"धर्म के लक्षण": अवतरणों में अंतर

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[[मनु]] ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
 
: '''धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।'''
: '''धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌ ।।''' (मनुस्‍मृति ६.९२)
 
''( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं । )''
 
==याज्ञवक्य==
याज्ञवल्क्य ने धर्म के '''नौ''' (9) लक्षण गिनाए हैं:
 
: '''अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।'''
: '''दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌ ।।'''
''(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना) , दान, संयम (दम) , दया एवं शान्ति )''
 
==श्रीमद्भागवत==
[[श्रीमद्भागवत]] के सप्तम स्कन्ध में [[सनातन धर्म]] के '''तीस लक्षण''' बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :
 
: सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
: अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
: संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
: नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
: अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
: तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
: श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
: सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
: नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
: त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
 
==महात्मा विदुर==
[[महाभारत]] के महान् यशस्वी पात्र [[विदुर]] ने धर्म के '''आठ अंग''' बताए हैं -
 
: '''इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ'''।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान् बन जाता है।
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान् बन जाता है।
 
==तुलसीदास द्वारा वर्णित ''धर्मरथ''==
 
: सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
: '''सौरज''' '''धीरज''' तेहि रथ चाका, '''सत्य सील''' दृढ़ ध्वजा पताका।
: बल '''बिबेक दम पर-हित''' घोरे, '''छमा कृपा समता''' रजु जोरे।
: '''ईस भजनु''' सारथी सुजाना, '''बिरति चर्म संतोष''' कृपाना।
: '''दान''' परसु '''बुधि''' सक्ति प्रचण्डा, बर '''बिग्यान''' कठिन कोदंडा।
: '''अमल अचल मन''' त्रोन सामना, सम '''जम नियम''' सिलीमुख नाना।
: कवच अभेद '''बिप्र-गुरुपूजा''', एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
: सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
 
: महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर ।
: जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर ।। '''(लंकाकांड) '''
 
==पद्मपुराण==
 
: ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
: दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
: अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
: एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
''(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)''
 
==वाह्य सूत्र==