"रत्नकरण्ड श्रावकाचार": अवतरणों में अंतर

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जैन धर्म की दिगम्बर आम्नाय का यह प्रसिध्द ग्रंथ है।जो समन्तभद्राचार्य स्वामी द्वार रचित है ।इस ग्रंथ में जैन श्रावक की चर्या का वर्णन है आचार्य समन्तभद्र देव ने जैन श्रावक कैसा होना चाहीए इसके बारे में विस्तार से बताया है|<br />
 
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्री समन्त-भद्र आचार्य ने महावीर भगवान् को नमन किया है|<br />
 
<big>"नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने |<br />
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ||१||"</big><br />
अर्थात:- जिनके केवलज्ञान रूप दर्पण में अलोकाकाश सहित षट्द्रव्यों के समूहरूप सम्पूर्ण लोक अपनी भूत , भविष्यत् , वर्तमान की समस्त अनंतानंत पर्यायों सहित प्रतिबिंबित हो रहा है , और जिनका आत्मा समस्त कर्ममल रहित हो गया है , ऐसे श्री वर्द्धमान देवाधिदेव अंतिम तीर्थंकर को मैं अनपे आवरण, कषायादी मल रहित सम्यग्ज्ञान प्रकाश के प्रगट होने के लिए नमस्कार करता हूँ |