"कर्म": अवतरणों में अंतर

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जिन्हें हम शुभ कर्म कहते हैं वे पुण्य तथ अशुर्भ कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य और पाप मुख्यत: क्रिया के फल का बोध कराते हैं। ये कर्म तीन प्रकार के हाते हैं। नित्यकर्म वे हैं जो न करने पर पाप उत्पन्न करते हैं, किंतु करने पर कुछ भी नहीं उत्पन्न करते। नैमित्तिक कर्म करने से पुण्य तथा न करने से पाप होता है। काम्य कर्म कामना से किए जाते हैं अत: उनके करने से फल की सिद्धि होती है। न करने से कुछ भी नहीं होता। चूँकि तीनों कर्मों में यह उद्देश्य छिपा है कि पुण्य अर्जित किया जाए, पाप से दूर रहा जाए, अत: ये सभी कर्म मन:प्रेरित हैं। जन्म से छुटकारा पाने के लिए नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का परित्याग अत्यंत आवश्यक माना गया है।
 
==कर्म ही पूजा है!==
वर्क इज वर्शिप, भरतीय षड्दर्शन, प्रस्थानत्रय (गीता, वेदान्त, ब्रह्मसूत्र) आदि सभी धर्मग्रंथ कर्म सिद्धांत को प्रतिपादित करते हैं। इसी आधार पर कार्य को पूजा की संज्ञा दी गई है। कृ धातु में यत् प्रत्यय के साथ शब्द बना कार्य। कार्य से तात्पर्य है, करने योग्य। यथा पाठ्य-पढ़ने योग्य, पूज्य- पूजा के योग्य, दृश्य- देखने के योग्य।
करने के योग्य जो है, वही कार्य अर्थात् कर्म है। जो करने योग्य नहीं है, और हो जाये वह अकर्म और विकार (दोष) युक्त विकर्म होता है। जबकि निषिद्ध कर्म कुकर्म की श्रेणी में आते हैं। अकर्म, विकर्म, कुकर्म (दुष्कर्म) आदि पूजा नहीं हैं। कर्म पूजा है किन्तु कर्म की कसौटी बड़ी खरी है, जीव द्वारा किया जाने वाले प्रत्येक कार्य को पूजा मान लेना अनिष्टकारी है। जब सत् ही ईश्वर है तो सत् की सत्ता का गुणगान यानी पूजा सत् से समाहित कर्म हुआ अर्थात् सत्कर्म ही कार्य है यानी करने योग्य है। वही पूजा है।
आदि शंकराचार्य ने परापूजा स्तोत्र में लिखा है- अखंड, सच्चिदानंद, निर्विकल्प अद्वितीयभाव की पूजा कैसे हो? जो पूर्ण है उसका आवाहन? जो सर्वाधार है उसे आसन देना? स्वच्छ को अघ्र्य, शुद्ध को आचमन, निर्मल को स्नान? विश्वोदर यानी जिसके उदर में सारा ब्रह्मांड है उसे वस्त्र? अगोत्र को जनेऊ? निर्लेप को गंध? निर्वासित को पुष्प? निराकार को आभूषण? निरंजन को धूप? सर्वसाक्षी को दीप? स्वयंप्रकाशवान् को आरती? अनंत की परिक्रमा? जिसके रहस्य को वेद भी नहीं बता सके नेति नेति ही कह पाये उसकी स्तुति? अन्तर्बहि सर्वत्र स्थित का अवसान? इस तरह सत् पर केंद्रित प्रत्येक क्रिया कलाप ही परापूजा है। ‘‘आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहे। पूजा ते विविधोपभोग रचना निद्रा समाधिस्थितिः।। संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो। यद्यत्कर्मं करोमि तत्तदखिलं शंभो! तवाराधनम्।।’’ शरीर रूपी मंदिर में परमात्मतत्व तू शिव ही आत्मा, प्रकृति/माया स्वरूपिणी पार्वती बुद्धि, सहयोगीगण प्राण है विभिन्न भोग उपयोग रचना यानी क्रिया ही पूजा तथा समाधि की स्थिति नींद है। पैरो का संचार यानी चलना ही परिक्रमा और हर प्रकार की ध्वनि यानी वाणी स्तुतिगान है। हे प्रभु! इस तरह मैरे द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कर्म आपकी आराधना है।
- देवेश शास्त्री
 
 
==बाहरी कड़ियाँ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्म" से प्राप्त