तरकांड
प्रसन्नता के साथ, सांसरिक विचारों को मथ कर उसे शुद्ध करने की क्रिया, इंद्रियों के संयम को खंबे की तरह खड़ा कर, सत्य और वाणी के रस्सी द्वारा की जाती है। दूध अर्थात संसार के विचार के इसी तरह मथने से घी निकाला जाता है, जिसमें मल अर्थात अशुद्धि नहीं होती, और उसमें उत्सर्ग या वैराग्य होता है, और वह सुंदर और पवित्र है। जो भी उस निर्मल या मल रहित, ज्ञान से स्नान करता है, उसके हृदय में श्री राम की भक्ति, अपने आप परिछायी की तरह आ जाती है।
दूध, घी और अग्नि और प्रकाश, क्रमशः अनुभव और ज्ञान और विवेक और सत्य हैं और यज्ञ उनका एक सामंजस्य है।
यज्ञ का अर्थ जबकि योग है किन्तु इसकी शिक्षा व्यवस्था में अग्नि और घी के प्रतीकात्मक प्रयोग में पारंपरिक रूचि का कारण अग्नि के भोजन बनाने में, या आयुर्वेद और औषधीय विज्ञान द्वारा वायु शोधन इस अग्नि से होने वाले धुओं के गुण को यज्ञ समझ इस 'यज्ञ' शब्द के प्रचार प्रसार में बहुत सहायक रहे।
'''यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं-''' १- देवपूजा, २-दान, ३-संगतिकरण । संगतिकरण का अर्थ है-संगठन । यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन के लिए संगठित करना भी है । इस युग में संघ शक्ति ही सबसे प्रमुख है । परास्त देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए प्रजापति ने उसकी पृथक्-पृथक् शक्तियों का एकीकरण करके संघ-शक्ति के रूप में दुर्गा शक्ति का प्रादुर्भाव किया था । उस माध्यम से उसके दिन फिरे और संकट दूर हुए । मानवजाति की समस्या का हल सामूहिक शक्ति एवं संघबद्धता पर निर्भर है, एकाकी-व्यक्तिवादी-असंगठित लोग दुर्बल और स्वार्थी माने जाते हैं । गायत्री यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक रूप से, जन सहयोग से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है ।
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