"भिखारीदास": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 9:
#छंदार्णव पिंगल <ref>छंदार्णव पिंगल संवत 1799</ref>
#काव्यनिर्णय <ref>काव्यनिर्णय संवत 1803</ref>,
#[[श्रृंगार निर्णय]] <ref>श्रृंगारनिर्णय संवत 1807</ref>,
#नामप्रकाश कोश <ref>नामप्रकाश कोश संवत 1795</ref>,
#विष्णुपुराण भाषा <ref>विष्णुपुराण भाषा दोहे चौपाई में</ref>;
पंक्ति 29:
भिखारी दास में देव की अपेक्षा अधिक रसविवेक था। इनका 'श्रृंगारनिर्णय' अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस है। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें उक्ति वैचित्रय अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कम पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से,चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो, कहना चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी।
 
<blockquote><poem>वाही घरी तें न सान रहै, न गुमान रहै, न रहै सुघराई।
दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई
ह्याँ दिखसाधा निवारे रहौ तब ही लौ भटू सब भाँति भलाई।
पंक्ति 69:
ठीक ठगि रहीं, लगि रहीं बनमाल में।
लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा
बंधान सँचै कै भई मगन गोपाल में</poem></blockquote>