"व्यवहार प्रक्रिया": अवतरणों में अंतर

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यह तो दैहिक तंतुओं का भी नियम है कि वे सतत कार्य करते रहने से थक जाते हैं। ज्ञानेंद्रियाँ भी थककर संज्ञाशून्य हो जाती हैं। बहुत मिठाई खाने से मिठास का अनुभव सुखहीन वा फीका पड़ जाता है। धूप जलाने पर उसकी गंध तो कुछ समय तक हम अनुभव करते हैं किंतु थोड़ी देर में वह सुगंध प्राय: लुप्त हो जाती है। यही दशा दैनिक संघर्ष द्वारा परिस्थिति के दु:खद अंश की होती है। कह सकते हैं कि इस चेतनालोप द्वारा हम शोकमुक्त होकर समाज के साथ समायोजित होते हैं। परंतु ये लुप्त प्रेरणाएँ अज्ञात मानस अवस्था में गुप्त रूप से बनी रहती हैं और उचित अवसर पाकर छद्म रूप से ज्ञात मन द्वारा इष्टपूर्ति का प्रयास करती हैं।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post.html क्षोभनशीलता और संवेदिता] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_13.html व्यवहार के सहज रूप और सहजवृत्तियां] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html अनुकूलित संबंध और सहज क्रियाएं] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/08/blog-post_28.html जीवों द्वारा उपार्जित व्यवहार के रूप] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/09/blog-post.html पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - १] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
* [http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/09/blog-post_18.html पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - २] ( ‘समय के साये में’ पर प्रस्तुत मनोविज्ञान श्रृंखला से )
 
[[श्रेणी:मनोविज्ञान]]
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