"हनुमानबाहुक": अवतरणों में अंतर

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श्रीगणेशाय नमः
 
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीमद्-गोस्वामि-तुलसीदास-कृत
हनुमान बाहुक :हिन्दी भावार्थ सहित
 
छप्पय
सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु ।
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भावार्थ - शिव, स्वामि-कार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवता-वृन्द सबके युद्ध रुपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं । वेदरुपी वन्दीजन कहते हैं – आप पूरी प्रतिज्ञा वाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं । जिनके गुणों की कथा को रघुनाथ जी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया । तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) – के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? (कोई नहीं) ।।३।।
 
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो ।
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कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।४।।
 
भावार्थ – सूर्य भगवान् के समीप में हनुमान् जी विद्या पढ़ने के लिये गये, सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझकर बहाना किया ( कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने के पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है) । हनुमान् जी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ पैरों से प्रसन्न-मन आकाश-मार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ । इस अचरज के खेल को देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्त में खलबली-सी उत्पन्न हो गयी । तुलसीदासजी कहते हैं – सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं ।।४।।
 
भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ।।
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।
नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ।।५
 
भावार्थ – महाभारत में अर्जुन के रथ की पताका पर कपिराज हनुमान् जी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेना में घबराहट उत्पन्न हो गयी । द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार है । जिनका बल वीर-रस-रुपी समुद्र का जल हुआ है । इनके स्वाभाविक ही बालकों के खेल के समान धरती से सूर्य तक के कुदान ने आकाश-मण्डल को एक पग से भी कम कर दिया था । सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं । इस प्रकार हनुमान् जी का दर्शन पाने से उन्हें संसार में जीने का फल मिल गया ।।५।।
 
गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो ।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।
संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।६
 
भावार्थ – समुद्र को गोखुर के समान करके निडर होकर लंका-जैसी (सुरक्षित नगरी को) होलिका के सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रु के) पुर में गड़बड़ी मच गयी । द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया । राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया । तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं ।।६।।
 
कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।
कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।७
 
भावार्थ – कच्छप की पीठ में जिनके पाँव के गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र (बर्तन) हुए । राक्षसों का नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्यों के रहने का स्थान हुआ । तुलसीदासजी कहते हैं – रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद रुपी ईंधन को जलाने के निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ । भीष्मपितामह कहते हैं – मेरी समझ में हनुमान् जी के समान अत्यन्त बलवान् तीनों काल और तीनों लोक में कोई नहीं हुआ ।।७।।
 
दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।।
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।।८
 
भावार्थ - आप राजा रामचन्द्रजी के दूत, पवनदेव के सुयोग्य पुत्र, अंजनीदेवी को आनन्द देने वाले, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी, सीताजी के शोकनाशक, पाप तथा अवगुण के नष्ट करने वाले, शरणागतों की रक्षा करने वाले और लक्ष्मणजी को प्राणों के समान प्रिय हैं । तुलसीदासजी के दुस्सह दरिद्र-रुपी रावण का नाश करने के लिये आप तीनों लोकों में आश्रय रुप प्रकट हुए हैं । अरे लोगो ! तुम ज्ञानी, गुणवान्, बलवान् और सेवा (दूसरों को आराम पहुँचाने) – में सजग हनुमान् जी के समान चतुर स्वामी को अपने हृदय में बसाओ ।।८।।
 
दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।।
लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।९।।
 
भावार्थ - दानवों की सेना को नष्ट करने में जिनका पराक्रम विश्व-विख्यात है, वेद यश-गान करते हैं कि देवताओं को कारागार से छुड़ाने वाला पवनकुमार के सिवा दूसरा कौन है ? आप पापान्धकार और कष्ट-रुपी पाले को घटाने में प्रवीण तथा सेवक रुपी कमल को प्रसन्न करने के लिये प्रातः-काल के सूर्य के समान हैं । तुलसी के हृदय में एकमात्र हनुमान् जी का भरोसा है, स्वप्न में भी लोक और परलोक की चिन्ता नहीं, शोकरहित हैं, रामचन्द्रजी के दुलारे शिव-स्वरुप (ग्यारह रुद्र में एक) केसरी-नन्दन का नाम कलिकाल में कल्प-वृक्ष के समान है ।।९।।
 
महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।।