"खगोलभौतिकी": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
AvocatoBot (वार्ता | योगदान) छो r2.7.1) (Robot: Adding war:Astropisika |
Smeatteams (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 1:
{{विज्ञान}}
'''ताराभौतिकी''' या '''खगोलभौतिकी''' (Astrophysics) [[खगोल विज्ञान]] का वह अंग है जिसके अंतर्गत खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है।
== आरम्भिक विकास ==
प्रकृति के रहस्यों को समझने क उत्कट इच्छा से पेरित होकर मनुष्य ने आकाशीय पंडों का अध्ययन प्रारंभ किया। उसने इनके विषय में जितनी सूचना केवल नेत्रों की सहायता से प्राप्त की जा सकती थी प्राप्त की; उदाहरणत:, वह पृथ्वी की दैनिक तथा वार्षिक गतियों और उनसे संबद्ध भौतिक घटनाओं, चंद्रमा की कलाओं तथा चांद्र मास, ग्रहों की गतियों आदि को समझने लगा। परंतु जब तक सूर्य, चंद्रमा तथा ग्रहों को बिंब और तारों को प्रकाशबिंदु समझा जाता रहा, इनके विषय में अधिक न जाना जा सका। इटली के ज्योतिषी [[गैलिलीओं गैलिली]] (सन् 1564-1642) ने सन् 1612 में आकाशमंडल के अध्ययन में पहली बार [[दूरदर्शी]] का प्रयोग किया; किंतु जब तक दूरदर्शी की रचना में समुचित उन्नति नहीं हुई, इसके उपयोग से भी ग्रहपृष्ठों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई और विशेष महत्वपूर्ण सूचना न प्राप्त की जा सकी। ज्यों ज्यों दूरदर्शी की रचना में सुधार होता गया, ज्योतिष संबंधी अनुसंधान में उसकी उपयोगिता बढ़ती गई, परंतु ताराभौतिकी का प्रारंभ तो 19वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में हुआ, जब सूर्य तथा अन्य तारों के प्रकाश के अध्ययन में जर्मनी के भौतिकविद्, गुस्तैफ रॉबर्ट किर्खहॉफ (सन् 1824-1887), द्वारा प्रतिपादित [[वर्णक्रमिकी]]
इसी
किर्खहॉफ ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रयोगों के आधार पर किया था। परंतु आगे चलकर परमाणुरचना के ज्ञान और क्वांटम सिद्धांत की सहायता से वर्णक्रमिकी के नियमों का प्रतिपादन सैद्धांतिक रूप से किया जा सका। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि ताराभौतिकी के अध्ययन में वर्णक्रमिकी के साधन की उपयोगिता की एक स्वाभाविक सीमा है। यह इसलिए कि वर्णक्रमदर्शी पदार्थ की भौतिक अवस्था के विषय में तभी सूचना दे सकता है जब यह पदार्थ दीप्तिमान गैस के रूप में हो। अत: इस साधन से यह नहीं जाना जा सकेगा कि प्रकाश के पथ में स्थित पिंडखंड किन पदार्थों के बने हुए हैं तथा उनकी भौतिक अवस्था क्या है। खगोलीय पिंडों से जो प्रकाश आता है वह उसके आंतरिक भागों में उत्पन्न होता है, फिर भी उन भागों की रचना के विषय में वर्णक्रमदर्शी की सहायता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह तो केवल इन पिंडों को घेरे हुए गैसमंडल के विषय में ही सूचना देने में समर्थ है। फलत: इन पिंडों के आंतरिक भागों की रचना तथा भौतिक अवस्था के विषय में जानने के लिये वर्णक्रमिकी से भिन्न साधनों की आवश्यकता है। इन साधनों का वर्णन आगे किया जाएगा। अघ्ययन के साधनों के विचार से तारापिंड को दो मुख्य भागों में विभक्त किया जा सकता है: (1) आंतरिक भाग और (2) गैसमंडल
|