"चीनी दर्शन": अवतरणों में अंतर

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== चीनी दर्शन की उत्पत्ति ==
[[चित्र:I Ching Song Dynasty print.jpg|right|thumb|300px|चीनी दर्शन का प्राचीन ग्रंथ 'यी चिंग']]
भारतीय एवं चीनी दर्शनों के मध्य अनेक समानताएँ हैं। जिस प्रकार [[भारतीय दर्शन]] चारों [[वेद|वेदों]], विशेषकर [[ऋग्वेद]] से प्रारंभ होता है, उसी प्रकार चीनी दर्शन छह "चिंग" या भागों, विशेषतया "यी चिंग" (''Yì Jīng'' (pinyin) या 'परिवर्तनों की पुस्तक' से आरंभ होता है। इस पुस्तक के रचनाकार फू-जी (Fu Xi) हैं।
 
"यी चिंग" का आरंभ 64 प्रतीकों से होता है जिन्हें "कुआ" या रेखित चित्र कहते हैं। इन रेखित चित्रों में से प्रत्येक में छह सीधी रेखाएँ होती हैं जो टूटी हुई या बिना टूटी हुई या दोनों प्रकार की होती हैं। विदेशी विद्वानों ने इन्हें षड्रेखाकृति (hexagram) की भी संज्ञा दी है। ये षड्रेखाकृतियाँ आठ मौलिक एवं अधिक साधारणप्रतीकों द्वारा बनी हैं। प्रत्येक में तीन सीधी रेखाएँ बनी रहती हैं जो या तो खंडित हैं या बिना खंडित रहती हैं। इन्हें "पा कुआँ" या आठ "ट्रिग्राम" (trigram) कहते हैं।
 
इन आठ ट्रिग्रामों में से प्रत्येक को एक दूसरे से मिलाकर आठ बार गुणा करने से गुणनफल 64 षड्रेखाकृतियाँ होता है (8 x 8 = 64) जैसे :
 
परंपरा के अनुसार आठो ट्रिग्रामांट्रिग्रामों की रचना प्रथम प्राचीन सम्राट् [[फू-सी]] (2852-2738 ई.पू.) द्वारा मानी जाती है। आठो ट्रिग्रामों की 64 षड्रेखाकृतियों में गुणनफल की क्रिया का कार्य या फूसी ने स्वयं किया था या उसके उत्तराधिकारी ने किया था जिसका नाम द्वितीय प्राचीन सम्राट् [[शेङ-नुङ]] (2737-2698 ई.पू.?) था।
 
64 षड्रेखाकृतियों की रेखाएँ, जिनकी संख्या 384 है, "या ओ" के नाम स प्रचलित हैं। षड्रेखाकृतियों के साथ साथ उन्हें सांकेतिक रूप से प्रथम "त अई ची" कहते हैं जिनका अर्थ आद्य महान्, एक एवं परमसत्य है। दूसरा लि अङ-यी या दो सिंद्धांत, यथा, "यांग" (- ), जिसका अर्थ विधायक एवं पुरुषोचित शक्ति है, और "यिन" (- - ), का अर्थ निषेधक एवं स्त्रियोचित शक्ति है, तीसना "जू-सिआङ" जिसका अर्थ चार प्रतीक, यथा (1) प्राचीन यङ (=), (2) युवा यङ (= =), (3) प्राचीन यिन (= = ), (4) युवा यिन (= = ); और अंतिम, संपूर्ण विश्व के प्राकृतिक दृश्यों एवं सभी मानवीय उपकरणों के विकास की अभिव्यक्ति। दूसरे शब्दों में, आद्य महान् ने दो सिद्धांतों की सृष्टि की : दो सिद्धांत, चार प्रतीक, चार प्रतीक, संपूर्ण विश्व। यह "ताओ" की गति या सृष्टि के विकास का ढंग या मार्ग प्रकट करता है।
 
चौसठ षड्रेखाकृतियों के तुरंत बाद साहित्यिक पुस्तकों, की जिन्हें "कुआ-जय" कहते हैं अथवा षड्रेखाकृतियों के चिन्हसमूह और "याओ-जू" या रेखाओं के चिह्नसमूह कहते हैं, रचना का क्रम आता है। पहला, सभी षड्रेखाकृतियं के नामों और परिभाषाओं का वर्णन करता है। दूसरा, सभी षड्रेखकृतियें की प्रत्येक व्यक्तिगत रेखा के अभिप्रायों के नाम एवं संकेतां का विवरण उनके स्थानों एवं परिस्थितियों के अनुसार देता है। ये दोनों मूलपाठ [[वेद|वेदों]] की संहिताओं और ब्राह्मणों के समान है।
 
== चीनी दर्शन की शाखाएँ ==