"व्याकरण": अवतरणों में अंतर

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व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है। वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है - बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए। भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, उसकी स्थितिप्रवृत्ति के अनुसार लोकशिक्षण करता है।
 
==महत्व==
 
== संसार का सर्वप्रथम व्याकरण ==
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हाँ, यदि कोई किसी भाषा का व्याकरण अपने अज्ञान से गलत बना दे, तो वह (व्याकरण) ही गलत होगा। भाषा उसका अनुगमन न करेगी और यों उस व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करने पर भी भाषा को कोई गलत न कह देगा। संस्कृत के एक वैयाकरण ने "पुंसु" के साथ "पुंक्षु" पद को भी नियमबद्ध किया; परंतु वह वहीं धरा रह गया। कभी किसी ने "पुंक्षु" नहीं लिखा बोला। पाणिनि ने "विश्रम" शब्द साधु बतलाया; "श्रम" की ही तरह "विश्रम"। परंतु संस्कृत साहित्य में "विश्राम" चलता रहा; चल रहा है और चलता रहेगा। भाषा की प्रवृत्ति है। जब पाणिनि ही भाषा के प्रवाह को न रोक सके, तो दूसरों की गिनती ही क्या।
 
'''== व्याकरण और भाषाविज्ञान ==
 
व्याकरण तथा [[भाषाविज्ञान]] दो शब्दशास्त्र हैं; दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न-भिन्न है; पर एक दूसरे के दोनों सहयोगी हैं। व्याकरण पदप्रयोग मात्र पर विचार करता है; जब कि भाषाविज्ञान "पद" के मूल रूप (धातु तथा प्रातिपदिक) की उत्पत्ति व्युत्पत्ति या विकास की पद्धति बतलाता है। व्याकरण यह बतलाएगा कि (निषेध के पर्य्युदास रूप में) "न" (नञ्) का रूप (संस्कृत में) "अ" या "अन्" हो जाता है। व्यंजनादि शब्दों में "अ" और स्वरादि में "अन्" होता है - "अद्वितीय", "अनुपम"। जब निषेध में प्रधानता हो, तब ("प्रसज्य प्रतिषेध" में) समास नहीं होता - अयं ब्राह्मणो नाऽस्ति", "अस्य उपमा नास्ति"। अन्यत्र "अब्राह्मणा: वेदाध्ययने मंदादरा: संति" और "अनुपमं काश्मीरसौंदर्य दृष्टम्" आदि में समास होगा; क्योंकि निषेध विधेयात्मक नहीं है। व्याकरण समास बता देगा और कहाँ समास ठीक रहेगा, कहाँ नहीं; यह सब बतलाना "साहित्य शास्त्र" का काम है। "न" से व्यंजन (न्) उढ़कर "अ" रह जाता है और ("न" के ही) वर्णत्य से "अन्" हो जाता है। इसी "अन्" को सस्वर करके "अन" रूप में "समास" के लिए हिंदी ने ले लिया है - "अनहोनी", "अनजान" आदि। "न" के ये विविध रूप व्याकरण बना नहीं देता; बने बनाए रूपों का वह "अन्वाख्यान" भर करता है। यह काम भाषाविज्ञान का है कि वह "न" के इन रूपों पर प्रकाश डाले।
 
व्याकरण बतलाएगा कि किसी धातु से "न" भाववाचक प्रत्यय करके उसमें हिंदी की संज्ञाविभक्ति "आ" लगा देने से (कृदंत) भाववाचक संज्ञाएँ बन जाती हैं-आना, जाना, उठना, बैठना आदि। परंतु व्याकरण का काम यह नहीं है कि आ, जा, उठ, बैठ आदि धातुओं की विकासपद्धति समझाए। यह काम भाषाविज्ञान का है। संस्कृत में ऐसी संज्ञाएँ नपुंसक वर्ग में प्रयुक्त होती हैं - आगमनम्, गमनम्, उत्थानम्, उपवेशनम् आदि। परंतु हिंदी में पुंप्रयोग होता है-"आपका आना कब हुआ?" हिंदी ने पुंप्रयोग क्यों किया, यह व्याकरण न बताएगा। वह अन्वाख्यान भर करेगा -"ऐसी संज्ञाएँ पुंवर्गीय रूप रखती है" बस! यह बताना भाषाविज्ञान का काम है कि ऐसा क्यों हुआ! संजीत
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== परकीय शब्दों का शासन ==
 
जब कोई भाषा किसी दूसरी भाषा से कोई शब्द लेती है, तो उसे अपने शासन में चलाती है - अपने व्याकरण के अनुसार उसकी गति नियंत्रित करती है। हिंदी का "धोती" शब्द अंग्रेजी में गया, तो वहाँ इसे अंग्रेजी व्याकरण को शिरोधार्य करना पड़ा। प्रयोग होता है अंग्रेजी में - "ब्रिंरग अवर धोतीज"। वहाँ "धोती" का बहुवचन "धोतियाँ" न चलेगा। "ब्रिंग अवर धोतियाँ" प्रयोग वहाँ गलत समझा जाएगा।