"सबाल्टर्न अध्ययन": अवतरणों में अंतर

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== अवधारणाएं ==
=== सबाल्टर्न इतिहास ===
सबाल्टर्न इतिहासकारों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि औपनिवेशिक दासता से ग्रस्त या उबर चुके [[राष्ट्र]] में राष्ट्रवादी इतिहास का लिखा जाना जातीय गौरव का प्रतीक बन जाता है। राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा [[उपनिवेश]] विरोधी [[चेतना]] के निर्माण हेतु समृद्ध [[विरासत]] को पुनर्जीवित करने का ही प्रयास किया जाता है। इस [[विचारधारा]] ने [[जातीयता]] और [[राष्ट्र]] की मूलभूत अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इन्होंने समस्त राष्ट्रवादी इतिहास लेखन को [[अभिजनवाद|अभिजनवादी]] कहकर अपर्याप्त घोषित कर दिया, साथ ही स्वातंत्र्योत्तर [[भारत]] के इतिहासकारों के समक्ष चुनौती रखी कि वे औपनिवेशिक भारत और [[भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष|स्वतंत्रता संघर्ष]] के इतिहास को सबाल्टर्न इतिहास के रूप में अर्थात् उस साधारण जनता के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करें जिनकी राष्ट्रीय चेतना और प्रतिरोध का नेतृत्व हमेशा अभिजात प्रभावशाली राष्ट्रीय नेताओं द्वारा किया गया।<ref>Writing Cultural History of Colonial and Postcolonial India, Henry Schwarz, University of Pennsylvania Press, Philadelphia, 1997, page- 140, ISBN: 0195634713 0-8122-3373-5</ref>
 
=== कल्पित समुदाय ===
प्रसिद्ध सबाल्टर्न अध्ययेता [[रंजीत गुहा]], [[पार्थ चटर्जी]] आदि ने भारत में राष्ट्र की अवधारणा को भ्रामक [[प्रत्यय]] माना। उनकी यह धारणा [[बेनेडिक्ट ऐंडरसन]] की [[कल्पित समुदाय]] की अवधारणा से प्रभावित है।<ref>Imagined Communities, Benedict Anderson, Verso, 2003,page- 5-6</ref>। पार्थ चटर्जी ने माना है कि भारत का एक अखण्ड इतिहास लिखने की जगह उसके खण्डों, टुकड़ों का इतिहास लिखा जाना चाहिए।<ref>The Nation and its Fragments, Partha Chatterjee, OUP, 1994, page- 113, ISBN: 0195634713 </ref>
=== किसान नेतृत्व ===
किसान प्रश्न पर गुहा ने घोषित किया कि, किसान इतिहास की विषयवस्तु नहीं, स्वयं अपने इतिहास के कर्ता हैं।<ref>Elementary Aspect of Peasant Insurgency in Colonial India, Ranjit Guha, OUP, 1983, page- 13</ref> गुहा तथा पार्थ चटर्जी जैसे उनके सहयोगियों ने किसानों के विद्रोहों को ‘विशुद्ध चेतना’ से अनुप्राणित माना। इसी ‘विशुद्ध चेतना’ के मुहावरे में उन्होंने किसानों को व्यापक राष्ट्रीय आंदोलनों की मुख्यधारा से अलगाया।