"रसगंगाधर": अवतरणों में अंतर

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कहा जाता है, रसगंगाधर का आयाम पाँच आनन में पूरा हुआ था परंतु दुर्भाग्यवश केवल डेढ़ ही आनन अद्यावधि उपलब्ध हुआ है, तथापि जितना कुछ अंश अधुना उपलब्ध है वह भी काव्यशास्त्र के अध्येता के लिए परम उपकारक है। प्रथम आनन में काव्य की परिभाषा एवं काव्यभेद का विवेचन कर रसस्वरूप और भवध्वनि का सांगोपांग निरूपण अत्यंत सहृदयगम्य सूक्ष्म दृष्टि के साथ किया गया है। द्वितीय आनन में शब्दशक्ति के प्रतिपादन के पश्चात्‌ अलंकार प्रकरण प्रारंभ होता है, जो केवल उत्तरालंकार के निरूपण तक ही उपलब्ध होता है। विद्वानों की धारणा है कि शेष आननों में पंडितराज ने अन्यान्य काव्यतत्वों का एवं दृश्य काव्य के लक्षणों पर भी विचार अवश्य किया होगा।
 
रसगंगाधर पर सर्वप्राचीन एक टीका "'''गुरुमर्मप्रकाश'''" नामक उपलब्ध है जिसकी रचना वैयाकरण [[नागेश]] के द्वारा हुई है। यह टीका मूल ग्रंथ के साथ अपेक्षित न्याय करने में सर्वथा असिद्ध हुई; अनेकत्र इस टीका में उपहासास्पद भ्रांतियाँ भी है। यह टीका ग्रंथकार के हृदय को खोलकर अध्येता के समक्ष उपस्थित न कर पाई। वस्तुत: टीकाकार की यह अनधिकार चेष्टा असूयाप्रसूत है। इसी त्रुटि के निवारणार्थ एक 'नवीन सरला' नामक टीका जयपुर निवासी मंजु नाथ के द्वारा साहित्य विद्वान्‌ आचार्यवर्य जग्गू वैंकटाचार्य के परामर्श से निर्मित की गई। यह टीका क्वचित्‌ स्थलों पर तलस्पर्श अवश्य करती है परंतु समग्र ग्रंथ को अपेक्षित रूप से विशद करने का प्रयास नहीं करती। इसके अतिरिक्त [[काशी]] से रसगंगाधर का संस्करण लब्धप्रतिष्ठ विद्वान्‌ महामहोपाध्याय गंगाधर शास्त्री, सी.आई.ई. द्वारा रचित टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ है। रसगंगाधर का श्री पुरुषोत्तम चतुर्वेदी द्वारा हिंदी अनुवाद किया गया दो भागों में [[काशी नागरीप्रचारिणी सभा]] से प्रकाशित हुआ है। इसका [[मराठी]] भाषांतर भी पंडित [[अभ्यंकर शास्त्री]] ने प्रस्तुत किया है जो [[पूना]] से प्रकाशित हुआ है।
 
वस्तुत: पंडितराज की अपूर्व विवेचनशैली एवं उच्चतर प्रौढ़ि के कारण रसगंगाधर को अप्रतिम सम्मान एवं महनीय उपादेयत्व प्राप्त हुआ है और वही उसपर अनेक टीकाओं एवं अनुवादों की बाढ़ की प्रतिरोधिनी भी सिद्ध हुई।
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://sanskritvishvam.com/index.php?page=ebook_data&&sub=285 रसगंगाधर] : पाठ, टीका एवं अर्थ
 
[[श्रेणी:संस्कृत ग्रन्थ]]