"चरखा": अवतरणों में अंतर

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भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम महात्मा गांधी के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन्‌ 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन्‌ 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ 1918 में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला।
 
== खड़ा चरखा ==
 
इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था।
 
== इन्हें भी देखें ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/चरखा" से प्राप्त