"हिन्दी उपन्यास": अवतरणों में अंतर

छो HotCat द्वारा श्रेणी:उत्तम लेख हटाई
No edit summary
पंक्ति 3:
हिंदी में सामाजिक उपन्यासों का आधुनिक अर्थ में सूत्रपात [[प्रेमचंद]] (१८८०-१९३६) से हुआ। प्रेमचंद पहले [[उर्दू]] में लिखते थे, बाद में हिंदी की ओर मुड़े। आपके "सेवासदन', "रंगभूमि', "कायाकल्प', "गबन', "निर्मला', "गोदान', आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं, जिनमें ग्रामीण वातावरण का उत्तम चित्रण है। चरित्रचित्रण में प्रेमचंद गांधी जी के "हृदयपरिवर्तन' के सिद्धांत को मानते थे। बाद में उनकी रुझान समाजवाद की ओर भी हुई, ऐसा जान पड़ता है। कुल मिलाकर उनके उपन्यास हिंदी में आधुनिक सामाजिक सुधारवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
 
[[जयशंकर प्रसाद]] के "कंकाल' और "तितली' उपन्यासों में भिन्न प्रकार के समाजों का चित्रण है, परंतु शैली अधिक काव्यात्मक है। प्रेमचंद की ही शैली में, उनके अनुकरण से विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि अनेक लेखकों ने सामाजिक उपन्यास लिखे, जिनमें एक प्रकार का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद अधिक था। परंतु पांडेय बेचन शर्मा "उग्र', ऋषभचरण जैन, चतुरसेन शास्त्री आदि ने फरांसीसी ढंग का यथार्थवाद और प्रकृतवाद (नैचुरॉलिज़्म) अपनाया और समाज की बुराइयों का दंभस्फोट किया। इस शेली के उपन्यासकारों में सबसे सफल रहे "चित्रलेखा' के लेखक भगवतीचरण वर्मा, जिनके "टेढ़े मेढ़े रास्ते' और "भूले बिसरे चित्र' बहुत प्रसिद्ध हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क की "गिरती दीवारें' का भी इस समाज की बुराइयों के चित्रणवाली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। अमृतलाल नागर की "बूँद और समुद्र' इसी यथार्थवादी शैली में आगे बढ़कर आंचलिकता मिलानेवाला एक श्रेष्ठ उपन्यास है। सियारामशरण गुप्त की नारी' की अपनी अलग विशेषता है।
 
मनोवैज्ञानिक उपन्यास [[जैनेंद्रकुमार]] से शुरू हुए। "परख', "सुनीता', "कल्याणी' आदि से भी अधिक आप के "त्यागपत्र' ने हिंदी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैनेंद्र जी दार्शनिक शब्दावली में अधिक उलझ गए। मनोविश्लेषण में स. ही. वात्स्यायन "अज्ञेय' ने अपने "शेखर : एक जीवनी', "नदी के द्वीप', "अपने अपने अजनबी' में उत्तरोत्तर गहराई और सूक्ष्मता उपन्यासकला में दिखाई। इस शैली में लिखनेवाली बहुत कम मिलते हैं। सामाजिक विकृतियों पर इलाचंद्र जोशी के "संन्यासी', "प्रेत और छाया', "जहाज का पंछी' आदि में अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस शैली के उपन्यासकारों में धर्मवीर भारती का "सूरज का सातवाँ घोड़ा' और नरेश मेहता का "वह पथबंधु था' उत्तम उपलब्धियाँ हैं।
पंक्ति 13:
== हिंदी के प्रारंभिक उपन्यास ==
 
हिंदी के मौलिक कथासाहित्य का आरम्भ [[ईशा अल्लाह खाँ]] की "रानी केतकी की कहानी'" से होता है। भारतीय वातावरण में निर्मित इस कथा में लौकिक परंपरा के स्पष्ट तत्व दिखाई देते हैं। खाँ साहब के पश्चात्‌ पं. [[बालकृष्ण भट्ट]] ने "नूतन ब्रह्मचारी'" और "सौ अजान और एक सुजान'" नामक उपन्यासों का निर्माण किया। इन उपन्यासों का विषय समाजसुधार है।
 
भारतेंदु तथा उनके सहयोगियों ने राजनीतिज्ञ या समाजसुधारक के रूप में लिखा। बावू देवकीनंदन सर्वप्रथम ऐसे उपन्यासलेखक थे जिन्होंने विशुद्ध उपन्यासलेखक के रूप में लिखा। उन्होंने कहानी कहने के लिए ही कहानी कही। वह अपने युग के घात प्रतिघात से प्रभावित थे। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में खत्री जी ने जो परंपरा स्थापित की वह एकदम नई थी। प्रेमचंद ने भारतेंदु द्वारा स्थापित परंपरा में एक नई कड़ी जोड़ी। इसके विपरीत बाबू देवकीनंदन खत्री ने एक नई परंपरा स्थापित की। घटनाओं के आधार पर उन्होंने कहानियों की एक ऐसी शृंखला जोड़ी जो कहीं टूटती नजर नहीं आती। खत्री जी की कहानी कहने की क्षमता को हम ईशांकृत "रानी केतकी की कहानी' के साथ सरलतापूर्वक संबद्ध कर सकते हैं।
पंक्ति 19:
वास्तव में कथासाहित्य के इतिहास में खत्री जी की "चंद्रकांता' का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है। यह हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है। खत्री जी के उपन्यास साहित्य में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है। मर्यादा आपके उपन्यासों का प्राण है।
 
उपन्यास साहित्य की विकासयात्रा में पं. [[किशोरीलाल गोस्वामी]] के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। यह उपन्यासों की दिशा में घर करके बैठ गए। आधुनिक जीवन की विषमताओं के चित्र आपके जासूसी उपन्यासों में पाए जाते हैं। गोस्वामी जी के उपन्यास साहित्य में वासना का झीना परदा प्राय: सभी कहीं पड़ा हुआ है।
 
जासूसी उपन्यासलेखकों में बाबू [[गोपालराम गहमरी]] का नाम महत्वपूर्ण है। गहमरी जी ने अपने उपन्यासों का निर्माण स्वयं अनुभव की हुई घटनाओं के आधार पर किया है, इसलिए कथावस्तु पर प्रामाणिकता की छाप है। कथावस्तु हत्या या लाश के पाए जाने के विषयों से संबंधित है। जनजीवन से संपर्क होने के कारण उपन्यासों की भाषा में ग्रामीण प्रयोग प्राय: मिलते हैं।
पंक्ति 26:
 
हिंदी के आरम्भिक उपन्यासों का निर्माण लोकसाहित्य की आधारशिला पर हुआ। कौतूहल और जिज्ञासा के भाव ने इसे विकसित किया। आधुनिक जीवन की विषमताओं ने जासूसी उपन्यासों की कथा को जीवन के यथार्थ में प्रवेश कराया। असत्य पर सत्य की सदैव ही विजय होती है यह सिद्धांत भारतीय संस्कृति का केंद्रबिंदु है। हिंदी के आरम्भिक उपन्यासों में यह प्रवृत्ति मूल रूप से पाई जाती है।
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
[[श्रेणी:हिन्दी साहित्य]]