"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर

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(१३) अपभ्रंश के कोश संभवतः पृथक् उपलब्ध नहीं है । प्राकृत के देशी शब्दकोशों अथवा देशी नाममालाओं में ही उनका अंतर्भाव समझना चाहिए ।
 
==प्राचीन भारतीय कोशों एवं आधुनिक पाश्चात्य कोशों में अन्तर==
आधुनिक और पाश्चात्य कोशों की भेदकताएँ मुख्यतः निम्ननिर्दिष्ट हो सकती हैं-
 
(१) योरप में विशेष रुप से और भारत में आंशिक रुप से - आदिमध्यकालीन कोशकर्म में कठिन शब्दों का सरल शब्दों या पर्यायों द्वारा अर्थज्ञापन होता था । योरप में सामान्यतः एक पर्याय दे दिया जाता था और भारत में वैदिक निघंटुकाल से ही पर्यायशब्दों का अर्थबोधकपरक एकत्रीकरण होता था । इनमें दुर्बोंध्य और कठिन शब्दों के संग्रह की मुख्य प्रेरणा थी । भारतीय कोशों में बहुपर्याय संग्रह के कारण अनेक क्लिष्ट शब्दों के साथ पर्यायवाची कोशों में सरल शब्द भी समाविष्ट रहते थे । निघंटु का शब्दसंकलन भई वैदिक वाङ्मय के समग्र शब्दनिधि का संग्रह न होकर अधिकत: दुर्बोध्य और विवेच्य शब्दों की संकलन प्रेरणा से प्रभावित है ।
 
(२) भारत के प्राचीन कोश पर्यायवाची या समानार्थक थे । आरंभिक अवस्था में नानार्थक शब्दों इनमें परिशिष्ट जुड़ा रहता था । आगे चलकर नानार्थक या अनेकार्थ शब्दलिपि का विस्तार से आकलन होने लगा । फलत: संस्कृत के अनेक नानार्थ कोशों में मुख्यत: नामसंग्रह होता था और आगे चलकर लिगनीर्दोश भी होने लगा । पर्यायवाची कोशों की संग्रयोजना वर्गपरक हो गई थी । नानार्थ शब्दों की क्रम योजना में अंत्य व्यंजनाक्षर का क्रम ( मूलत:) अपनाया गया । पर कभी कभई आदिवर्ण का आधार लेकर वर्णमालानसरी शब्द-क्रमयोजना का प्रयास भी किया गया । पर दूसरी ओर आधुनिक कोशों में लघु कोशोंके अतिरित्क पर्याय के साथ साथ अर्थबोधक व्याख्याएँ भी दी जाती है । संस्कृत में यह नहीं था । टीकाएँ अवश्य यह कार्य करती थीं । संस्कृत के समानार्थक कोशों की भाँति आधुनिक कोशों में पर्याय रखने पर आधिक बल देने चेष्टा नहीं होती । कभी कभी अवश्य ही संस्कृत कोशों के प्रभाव से हिदी आदि में भी पर्ययवाची कोश बन जाते हैं । पर वस्तुत: ये कोश संस्कृत कोशों के अंवशेषमात्र है, आधुनिक कोश नहीं ।
 
(३) संस्कृत के प्रचीन कोशों में मुख्यत: नामपदों, अव्ययशब्दों तथा कभई कभी धातुओं का भई संग्रह होता था । व्याकरण- प्रभावित संग्रहदृष्टि का मूल कदाचित् पाणिनि के धातुपाठ और गणपाठों में दिखाई पड़ता है । आरंभ में, अमरकाल और उसके बाद, संस्कृत का मुख्य रूप नामलिगानुशासनात्मक हो गया । आधुनिक कोशों में रचनाविधान की भिन्नता के कारण इसे अनुपयोगी मानकर सर्वथा त्याग दिया गया । परंतु व्याकरणमूलक ज्ञान और प्रयोग के लिये उपयोगी निर्देश प्रत्येक के साथ लघुसंकेतों द्वारा निदिष्ट होते हैं ।
 
(४) आज के शब्दकोशों का निर्माण उन समस्त जनों के लिये होता है जो तत्तद्भाषाओं के सरल या कठिन किसी भी शब्द का अर्थ जानना चाहते है । संस्कृत कोशों का मुख्य रूप पद्यात्मक होता था । इस कारण उसका अधिकत: उपयोग वे ही कर पाते थे जो कोशपद्यों को कंठस्य कर रखते थे । प्रयोग और अर्थज्ञान के साथ साथ कोशों को कंठस्थ करना भी एक उद्देश्य समझा जाता था पर आज के नवीन कोशों का यह प्रयोजन बिल्कुल ही नहीं हैं ।
 
(५) संस्कृत के प्राचीन कोशों का प्रयोजन होता था कवियों, साहित्यनिर्मताओं और काव्यशास्त्रादि के पाठकों के शब्दभंड़ार की वृद्धि करना । परंतु आधुनिक कोशो का मुख्य प्रयोजन है शब्दों के अर्थ का ज्ञान और तत्संबंधी अन्त बातों की जानकारी देते हुए उनके समीचीन प्रयोग की शत्कि बढ़ाना ।
 
(६) इनेक अतिरित्क शब्दोच्चारण, व्युत्पत्तिसूचन, शब्दप्रय़ोग का प्रथम और यदि कोई शब्द लुप्तप्रयोग हो गया हो तो उसका सप्रमाण ऐतिहासिक वर्णन, नाना अर्थो का समान्य एबं विशेष संदर्भ- संयुत्क विवित्क विवरण, यौगिक एवं मुहावरों के शब्दयोगों तथा धातुयोगों आदि के अर्थवैशिष्ट्य का सोदाहरण निरूपण भी आधुनिक कोशों में रहता है । यह सब प्राचीन कोशों में नहीं था । कोशटीकाओं में अवश्य इनमें से अनेक बार्ते अंशत: और प्रसंगत: निदिष्ट कर दी जाती थीं ।
 
==इन्हें भी देखें==
*[[संस्कृत के आधुनिक कोश]]
*[[पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय]]
*[[शब्दकोशों का इतिहास]]