"पद्मनाभस्वामी मंदिर": अवतरणों में अंतर

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==उत्तर भारत का पद्मनाभ मंदिर ==
 
अकूत संपदा में पद्मनाभ मंदिर समान है नरसिंह मंदिर अस्तल Etawahभारतीय संस्कृति में धर्म का एक विशेष महत्त्व रहा है और इसीलिए दान का भी महत्त्व रहा है। हमारे मंदिरों की सम्रद्धि सदैव से लुटेरों के आक्रमण का केंद्र रही है! पहले मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सोमनाथ मंदिर को कई बार लूटा और अब इस्लामिक और ईसाई गठबंधन केरल के पद्मनाभ मंदिर को लूट रहा है, और देश के हिन्दू ये देख ही नहीं पा रहे हैं कि उनकी संपत्ति को छिना जा रहा है जो कि बाद में इस्लाम और ईसाइयत के प्रचार में लगाई जाएगी। उत्तर भारत में काशी विश्व्नाथ मंदिर, रामजन्मभूमि और कृष्ण जन्मस्थल आदि स्थानों पर हुए मुगल आक्रमण इतिहास के पन्नों में उलटफेर कर दर्शाये जाते रहे। दूसरी ओर उत्तर भारत का एक ऐसा भी मंदिर है जिसे संपदा के अनुसार उत्तर का पद्मनाभ मंदिर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह है इष्टिकापुरी (इटावा) का नरसिंह मंदिर अस्तल, जिसकी अकूत संपदा ��रहस्य�� है। काफी कुछ महंत परंपरा के चलते खुर्द-बुर्द हो चुकी है, इनमें बेशकीमती आभूषण और कई जिलों में फैली अचल संपदा है। यहां भी अकूत संपदा को लूटने को आलमगीर औरंगजेब आया था, लेकि‍न ईश्वरीय चमत्कार के आगे औरंगजेब नतमस्तक हो गया और उसने मंदिर तोड़ने का इरादा बदल दिया और वार्षिक वजीफे का राजाज्ञा पत्र दिया, जो आज भी है। लंबे समय तक वजीफा मिलता रहा और वैष्णव भक्तों की श्रद्धा-भक्ति से निरंतर संपदा बढ़ती गई। इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि रामानुज वैष्णव संप्रदाय का मंदिर 11 वीं शताब्दी का है, रामानुजाचार्य का जीवन परिचय कुछ यूं है- 1017 ई. में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली, रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया थारू- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया, फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। 1137 ई. में वे ब्रह्मलीन हो गए। रामानुजाचार्य ��रामानुज वैष्णव संप्रदाय के प्रणेता है, अतः यह मंदिर संभवतः 11 वीं शताब्दी में बनाया गया होगा। इष्टिकापुरी (इटावा) के नरसिंह मंदिर अस्तल की ख्याति समूचे भूमंडल में थी, तभी तो आलमगीर औरंगजेब ने इस मंदिर पर आक्रमण किया। जन समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिये उसने बाबड़ी पर आकाश में चटाई बिछाकर नमाज पढ़ने का चमत्कार दिखाया। नरसिंह मंदिर अस्तल के महंत त्रिकालदर्शी भिड़ंग ऋषि उस समय यमुना स्नान कर रहे थे, उन्हें जैसे ही आक्रमण की अनुभूति हुई, वैसे ही मृगछालासन और कमंडल लेकर दौड़ते हुए आये और बोले - ��रे धूर्त! बंदकर ये तमाशा।�� औरंगजेब ने जवाब दिया- ��तूझमें ईश्वरीय शक्ति है तो दिखा चमत्कार, मै औरंगजेब हूं। बुत (मूर्तिपूजा) ढोंग है...�� वह कुछ और कहता मगर क्रोध में ऋषि भिड़ंग ने मृगछाला निकटवर्ती कुएं पर आकाश में फैला दी। ऋषि अपने आसन पर चढ़े ही थे, औरंगजेब चटाई सहित वाबड़ी (तालाब) पर जा गिरे मगर डूबे नहीं। ऋषि ने आकाश में बिछे आसन पर संध्या प्रारंभ करते हुए कहा- �� बोल डुबो दूं?�� हाथ में यमुना जल लेकर संकल्प मंत्र पढ़ना शुरू किया तो औरंगजेब चटाई सहित तालाब में डूबने लगा। मुंह से निकला - ��बाबा! बचाओ। बचाओ!!�� मंत्र पूरा होने वाला था, ऋषि भिड़ंग ने संकल्प का रूप बदल दिया-��..... आक्रांतायाः जीवन रक्षणार्थं नभे संध्यां करिष्ये।