"भोजली देवी": अवतरणों में अंतर
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सावन की पूर्णिमा तक इनमें 4 से 6 इंच तक के पौधे निकल आते हैं। रक्षाबंधन की पूजा में इसको भी पूजा जाता है और धान के कुछ हरे पौधे भाई को दिए जाते हैं या उसके कान में लगाए जाते हैं। भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है। और इसे रक्षाबंधन के दूसरे दिन विसर्जित कर दिया जाता है। नदी, तालाब और सागर में भोजली को विसर्जित करते हुए अच्छी फ़सल की कामना की जाती है।
==ऐतिहासिक उल्लेख==
भुजरियाँ बोने की प्रथा आठवीं शताब्दी से प्राचीन प्रतीत होती है। [[पृथ्वीराज चौहान]] के काल की लोकप्रचलित गाथा के अनुसार चन्द्रवंशी [[राजा परमाल]] की पुत्री [[चन्द्रवली]] को उसकी माता सावन में [[झूला]] झुलाने के लिए बाग में नहीं ले जाती। पृथ्वीराज अपने पुत्र ताहर से उसका विवाह करना चाहता था। [[आल्हा-ऊदल]] उस समय [[कन्नौज]] में थे। ऊदल को स्वप्न में चन्द्रावली की कठिनाई का पता चलता है। वह योगी के वेश में आकर उसे झूला झुलाने का आश्वासन देता है। पृथ्वीराज ठीक ऐसे ही अवसर की ताक में था। अपने सैनिकों को भेजकर वह चन्द्रावली का अपहरण करना चाहता है। युद्ध होता है। ताहर चन्द्रावली को डोले में बैठाकर ले जाना चाहता है, तभी ऊदल, इन्दल और लाखन चन्द्रावली की रक्षा करके उसकी भुजरियाँ मनाने की इच्छा पूर्ण करते हैं। नागपंचमी को भी भुजरियाँ उगायी जाती हैं। उसे पूजा के पश्चात 'भुजरियाँ` गाते हुए नदी अथवा तालाब अथवा कूएँ में सिराया जाता है।<ref>{{cite
छत्तीसगढ़ जैसे कुछ प्रांतों में भोजली कान में लगाकर मित्र बनाए जाते हैं और इस मित्रता को जीवन भर निभाया जाता है।<ref>{{cite web |url= http://sanjeettripathi.blogspot.com/2007/08/blog-post.html|title= दोस्ती: प्रीत वही पर रीत पराई |accessmonthday=[[24 जुलाई]]|accessyear=[[2007]]|format= एचटीएमएल|publisher=आवारा बंजारा|language=}}</ref>
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