�� औरंगजेब चटाई सहित अपने आप जल से जमीन पर आ गये चारों ओर राधे-राधे गान होने लगा, औरंगजेब भी गाने लगा। संध्या पूरी होते ही औरंगजेब ऋषि के समक्ष नतमस्तक हुआ, उसने मंदिर को तोड़ने की इच्छा त्यागते हुए तत्काल नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा को नियमित रूप से आर्थिक सहायता (वजीफा) देते रहने का लिखित हुक्मनामा दिया। यह हुक्मनामा मंदिर के गर्भगृह के समक्ष स्थापित मानस्तंभ पर आज तक सुरक्षित है। नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा में ऋषि भिड़ंग के बाद उनके शिष्य गोपाल दास महंत हुए। एक सहस्राब्दी तक नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा में महंत ही सर्वेसर्वा होते थे। 1911 में महंत रामप्रपन्न रामानुज ने विचार किया- हो न हो आने आले महंत निष्ठावान न रह पायें और स्वार्थ पूर्ण महत्वाकांक्षा में मंदिर की गरिमा न गिरा दें। उन्होंने वसीयत की - ��नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा की सारी चल-अचल संपत्ति भगवान नरसिंह महाराज की होगी, व्यवस्था संचालन के लिए ट्रस्ट बनाया जाये, जो महंत को समुचित दिशा निर्देश देता रहे। वसीयत के आधार पर महंत रामप्रपन्न रामानुज ने प्रथम ट्रस्ट बनाया जिसके अध्यक्ष राजा नरसिंह राव बनाये गये, 5 ट्रस्टी थे। चूंकि राजा नरसिंह राव लखना स्टेट के उत्तराधिकार मसले पर प्रीमो सुप्रीम कोर्ट लंदन में बैरिस्टर मोतीलाल नेहरू और ज्योती शंकर दीक्षित के साथ व्यस्त थे, लिहाजा नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा के ट्रस्ट पर कम ध्यान दे पाये। परंपरानुरूप महंत सर्वेसर्वा रहे। ट्रस्ट अस्तित्व में रहे, मगर मोनोपॉली महंतों की चलती रही। महंत जगदीश नारायण, नरसिंह मंदिर अस्तल के 11 वें महंत र्हैं मंदिर की संपदा खुर्द-बुर्द होती रही। महंत जगदीश नारायण 57 वर्ष से महंत पद पर हैं। 1965 में ट्रस्ट के अध्यक्ष राजाराम चौधरी ने एडवोकेट जनरल से परामर्श करते हुए अनुमति मांगी। 1966 में मुकदमा किया, सात वर्ष बाद 1973 में फैसला आया और प्राप्त आवेदनों के आधार ट्रस्ट घोषित किया, राजाराम सहित कई ट्रस्टी काल कवलित हो चुके हैं, लिहाजा अटल बिहारी चौधरी 205 लालपुरा इटावा को अध्यक्ष और ब्रजेश दुबे, भगवानदास शुक्ला, जगदीश गुप्ता, राम अवतार तुलसीपुरा और सुरेंद्र कुमार (जालौन) को अध्यक्ष घोषित किया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मुकदमा नं0 323/1973 के 6-1-2010 के निर्णय में ट्रस्ट का अनुमोदन हुआ। 13 मई 2012 को ट्रस्ट की आमसभा हुई। �अस्तल� शब्द की पहचान आज अस्तल पुलिस चौकी के रूप में है। पहले अस्तल वार्ड था और अस्तल अखाड़ा था। उत्तर भारत में दक्षिण के पद्मनाभ मंदिर की तरह अकूत संपदा वाला अस्तल मंदिर भी है, यकीन नहीं होता। हो भी तो कैसे, नई और युवा पीढ़ी ने मंदिर देखा ही नहीं। अस्तल में मजबूत चहारदीवारी वाले तीन परकोटों के अंदर नरसिंह महाराज मंदिर का गर्भगृह है, बिल्कुल उसी शैली में जैसा वृन्दावन में रंगनाथ मंदिर चार परकोटों में है। कुछ समय पहले यहां 2-3 स्कूल थे। गौशाला थी, अखाड़ा था, मनमोहक बगीचा था, नरसिंह क्लब द्वारा नाटक होते थे। आज यहां तमाम गैराजे हैं जिनमें खड़ी हैं गाड़ियां, दो धान मील हैं, बहुमंजिली इमारतें और सैकड़ों किरायेदार हैं। बीते 57 वर्ष से महंत बने चले आ रहे जगदीश नारायण ही सर्वेसर्वा हैं अब ट्रस्ट के अस्तित्व में आने से महंतजी व्यथित दिख रहे हैं।
 
Devesh Shastri Etawah
 
==बाहरी कड़ियाँ==
* [http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&category=6&articleid=6192 पद्मनाभस्वामी मंदिर में मिला अमूल्य खजाना]